जब प्रधानमंत्री लोग अपने मंत्रियों, अपने विपक्षी नेताओं, जजों और पत्रकारों पर निगरानी बिठा सकते हैं तो वे सुभाष बाबू के भतीजों को क्यों बख्शेंगे? हो सकता है कि इस निगरानी के बारे में प्रधान-मंत्रियों को पता ही न हो यह रॉ के प्रमुख आर. एन. काव और गुप्तचर प्रमुख बी.एन. मलिक की पहल पर होता रहा हो। यदि ऐसा नहीं तो लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल (1964-1966 ) में भी यह निगरानी क्यों चलती रही ? और फिर 1968 याने इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में ही बंद क्यों हुई ? नेता जी के प्रति इंदिरा जी के मन में कोई विद्वेष नहीं था । उन्होंने जापान से लाई गई नेता जी की तलवार का लाल किले में भव्य स्वागत किया था। 1969 में मैंने काबुल के ‘हिन्दू गूजर’ नामक मोहल्ले में वह कमरा ढूंड निकाला था, जिसमें जर्मनी जाने के पहले नेताजी पठान बनकर रहते थे । वहाँ मैंने नेताजी का एक बड़ा चित्र भी रखवा दिया था । मैंने मई 1969 में इंदिरा जी को पत्र लिखकर यह सूचना दी तो उन्होंने अफगान विदेश मंत्री डॉ. खान फरहादी को कहकर उस स्थान को स्मारक के लायक बनवा दिया था । इसलिए कुछ दस्तावेजों के प्रकट भर हो जाने से लम्बे-चौड़े निष्कर्ष निकाल लेना ठीक नहीं है । सुभाष बाबू के बारे में सारे दस्तावेज खोल दिए जाने चाहिए ताकि सही निष्कर्षों पर पहुँचा जा सकें ।
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