द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल महाविद्यालय के रजत जयन्ती समारोह का समापन- “यदि देश भर में हवन का प्रचार हो तो देश रोगरहित और सुखों से पूरित हो जायेः आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री”

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ओ३म्

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
द्रोणीस्थली आर्ष कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून का रजत जयन्ती समारोह बुधवार दिनांक 8-6-2022 को सोल्लास सम्पन्न हुआ। प्रथम दिन की विशेषता यजुर्वेदीय यज्ञ एवं वेद सम्मेलन का आयोजन था। दूसरे दिन गुरुकुल की 25 स्नातिकाओं को दीक्षा देते हुए उनका समावर्तन संस्कार किया गया। तीसरने दिन 8 जून को प्रातः 10.00 बजे यजुर्वेदीय यज्ञ की पूर्णाहुति हुई और इसके साथ भजन, पं. चन्द्रशेखर शास्त्री जी का प्रेरक उपदेश एवं आचार्या अन्नपूर्णा जी का सम्बोधन महत्वपूर्ण था। पूर्वान्ह 11.00 बजे से समापन सत्र गुरुकुल के सभागार में आरम्भ हुआ। कार्यक्रम के आरम्भ में अमृतसर से पधारे प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री दिनेश पथिक जी के तीन भजन हुए। पहला भजन था ‘ऋषि की कहानी सितारों से पूछों, फिजाओं से पूछों बहारों से पूछों, ऋषि की कहानी सितारों से पूछों।’ दूसरा भजन था ‘हे दुनियां के दाता हमको शक्ति दो, जगत पिता जगत माता हम को शक्ति दो।’ पथिक जी का गाया गया तीसरा भजन था ‘प्रभु सारी दुनियां से ऊंची तेरी शान है, कितना महान है तू कितना महान है।’

पथिक जी के बाद उड़ीसा से पधारे स्वामी विशुद्धानन्द जी का सम्मान किया गया। स्वामी जी का जीवन बहुत साधारण जीवन है। उन्होंने अपने जीवन में उड़ीसा के बालक बालिकाओं को आर्यसमाज के गुरुकुलों में पहुंचाकर उनके जीवन बनाये हैं। द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की स्थापना के अवसर पर भी आप ही उड़ीसा से 7 कन्यायें लेकर यहां पहुंचे थे जो सब स्नातिकायें बन चुकी हैं और सम्मानित जीवन व्यतीत कर रही हैं। स्वामी जी का सम्मान श्री प्रेम प्रकाश शमा एवं श्री मनमोहन आर्य ने किया। इनको शाल सहित ओ३म् के पटके एवं पुष्प माला से अलंकृत किया गया। इसके पश्चात कन्या गुरुकुल की अनेक कन्याओं ने मिलकर वेद मन्त्र ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’ का विकृति पाठ श्रोताओं व विद्वानों को सुनाया जिसे सुनकल सभी श्रोताओं के कर्ण पवित्र हो गये। अपनी टिप्पणी में आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि सर्वव्यापक परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है। इसके पश्चात गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष डा. सोमदेव शतांशु जी का व्याख्यान हुआ।

डा. सोमदेव शतांशु जी ने कहा कि हम जिस चीज को बार बार सुनते व सुनाते हैं उसका लाभ यह होता है कि वह हमारे जीवन का अंग बन जाती है। जब हम उन विषयों की समूहों में चर्चा करते हैं तो इसमें हमारी सामूहिक चेतना भी कार्य करती है। विद्वान वक्ता ने कहा कि सोम सत्य की रक्षा करता है। आचार्य डा. शतांशु ने कहा कि निष्ठावान एवं आचार्यों का सम्मान करने वाले छात्र जीवन में सफल होते हैं। आचार्य जी ने समयबद्ध जीवन का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि अग्नि के संयोग के बिना कहीं परिवर्तन नहीं होता। जब तक हम अग्नियों में नहीं तपेंगे हमारा रूपान्तरण नहीं हो सकता। आचार्य जी ने सबको प्रेरणा करते हुए कहा कि हम सबको विपुल संस्कृत साहित्य को पढ़ना चाहिये। उन्होंने आगे कहा कि हमारा जो धर्म व संस्कृति बची है, उसका कारण व उसका श्रेय हमारे गुरुकुलों को है।

गुरुकुल की स्थापना के दिवस प्रविष्ट की गई उड़ीसा की रहने वाली एक छात्रा अनुपमा भी समारोह में अपने परिवार के साथ पधारी थी। आचार्या अन्नपूर्णा जी ने श्रीमती अनुपमा जी का परिचय दिया और उनसे कुछ शब्द बोलने को कहा। अनुपमा जी ने कहा कि जब मैं उड़ीसा से आयी थी मुझे पता नहीं था कि मैं कहां जा रही हूं। पढ़ाई करने का मेरा मन था। दीदी अन्नपूर्णा जी ने विश्वास जताया था कि हम कुछ बन सकते हैं। मैं उनकी लाडली छात्रा थी। दीदी के आशीर्वाद से मुझे कुछ मिला है। वर्तमान में वह किसी विद्यालय में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। अपनी टिप्पणी में आचार्या अन्नपूर्णा जी ने कहा कि गुरुकुल अनुशासन और मर्यादाओं का प्रतीक है। यहां अनुशासन के साथ प्यार की गंगा भी बहती है।

दिल्ली निवासी आर्यसमाज के विद्वान पं. चन्द्रशेखर शास्त्री ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में सबसे ओ३म् का उच्चारण कराया। उन्होंने कहा कि मुझे आज जाना था। मैं यदि यहां बैठ पाया तो इसका श्रेय आचार्या अन्नपूर्णा जी को है। आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री जी ने गुरुकुल के संस्थापक कीर्तिशेष डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी के गुणों की प्रशंसा की। उन्होंने छात्राओं को कहा कि हंस के बोला करो हंस के बुलाया करो, यहा पिता का घर है यहां आते जाते रहा करो। उन्होंने आगे कहा कि आप सब बौद्धिक बनें, धार्मिक बनें तथा हार्दिक बनें। आचार्य जी ने हिन्दी के क, प और उ अक्षरों का महत्व बताते हुए कहा कि क से कड़ी मेहनत और प से पक्का इरादा है। जो इनको अपनाता है उसे उ से ऊंचा सुख मिलता है। तरक्की के लिए उन्होंने आठ चीजें बताते हुए कहा कि कृतज्ञता, दान, मंगलमय जीवन तथा विद्या आदि से मनुष्य की उन्नति होती है। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के लिखे शब्दों का उल्लेख कर कहा कि प्राचीन काल में इस देश में होम और हवन का प्रचार था। तब यह देश रोगों से रहित तथा सुखों से पूरित था। अब भी यदि यज्ञ वा हवन का प्रचार हो तो वैसा ही हो सकता है। उन्होंने कहा ‘हम देवता न बने कोई गम नहीं, हम दानव न बने ये भी कोई कम नहीं। दूसरांे को जाने न जाने कोई गम नहीं, हम अपने आप को जान जायें ये भी कुछ कम नहीं’। इस उपदेश के बाद आयोजन में उपस्थित भजनोपदेशक श्री विनोद जी ने देश हित से जुड़ा और आर्यों व हिन्दुओं को जगाने वाला एक गीत सुनाया और देश की जो स्थिति है उस पर भी प्रकाश डाला। उनके भजन के बोल थे ‘बुलबुलो गर तुम्हारा चमन लुट गया, आशयाना बनाने कहां जाओगे। फल गर न लगा किसी डाल पर, फिर जहां में कहा जाओगें।’ इस गीत को लोगों ने हृदय थाम कर सुना। गीत समाप्त होने पर आचार्या अन्नपूर्णा जी ने इस गीत के भावों पर प्रतिक्रिया देते हुए विनोद जी की देशभक्ति की भावनाओं व विचारों की प्रशंसा की। इसके बाद गुरुकुल की एक छात्रा तनुश्री ने सब श्रोताओं को कुछ देर तक शुद्ध संस्कृत भाषा में सम्बोधन किया जिसे सुनकर सभी को अच्छा लगा और सभी ने तनुश्री छात्रा को शुभकामनायें एवं आशीर्वाद दिया।

छात्रा तनुश्री जी के बाद आर्यजगत की महान आचार्या विदुषी डा. सूर्यकुमारी चतुर्वेदा जी ने न्यायदर्शन का उल्लेख कर बताया कि निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए दर्शन में वर्णित 16 पदार्थों को जानना चाहिये। उन्होंने बताया कि ऋषि दयानन्द ने 51 ग्रन्थों के अध्ययन अध्यापन का विधान किया है। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश आदि जितने ग्रन्थ लिखे हैं उन सबको भी सब मनुष्यों को पढ़ना चाहिये। आचार्या जी ने ऋषि दयानन्द की लघु पुस्तक ‘व्यवहारभानु’ का उल्लेख कर उसके महत्व पर भी प्रकाश डाला। विदुषी आचार्या डा. सूर्याकुमारी जी ने आत्मा एवं परमात्मा का विवेचन कर दोनों सत्ताओं को पृथक पृथक सिद्ध किया। उन्होंने कहा कि जीवात्मा परमात्मा का अंश नहीं है। आचार्या जी ने सहनशीलता तथा धैर्य आदि गुणों पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द ने व्यवहारभानु पुस्तक देकर आर्य सिद्धान्तों को बालक बालिकाओं के भीतर भरा है। इसके बाद आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने वेदविदुषी आचार्या डा. सूर्याकुमारी जी को प्रशस्ति पत्र सहित शाल, मालादि देकर सम्मानित किया। कार्यक्रम में संस्कृत के युवा विद्वान एवं राज्यपाल जी के सलाहकार श्री संजू ध्यानी जी भी पधारे थे। श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने उन्हें शाल, फूलमाला, ऋषि दयानन्द जी के चित्र आदि भेंट कर सम्मानित किया।

कार्यक्रम में पधारे श्री राजवीर शास्त्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि ऋषि दयानन्द कुशल चिकित्सक की तरह देश की दुर्दशा का कारण समझ चुके थे। उन्होंने दुर्दशा के निवारण के लिए सत्य ज्ञान वेदों का प्रचार किया। श्री राजवीर जी ने विदेशों में धर्म प्रचार की चर्चा की। उन्होंने आगामी कुछ महीनों में गयाना में एक गुरुकुल के स्थापित किए जाने की जानकारी दी। सूरीनाम में भी एक गुरुकुल स्थापित करने के प्रयासों से भी विद्वानवक्ता ने श्रोताओं को अवगत कराया। उन्होंने कहा कि पाश्चात्य जगत ने हमारे प्राचीन ऋषियों की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को स्वीकार कर लिया है। इस व्याख्यान के बाद कार्यक्रम में उपस्थित श्री संजू ध्यानी जी ने अपने सम्बोधन को संस्कृत में प्रस्तुत कर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने गुरुकुल एवं इसकी सभी आचार्याओं एवं छात्र-छात्राओं को अपनी शुभकामनायें दीं। डा. अन्नपूर्णा जी ने श्री संजू ध्यानी जी का धन्यवाद किया। उनका सम्बोधन भी संस्कृत भाषा में था।

अपने सम्बोधन में डीएवी महाविद्यालय देहरादून की संस्कृत विभाग की प्रोफेसर डा. श्रीमती सुखदा सोलंकी ने बताया कि गुरुकुल में अध्ययन करने के साथ हमने अस्त्र शस्त्र संचालन का अभ्यास भी किया था। आचार्या सुखदा जी ने गुरुकुलीय जीवन में छात्र-छात्राओं के लिए जो कार्य निषिद्ध होते हैं, उन पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यदि कोई सदाचार सिखाता है तो वह गुरुकुल ही सिखाता हे। गुरुकुल छात्र-छात्राओं को वैराग्य की ओर ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि जो छात्रायें गृहस्थ जीवन में जायें उन्हें सोचना चाहिये कि उनके परिवारों में राम, कृष्ण एवं दयानन्द के समान सन्तानें उत्पन्न हों। उन्होंने बताया कि आत्मा का कोई लिंग नहीं है। आचार्या सुखदा जी ने स्वामी ओमानन्द सरस्वती के जीवन का एक प्रसंग सुनाया। उन्होंने बताया कि स्वामी जी अजमेर पहुंचे थे। वहां उन्हें आभास हुआ कि उनकी माता जी ने उन्हें स्मरण कर अपने पास बुलाया है। उनको अनुभूति हुई थी कि उनकी माता संसार छोड़ कर जा रही हैं। उन्होंने कहा था भगवानदेव (स्वामी जी के पूर्व आश्रम का नाम) मैं संसार छोड़कर जा रही हूं। वह ऐसा आभास व अनुभूति होने पर आचार्य भगवानदेव जी तभी अपनी माता के पास चल पड़े थे। उनके दिल्ली पहुंचने पर उनकी माता जी का स्वर्गवास हो चुका था। आचार्य भगवानदेव जी ने तब अपनी मां की अन्त्येष्टि अपने हाथों से की थी क्योंकि उन्होंने अपनी माता को इसका वचन दिया हुआ था। यह घटना सुनाकर आचार्या जी ने कहा कि हमें अपनी चित्त की वृत्तियों का निरोध करना है। उन्होंने कहा कि योगी आत्मा को परमात्मा से जोड़ लेता है। उन्होंने यह भी कहा कि गुरुकुल योगी बनाते हैं। डा. सुखदा जी ने कहा कि हमें संसार से मुक्त होना है। हमें संसार में बार बार नहीं आना है। आचार्या जी ने ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों को बार-2 पढ़ने की प्रेरणा की। उन्होंने श्रोताओं को अपनी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने को कहा। उन्होंने प्रेरणा की कि सुबह व शाम परमात्मा के प्रति कृतज्ञतापूर्वक ध्यान व उपासना किया करें।

कार्यक्रम का संचालन कर रही डा. आचार्या अन्नपूर्णा जी ने प, फ, ब, ध, भ, म अक्षरों की चर्चा की और कहा कि प का अर्थ है कि हम पाप न करें। फ का अर्थ है कि हम जो कर्म करेंगे उनका फल हमें भोगना पड़ेगा। ब का अर्थ बन्धन है। भौतिक पदार्थों की इच्छा व अपनों का मोह होने से बन्धन होता है। ध का अर्थ धन है। हमारा धन सुधनहोना चाहिये। पाप की कमाई हमारे घर पर नहीं आनी चाहिये। भ का अर्थ उन्होंने भय बताया। उन्होंने कहा कि हमें दुर्गुणों व बुरे कामों से भय लगना चाहिये क्योंकि इनके कारण हमें जीवन में दुःख प्राप्त होता है। म का तात्पर्य उन्होंने मोक्ष बताया। उन्होंने कहा कि यदि हम प, फ, ब, ध भ और मके अर्थों पर विचार कर उनके सत्य अर्थों का पालन करेंगे तो हमारा मोक्ष होगा। उन्होंने कहा कि हमारा मिथ्याज्ञान हटेगा तो हम पदार्थों के सत्य स्वरूप को प्राप्त होंगे। मिथ्या ज्ञान रहेगा तो जीवन में दोष रहेंगे। मिथ्या ज्ञान के हटने से विषयों में हमारी प्रवृत्ति मिट जायेगी। ऐसा होने पर हम जन्म-मरण व सभी दुःखों से छूट सकते हैं। हमें प्रभु के चरणों में बैठना होगा। उन्होंने सभी लोगों को अपनी शुभकामनायें दी। इसके बाद स्वामी विशुद्धानन्द जी ने सबको आशीर्वाद दिया। उन्होंने कन्याओं को शिक्षा दी कि सन्ध्या करना कभी भूलना नहीं। आपके घरों में पवित्रता हो। आप सब शाकाहारी हों। आपको कृतघ्न नहीं बनना है। इसी के साथ गुरुकुल का तीन दिवसीय रजत जयन्ती समारोह सम्पन्न हुआ। अन्त में सबने मिलकर शान्तिपाठ किया। इसके बाद सबने भोजन किया और स्थानीय व बाहर से आये लोग अपने अपने स्थानों के लिए प्रस्थान कर गये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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