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जनसाधारण के मुंह से हम अक्सर ऐसा सुनते आए हैं कि मौत का कोई इलाज नहीं है। क्या यह सच है ? – इस लेख के माध्यम से हम इस पर ही विचार करेंगे।

संसार में आकर हम छोटे-मोटे रोगों के बारे में तो बहुत विचार करते हैं, बहुत चिंतन करते हैं, बहुत चिंता करते हैं। कहते हैं कि मुझे जुकाम हो गया, बुखार हो गया, मेरा पैर टूट गया, मेरा हाथ टूट गया ,मुझे यह रोग हो गया, मुझे वह रोग हो गया ? इन सबके उपचार खोजते हैं । इनके लिए औषधियां लाते हैं । डॉक्टर के पास जाते हैं। वैद्य के पास जाते हैं। पर एक शाश्वत रोग जो हमारे साथ लगा हुआ है अर्थात मृत्यु, उसको ना तो हम रोग मानते हैं और ना ही उसके उपचार के बारे में कुछ सोचते हैं। जो वास्तविक रोग है और जो सबसे भयंकर रोग है, उस रोग को रोग न मानना ही हमारी सबसे बड़ी अज्ञानता है। अपनी इसी अज्ञानता के कारण हम मौत का उपचार करने की ओर तनिक भी नहीं सोच पाते।
हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमारे ऋषि पूर्वजों ने मृत्यु को एक रोग माना। उन्होंने इस रोग के उपचार के लिए एक रामबाण औषधि भी खोजी। उन्होंने बताया कि मुमुक्षु बनकर इस रोग का उपचार करो और मोक्ष को प्राप्त कर मृत्यु की भी मृत्यु को साक्षात देखने का आनंद उठाओ। इस रोग पर विजय प्राप्ति के लिए उन्होंने बहुत कुछ हमें बताया। इसके लिए उन्होंने हमें 4 उपाय बताए। उनमें से पहला है :-

1- विवेक

संसार में आकर हमें सत्य और नित्य का अनुसंधान करना था । पर हम असत्य और अनित्य में उलझकर रह गए। इसी उलझन ने हमसे हमारे सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर छीन लिया। जिस ओर हमको बढ़ना चाहिए था, उस ओर हम बढ़ने से रुक गए। हमारा अनुसंधान , हमारा उद्यम और हमारा सारा पुरुषार्थ शिथिल हो गया। जहां आनंद नहीं था, हम वहां आनंद खोजने लगे। जब परिणाम आया और पता चला कि आनंद के स्थान पर दु:ख की प्राप्ति हुई है तो उस समय तक इंद्रियां शिथिल पड़ गईं। उन्होंने साथ छोड़ दिया । उसके उपरान्त पता चला कि अब तो उस रोग ने पकड़ लिया है जिसका उपचार खोजते – खोजते हम अपने आपको उलझन में उलझाकर रह गए।
हमें देखना था कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ,? नित्य क्या है और अनित्य क्या है ? ईश्वर ने उन सबकी जानकारी के लिए हमको विवेक नाम की शक्ति प्रदान की थी। हमने भी परमपिता परमेश्वर को वचन दिया था कि हम विवेक शक्ति का सदुपयोग करते हुए नित्य – अनित्य, सत्य और असत्य की पहचान करेंगे और अपने जीवन को उस ओर लेकर चलेंगे जिस ओर मोक्ष का आनंद मिलता है। आनंद की वर्षा में अपने आप को भिगोयेंगे और आनंद रस को पीते-पीते मोक्ष आनंद के स्वामी होंगे।
हमने असत्य में आनंद को खोजा और अनित्य में भी वैसी ही अनुभूति करने का अज्ञानता पूर्ण कार्य किया। फलस्वरूप विवेक शक्ति का सदुपयोग नहीं कर पाए। हम भूल गए कि विवेक का अर्थ तत्व के यथार्थ का अनुभव करना है। प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा – अनात्मा का विश्लेषण करते – करते इस प्रकार की सिद्धि को प्राप्त करना हमारा जीवन उद्देश्य था, पर वह जीवनोद्देश्य हमारे हाथ से खिसक गया। मृत्यु रूपी रोग के उपचार के लिए हमें विवेक का प्रयोग करना था और सत्य एवं नित्य के प्रति अपने आपको समर्पित करना था। जो लोग मोक्ष की ओर जाने वाले पथ की इस पहली सीढ़ी पर पैर रख देते हैं, वह संसार की ओर से पीठ फेर लेते हैं। … और चल देते हैं अपने उस महान लक्ष्य की ओर अर्थात अमरत्व की प्राप्ति की ओर ….।

2 -वैराग्य

अमरत्व की प्राप्ति के पथिक को जब नित्य – अनित्य, सत्य और असत्य का ज्ञान हो जाता है तो उनके विवेक की जागृति होती है।
ऐसी अवस्था की प्राप्ति के पश्चात ऐसे पथिक का असत और अनित्य से संबंध टूटने लगता है। वह अपने आप ही विरक्ति की अवस्था में जाने लगता है। विरक्ति अर्थात धीरे-धीरे सांसारिक विषयों से दूरी बनाने का अभ्यास। धीरे धीरे दूरी बनाने का यह अभ्यास ही वैराग्य में परिवर्तित हो जाता है। ऐसी अवस्था में पहुंचकर सत्य का बोध होता है और पता चलता है कि जिस कीचड़ में हम फंसे रहे वह तो वास्तव में हमें पतन के गर्त में ले जाने वाली थी। उससे निकलना और अपने आपको अमृत के साथ एकाकार करना करना ही वैराग्य की पवित्र अवस्था है। इस अवस्था में जाकर सांसारिक भोगों और विषय वासनाओं से मन हट जाता है। इस अवस्था में जाकर पवित्रता हावी – प्रभावी हो जाती है। राग नाम का शत्रु भी हमसे दूर हो जाता है। जिस राग अनुराग ने अभी तक हमको काग अर्थात विषयों की विष्ठा खाने वाला कौवा बना रखा था ,वह हमारे सामने आने तक से बचने लगता है। हम ऐसी अवस्था में जाकर आभ्यंतरिक अनासक्ति का अनुभव करने लगते हैं।

3 – षट – संपत्ति

जब साधक विवेक और वैराग्य की आस्था-स्थली पर साधना में सफल होने लगता है तो उसको एक नई संपत्ति अथवा दौलत मिलने लगती है। इस संपत्ति का स्वामी बनना समझो मोक्ष के द्वार खुल जाने का संकेत है। जिस साधक के जीवन में मोक्ष के द्वार खुलने की यह संपत्ति आने लगती है वह बड़ा सौभाग्यशाली होता है। उसे संसार के आकर्षण अपनी ओर आकर्षित करना बंद कर देते हैं। संसार के लोगों की ओर, संसार के आकर्षणों की ओर, संसार के झूठे निमंत्रणों की ओर और लोगों के संकेतों की ओर उसका ध्यान जाना बंद हो जाता है। ऐसी अवस्था में रहकर साधक संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता।
जिन योगियों ने, महात्माओं ने और ऋषि महर्षियों ने इस संपत्ति का अनुभव किया है या जिनके पास यह दौलत उनकी चेरी बन कर रही है, उन्होंने इसका नाम षट – संपत्ति रखा।
इस संपत्ति के 6 भाग हैं :-

1 – शम

मन हमारा एक ऐसा शांत शत्रु है जो चौबीसों घंटे उछल कूद करता रहता है। उसकी उछल कूद को हम अपने लिए बहुत अच्छा मानते रहने की भूल करते रहते हैं। जब योगी विवेक और वैराग्य से भर जाता है तो वह मन की इस उछल कूद को शांत करने लगता है और जब उसे इसकी उछल कूद को समाप्त करने में अर्थात मन को निश्चल करने में सफलता मिल जाती है तो वह शम नाम की संपत्ति का स्वामी हो जाता है। मन इस अवस्था में जाकर निश्चल होकर बैठने का अभ्यासी हो जाता है। उसका निश्चल होकर बैठना ही गांव देहात की भाषा में नहचलाया होकर बैठना है। शब्द तो मोटी भाषा का है पर है बड़ा प्यारा। यदि इसका अर्थ समझ लिया जाए तो यह शब्द हमें बहुत आनंदित कर देता है।

(2)-दम.

जब मन निश्चल होकर बैठने का अभ्यासी हो जाता है तो इंद्रियां भी अपने आप अपने विषयों की ओर से पीठ फेर कर बैठना आरंभ कर देती हैं। इंद्रियों का स्वामी मन है। जब मन ही योगी हो गया तो इंद्रियां भी अपने विषय भोगों को छोड़कर योगी बनना आरम्भ कर देती हैं।इन्द्रियों का इस प्रकार पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वादन से रहित हो जाना ही “दम” है।

(3)-उपरति

मन और इंद्रियों के योगी हो जाने के पश्चात चित्त की बारी आती है। जब चित्त को बाहरी आकर्षणों के चित्र मिलने बंद हो जाते हैं या कहिए कि वह भी बाहरी आकर्षणों के चित्रों से पीठ फेरना आरंभ कर देता है तो वह भी योगी बनने लगता है। अब उसके पास मन या इंद्रियों से मिले संकेत जाते तो हैं पर वे इतने सकारात्मक संकेत होते हैं कि उनसे चित्त भी आनंद की अनुभूति करने लगता है। वह स्थूल जगत के संकेत नहीं होते बल्कि सूक्ष्म जगत के संकेत होते हैं। इन संकेतों को योगी मन और योगी चित ही समझ सकते हैं। कहने का अभिप्राय है कि विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही “उपरति” हैं।

(4)-तितिक्षा

तितिक्षा अध्यात्म जगत का बड़ा प्यारा शब्द है। योगी की सहनशक्ति अपरिमित होती है। अपनी सहनशक्ति के बल पर वह बड़े-बड़े कार्यों की सिद्धि करने में समर्थ हो जाता है। वह अपनी भीतरी शक्तियों को समझने और खोजने में सफल हो जाता है। इन शक्तियों के सहयोग और संयोग से वह अपनी बौद्धिक क्षमताओं का समुचित प्रदर्शन करने में सफल होता है। उसकी बौद्धिक क्षमताओं के समक्ष लोग नतमस्तक हो जाते हैं। बौद्धिक क्षमता तो फिर भी स्थूल जगत की हो सकती हैं, ऐसे योगी के पास तो आत्मिक शक्ति का भी अपरिमित भंडार एकत्र हो जाता है। तितिक्षा का अर्थ विद्वानों, योगियों और महात्माओं ने सहन शक्ति के रूप में किया है।
द्वंदों को सहन करने का नाम तितिक्षा हैं। प्रत्येक प्रकार की विषम परिस्थिति में अपने आपको संतुलित, मर्यादित और गंभीर बनाए रखना तितिक्षा की निशानी है। जिसके पास तितिक्षा नाम की यह संपत्ति होती है संसार के कितने ही प्रकार के झंझावातों में वह निर्भ्रांत, शांत और निश्चल हुआ खड़ा रहता है । प्रभु की दैवीय शक्तियां उसका संरक्षण करती हैं। उन शक्तियों के संरक्षण में वह कभी विचलित नहीं होता। ऐसा साधक अथवा योगी संसार की गति को, संसार के लोगों को, संसार के लोगों की गतिविधियों को साक्षी भाव से देखने का अभ्यासी हो जाता है।
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि का सहन करना भी तितिक्षा है। संसार के आकर्षण ऐसे योगी साधक पर किसी प्रकार का विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वह इन सबके बीच रहकर भी अपनी वैसी ही पवित्र अवस्था बनाए रखने में सफल हो जाता है जैसे कीचड़ में कमल अपनी पवित्रता को बनाए रखने में सफल हो जाता है।

(5-) श्रद्धा

सत्य को हृदय में धारण करना श्रद्धा होती है। इसमें विवेक की इतनी पवित्र लहरें उठती है कि योगी आत्मिक सत्ता के आनंद को बड़ी गहराई से अनुभव करने लगता है। संसार के किसी भी प्रकार के आकर्षण का संकेत मात्र यहां तक नहीं जाता। श्रद्धा जब प्रकट होती है तो चर्म- चक्षु अपने आप बंद हो जाते हैं। बाहरी जगत की बजाए हमारे अंतश्चक्षु हमें भीतरी जगत की आनंदानुभूति कराने लगते हैं। यह श्रद्धा पहले शास्त्र, गुरु और साधन के प्रति व्यक्त होती है । बाद में आत्म श्रद्धा में परिवर्तित जाती है। आत्म सत्ता के प्रति आत्म श्रद्धा का उत्पन्न होना कितने ही जन्मों के पुण्यों का उदय होना होता है।
आत्मसत्ता में प्रत्यक्ष की भांति अखंड विश्वास का नाम श्रद्धा हैं।
श्रद्धा नाम की संपत्ति के माध्यम से व्यक्ति सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है, उसको अपने हृदय में धारण कर लेता है। सत्य के धारण करने से वह आत्मस्वरूप की पवित्रता को गहराई से अनुभव करने लगता है ।आत्म- स्वरूप की इस पवित्रता से ही वह उस अखंड परमपिता परमेश्वर की शक्ति और सत्ता के प्रति अपने आपको समर्पित कर देता है जो इस चराचर जगत का संचालन कर रही है।

(6)-समाधान

जब मन बुद्धि के अधीन होकर काम करने लगता है और उसे अपने परम पवित्र लक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता तब वह समाधान नाम की संपत्ति से मालामाल हो जाता है।
इस अवस्था में जाकर मन और बुद्धि परमपिता परमेश्वर के साथ अपने आप को पूर्णतया समन्वित कर लेती हैं। परमपिता परमेश्वर के साथ उनका इस प्रकार समाहित हो जाना साधक भी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। जैसे अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख दिख रही थी, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, वैसे ही संसार का सारा तामझाम सामने रहते हुए भी ऐसे साधक को परमपिता परमेश्वर के साथ हो रही संधि अथवा योग के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता।

4 – मुमुक्षु

इस प्रकार की संपत्ति को प्राप्त हुआ साधक अविद्या के बंधन से मुक्त हो जाता है। जब अविद्या मिट जाती है और अज्ञान दूर हो जाता है तो उस पवित्र अवस्था में साधक अपने आपको सच्चा योगी अथवा मुमुक्षु सिद्ध करने में सफल हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति में जाकर वह मुमूर्षु अर्थात मरने वाला या मरने की इच्छा करने वाला नहीं रहा अब वह मुमुक्षु हो गया अर्थात मोक्ष की इच्छा करने वाला मोक्ष का सच्चा अधिकारी हो गया। ऐसी अवस्था में वह उस रॉकेट की भांति हो जाता है जो किसी ग्रह की खोज के लिए उसकी कक्षा में स्थापित किया जाता है। पर उस अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते वह बहुत से ऐसे फालतू कीचड़ को अंतरिक्ष में छोड़ देता है जो उसके वजन को अनावश्यक बढ़ा रही थी।
ऐसे साधक के लिए काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ , घृणा , द्वेष आदि की कीचड़ बहुत नीचे और पीछे छूट जाती है। इन सबसे अलग हुआ साधक ही सच्चा साधक, सच्चा योगी, सच्चा महात्मा होता है। वही मोक्ष पद का सच्चा अधिकारी होता है। मोक्ष पद की इस अवस्था को प्राप्त कर परमपिता परमेश्वर के साथ एकरस होकर आनंद की दीर्घकालिक अवधि को भोगता है। यहीं इसी अवस्था में जाकर और इसी अवस्था को पाकर योगी की मृत्यु की मृत्यु होती है। वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। वह उस रोग का उपचार ढूंढ लेता है जो मृत्यु के नाम से पीछे लगा हुआ था। वह रोग यहां शांत हो जाता है।
जिस चीज को असंभव समझकर संसार के साधारण जन यह कह दिया करते हैं कि मौत का कोई इलाज नहीं, उसे असाधारण प्रतिभा के धनी योगी और महात्मा जन संभव कर दिखा देते हैं।
अपने गहरे पुरुषार्थ ,परिश्रम और योगबल से वह बता देते हैं कि मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है अर्थात मृत्यु का भी उपचार है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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