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सुभाष बाबू पर नया विवाद

subhash  chandra boseइधर भारत सरकार के जो कुछ गुप्त दस्तावेज़ सामने आए हैं, उनसे पता चलता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के दो भतीजों पर केंद्र सरकार कड़ी निगरानी रखती थी। यह सिलसिला 20 साल तक चलता रहा, 1948 से 1968 तक ! इस खबर के फूटते ही लोग कहने लगे हैं कि यह कितना घृणित काम था, जिसे जवाहर लाल नेहरु की  पहल पर किया जाता था। यह सबको पता है कि सुभाष बाबू और नेहरु में कड़ी प्रतिस्पर्धा थी। नेहरु तो क्या, गाँधी जी को भी यदि कोई सफल चुनौती दे सकता था तो उस महान व्यक्तित्व का नाम सुभाष बाबू था। ऐसे सुभाष से जीते जी वैर रखना तो समझ आता है लेकिन उनके मरने के बाद भी उनके परिजन पर निगरानी रखने का अर्थ क्या है ? यह निगरानी शायद इसलिए रखी जाती हो कि सुभाष बाबू के मृत्यु के बारे में उस समय तरह-तरह के संदेह व्यक्त किए गए थे । ताइवान की जहाज-दुर्घटना में उनकी मृत्यु की बात को कोई मानने को तैयार नहीं था। मौत की खबर ने मृत सुभाष बाबू को जीवित सुभाष बोस से भी ज्यादा चमत्कारी बना दिया था। यदि सुभाष बाबू सचमुच आ जाते तो शायद नेहरु के लिए बड़ी कठिनाई कड़ी हो जाती। इसलिए निगरानी की जरूरत पड़ी हो सकती है। सरकार शायद यह भी जानना चाहती हो कि सुभाष बाबू के जिन्दा होने की अफवाह को फैलाने में उनके भतीजों का कोई हाथ तो नहीं है।  मुझे समझ में नहीं आता कि कोई सरकार ऐसी निगरानी क्यों नहीं रखेगी ?

जब प्रधानमंत्री लोग अपने मंत्रियों, अपने विपक्षी नेताओं, जजों और पत्रकारों पर निगरानी बिठा सकते हैं तो वे सुभाष बाबू के भतीजों को क्यों बख्शेंगे? हो सकता है कि इस निगरानी के बारे में प्रधान-मंत्रियों को पता ही न हो यह रॉ के प्रमुख आर. एन. काव और गुप्तचर प्रमुख बी.एन. मलिक की पहल पर होता रहा हो। यदि ऐसा नहीं तो लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल (1964-1966 ) में भी यह निगरानी क्यों चलती रही ? और फिर 1968 याने इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में ही बंद क्यों हुई ? नेता जी के प्रति इंदिरा जी के मन में कोई विद्वेष नहीं था । उन्होंने जापान से लाई गई नेता जी की तलवार का लाल किले में भव्य स्वागत किया था। 1969 में मैंने काबुल के ‘हिन्दू गूजर’ नामक मोहल्ले में वह कमरा ढूंड निकाला था, जिसमें जर्मनी जाने के पहले नेताजी पठान बनकर रहते थे । वहाँ मैंने नेताजी का एक बड़ा चित्र भी रखवा दिया था । मैंने मई 1969 में इंदिरा जी को पत्र लिखकर यह सूचना दी तो उन्होंने अफगान विदेश मंत्री डॉ. खान फरहादी को कहकर उस स्थान को स्मारक के लायक बनवा दिया था । इसलिए कुछ दस्तावेजों के प्रकट भर हो जाने से लम्बे-चौड़े निष्कर्ष निकाल लेना ठीक नहीं है । सुभाष बाबू के बारे में सारे दस्तावेज खोल दिए जाने चाहिए ताकि सही निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकें ।

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