डा. राधे श्याम द्विवेदी
1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में बस्ती मण्डल का योगदान सामान्य ही रहा। जिस समय यह जिला बना था उस समय यह गोरखपुर का भाग था। इसका कोई नागरिक केन्द्र नहीं था। इसके इतिहास को गोरखपुर के इतिहास से अलग करके नहीं देखा जा सकता है साथ ही गोण्डा एवं फैजाबाद से भी अलग करके नहीं देखा जा सकता है। गोरखपुर से संयुक्त रहते हुए बस्ती के स्मारकों के विवरण खोजे जाते रहे हैं। 1857 के विद्रोह के समय पूरे देश में अंगे्रजों पर संकट के बादल मड़राने लगे थे। सभी अंग्रेज जान बचााकर भाग रहे थे। उन्हें व उनके परिवार पर संकट बरकरार था। बस्ती कल्कट्री पर पहले अफीम तथा ट्रेजरी की कोठी हुआ करती थी। यहां 17वीं नेटिव इनफेन्ट्री की एक टुकड़ी सुरक्षा के लिए लगाई गई थी। इस यूनिट का मुख्यालय आजमगढ ़बनाया गया था।
समूचा उत्तर भारत आजादी के विद्रोह के चपेट में आ गया था। दिल्ली , मेरठ तथा अन्य कई स्थानों पर 10 मई 1857 से ही विद्रोह की चिनगारी सुलगने लगी थी। 31 मई को घाघरा नदी पर वहां के जमींदार ने रास्ता अवरूद्ध कर दिया था। नरहरपुर के राजा इन्द्रजीत सिंह ने 50 कैदियों को जेल से मुक्त करवा दिया था। 5 जून को आजमगढ़ में आन्दोलन शुरू हो गया था। 6 जून को सिपाहियों ने अधिकारियों का कहा मानने से इनकार कर दिया था। 7 जून को कैदियों ने जेल से भागने की कोशिश की थी तो 20 कैदी मारे गये थे। गोरखपुर के सिपाहियों ने 8 जून को राजकोष लूटने की कोशिश की थी। कैप्टन स्टील और उनकी 12वीं अश्वारोही सिपाहियों को घरों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। 8 एवं 9 जून को फैजाबाद तथा गोण्डा के सिपाहियों अंगे्रजों के विरुद्ध हो गये थे। सब जगहों पर सड़कें अवरुद्ध कर ली गई थीं।
इधर बस्ती जिलें में 5 जून 1857 तक आते आते विद्रोह पूरी तरह भड़क उठा था। 22 भारतीय पैदल सेना के अधिकारी व सिपाही 8 जून को फैजाबाद छावनी पर कब्जा कर लिये थे। 17 वीं पैदल वाहिनी के सिपाहियों व अधिकारियों का एक दल 9 जून को आजमगढ़ से चलकर फैजाबाद पहुंच चुका था। फैजाबाद से सभी अंग्रेज अधिकारियों को बाहर निकलने के लिए आदेश निर्गत हो चुका था। उनके लिए दानापुर पटना जाने की यात्रा खर्च , हथियार तथा चार नावों का प्रबंध भी व्रिटिश सरकार द्वारा कर दिया गया था।
वहां से 18 मील चलने पर बेगमगंज के पास वह घाघरा नदी के तट पर पहुंचे । 8 अधिकारी व सिपाही उन्हें पीछे छोड़ दिये थे। फैजाबाद के कर्नल गोल्डनी व मेजर मिल लापता हो गये थे । घाघरा नदी के दाहिने किनारे पर फायरिंग शुरू हो चुकी थी। पानी के रास्ते दानापुर पटना जाना ज्यादा खतरनाक लग रहा था। उन्होने अपना इरादा बदला और पगडंडियों के माध्यम से सुरक्षित निकलने की योजना बनाई। वचे कुचे अधिकारी अपनी जान बचाने के लिए झावा के जंगल में छिप गये थे। उन्हें शाम तक किसी स्थानीय जमींदार ने अपने घर ले जाकर खाना खिलाया था। आधी रात में अपने कुछ अन्य साथियों से मुलाकात करके चार नं. की नाव से छः अंग्रेज भगोडों का एक दल चांद की रोशनी में अमोढ़ा की तरफ एक जमींदार की देखरेख में 10 जून को आ पहुंचा था। उन्हें वहां ज्यादा देर तक रूकने नहीं दिया गया था। वहां से वे अपने हथियारों को कप्तानगंज स्थित अंग्रेज कैप्टन के पास लाकर छोड़ दिया। उन्हें रास्ते के खर्चे के लिए कुछ पैसे की व्यवस्था कर दी गई तथा भारतीय जमींदार व चैकीदार के साथ चलने के लिए तैयार कर दिया गया था। तत्कालीन अमोढा के तहसीलदार लेफ्टिनेंट रैची और लेफ्टिनेंट कैटी के लिए दो खच्चरों की व्यवस्था भी की गई थी । वे 17वी नेटिव इनफैन्ट्री के सिपाहियों द्वारा बस्ती में बन्द किये गये अपने खजाने को साथ ले जाना चाह रहे थे । तहसीलदार ने उन अंग्रेज अधिकारियों को चेताया था कि वे तुरंत बस्ती छोड़ दें। उन्हें गायघाट( निकट कलवारी ) जाने के लिए कोई सलाह भी नहीं दी गई ।
कप्तानगंज( वर्तमान बस्ती जिले वाला) से 8 मील चलने पर वह वे बस्ती जिले के 260 39’ उत्तरी अक्षांश तथा 820 41’ पश्चिमी देशान्तर पर स्थित बस्ती सदर तहसील के परगना बस्ती पूरब के बहादुरपुर विकासखण्ड के तप्पा पिलाई में मनोरमा नदी के तट पर बसे महुआडाबर नामक गांव पहुंचे। यह एक मुस्लिम बाहुल्य गांव था। अंगे्रजों की बेगारी तथा हाथ काटने जैसे जुल्मों से तंग आकर बनारस , मुर्शिदाबाद (वंगाल) तथा विहार के कुछ कलाकार , कारीगर, दस्तकार , शिल्पी यहां आकर बस गये थे। मुस्लिम बाहुल्य इस गांव में मलमल तथा दूसरे कपड़े तैयार हाते थे। ये कारीगर लगभग एक दशक पहले ही आकर यहां बसे थे। वे कताई्र बुनाई तथा छपाई का काम मुख्य रूप से करते थे। वे अपने हुनर से बस़्त्र उद्योग की एक अच्छी कपड़ों की मण्डी यहां बना लिये थे। यहां उस समय लगभग 5000 जनसंख्या की आवादी थी।
अंगेजों द्वारा अपने पूर्वजों पर किये गये अत्याचारों को याद करके यहां के प्रवासियों का धैर्य जाता रहा। उन्हें अंग्रेजो के वहां आने की भनक लग गई थी। वे स्वयं को रोक ना सके और अंगेजों को समाप्त करने की तत्काल योजना को असली जामा पहनाने लगे। स्थानीय एक प्रवासी जफर अली के नेतृत्व में लाठी डन्डे तलवार एवं भाला लेकर इस गांव के निवासियों का एक दल मनोरमा नदी पार कर रहे अंगेजों पर 10वीं तारीख को हमला कर दिया गया। गांव महुआडाबर में एक छोड़ शेष पांच को वहां के गांव वालों ने घेर लिया था। लेफ्टिनेंट आई लिंडसे की पहले हत्या की गई । लेफ्टिनेंट थामस , लेफ्टिनेंट टी.जे. रिची , सार्जेन्ट एडवड्स और लेफ्टिनेंट कैटिली तथा दो सैनिकों को धोखे से हत्या कर दी गई थी। इस दल का तोपचालक सार्जेन्ट वषीर भाग निकला जिसे कलवारी के जमीदार बाबू बल्ली सिंह ले पकड़ लिया गया। उसे 10 दिन तक अधिकारियों की निगरानी में बन्दी बनाया गया था। 10 जून की महुआ डाबर की घटना से गोरखपुर की जिला सरकार हिल गई। वहां के जिला जज डबलू. विनयार्ड तथा कलेक्टर डबलू पेटरसन ने 15 जून 1857 को वर्डपुर का जमीदार मि. डबलू . पेप्पी को बस्ती तहसील का नया डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया था। जिसको 12वीं अश्वारोही बटालियनकी आधी टुकड़ी सुरक्षा के लिए गोरखपुर से कप्तानगंज के लिए रवाना किया गया थाा। उसने इस कैदी बुशर को जमीदार के चंगुल से मुक्त कराया था। 20 जून 1857 को पूरे जिले में मारशल ला लागू कर दिया गया था। पेप्पी अपने दल के साथ जाने के लिए उद्यत थे। उसी समय बाग में अग्नि ने अपना प्रचण्ड रूप ले लिया तथा महुआ डाबर नामक गांव को बड़ी बेदर्दी से आग लगवा करके जलवा दिया था। उनके घर बार खेती बारी रोजी रोजगार तथा परिवार सब के सब खत्म हो चुके थे। उस गांव का नामो निशान तक सरकार ने मिटवा दिया था। लावारिस बाहर पड़ी बची कुची सम्पत्तियों का नीलाम करके राजकोष में जमा करवाये गये थे। वहां पर अंग्रेजो के चंगुल में आये निवासियों के सिर कलम कर दिये गये थे। उनके शवों के टुकड़े टुकड़े करके दूर फेंक दिया गया था। वे इस सजा से पूरे देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों को आतंकित भी करना चाह रहे थे।
जलियावाला बाग की तरह एक बहुत बड़ा जनसंहार यहां हुआ था। इन्हीं दौरान अवध के नबाब के प्रतिनिधि राजा सैयद हुसेन अली उर्फ मोहम्मद हसन ( जो मूलतः सहसवान बदायूं के मूल निवासी थे ) ने कर्नल लेनाक्स ,उनकी पत्नी तथा बेटी को अपनी संरक्षा में ले रखा था। पेप्पी ने इन्हें भी मुक्त कराया था। इस घटना ने गोरखपुर , आजमगढ़ बनारस आदि स्थानों पर अंग्रजों के विरुद्ध जन चेतना जगाई और अपना खास असर डाला था। महुआ डाबर के लोग जो बचे कुचे थे वे डर के मारे उस समय बाहर भाग गये थे फिर जब स्थिति सामान्य हुई तो पुनः आकर नये सिरे से उसे पुनः सजोने का प्रयास किया । यह गांव अभी भी गुमनाम की जिन्दगी गुजार रहा है। स्वतंत्र भारत में तो यह पवित्र स्थल के रूप में विकसत होना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हो सका है और अपनी शहादत पर आंसू बहा रहा है।
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