महाराजा रणजीत सिंह की महानता
महाराजा रणजीत सिंह अमर नायक हैं। जिन्होंने कश्मीर में उत्पीड़न और अत्याचारों का शिकार होते हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपने आपको समर्पित किया। इतिहास उनके इस योगदान को कभी भूल नहीं सकता। जिस कश्मीर में हिंदुओं के पवित्र धर्म स्थलों को भूमिसात कर दिया गया था और उन्हें किसी भी प्रकार के धार्मिक ,सामाजिक, राजनीतिक अधिकार सदियों से उपलब्ध नहीं थे ,उसमें हिंदुओं को एक बार फिर उनके सारे अधिकार देने के साथ-साथ उनके मंदिरों में कीर्तन, आरती आदि की व्यवस्था कराकर कश्मीर के हिंदुओं का जिस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह ने कल्याण किया, उसके लिए भारत का इतिहास सदा उनका ऋणी रहेगा।
कश्मीर को अपने अधीन करके महाराजा रणजीत सिंह ने उस पर 27 वर्ष शासन किया। कश्मीर में इस कालखंड में 10 प्रशासक नियुक्त किए गए। कश्मीर के लोगों के लिए लंबे समय के पश्चात ऐसी परिस्थितियां बनी थीं जिनमें वे खुलकर सांस ले सकते थे और अपने धार्मिक क्रियाकलापों को स्वतंत्रता पूर्वक पूर्ण कर सकते थे। इस काल में किसी मुसलमान का यह साहस नहीं हुआ कि वह हिंदुओं को फिर से किसी प्रकार से उत्पीड़ित कर सके। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह हिंदू हित रक्षक राष्ट्रभक्त शासक थे । जिन्होंने हिंदू समाज और वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया। यदि महाराजा रणजीत सिंह कश्मीर के बारे में कुछ और अधिक चिंतन करते तो वह इसे इसके पुराने वैदिक वैभव को लौटाने की दिशा में प्रयास करते। ऐसी दशा में महाराजा रणजीत सिंह यहां पर विभिन्न शिक्षा केंद्रों , धर्म स्थलों आदि की स्थापना करने की ओर भी ध्यान देते, परंतु वह इस दिशा में कोई कार्य नहीं कर सके। हो सकता है कि अपनी अन्य प्रशासनिक व्यस्तताओं के चलते हुए वह उतना ध्यान नहीं दे पाए जितना कश्मीर के लिए उन्हें ध्यान देना चाहिए था।
महाराजा गुलाब सिंह और उनके उत्तराधिकारी
इसके उपरांत भी यह एक बहुत बड़ी बात थी कि कश्मीर से मुस्लिम शासन समाप्त होकर अब यह एक हिंदू राजा के आधिपत्य में आ गया था। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने जीवन काल में ही महाराजा गुलाब सिंह को कश्मीर का शासक नियुक्त कर दिया था। 1846 ई0 में अंग्रेजों ने महाराजा गुलाब सिंह के साथ संधि करके उसे कश्मीर का शासक स्वीकार कर लिया। इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने अपना एक एजेंट भी महाराजा गुलाब सिंह के दरबार में नियुक्त कर दिया।
महाराजा गुलाब सिंह ने अपने शासनकाल में कश्मीर राज्य का विस्तार करते हुए जम्मू क्षेत्र के छोटे-छोटे राज्यों को जीत लिया था, जिससे जम्मू कश्मीर स्टेट अस्तित्व में आयी। देश की स्वाधीनता के समय तक यही स्टेट अस्तित्व में थी। इस प्रकार यहां से ही कश्मीर के साथ जम्मू शब्द भी लगना आरंभ हुआ।
महाराजा गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार जनरल जोरावर सिंह नामक अपने सेनापति के माध्यम से कराया था।
जनरल जोरावर सिंह एक बहुत ही बहादुर सेनापति थे। महाराजा की मृत्यु के पश्चात महाराजा का पुत्र रणबीर सिंह प्रदेश के महाराजा के रूप में गद्दी पर बैठा। इन्होंने हिंदुत्व के कल्याण हेतु कई कार्य किए । यहां पर कई बड़े पुस्तकालयों का निर्माण करवाया। शिक्षा के कई केंद्र खोले और संस्कृत भाषा को बढ़ावा दिया । इसके अतिरिक्त कई मंदिरों का निर्माण भी महाराजा रणवीर सिंह ने करवाया। इस शासक के उदारतापूर्ण व्यवहार और आचरण को देखकर हिंदू से मुसलमान बने अनेक मुसलमानों ने उनसे मिलकर याचना की कि उन्हें उनके मूल धर्म में लौटा लिया जाए। पर इन मुसलमानों के ‘घर वापसी’ के इस महान कार्य को कश्मीर के पंडितों ने नहीं होने दिया ।
यह शासक आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद जी के समकालीन थे। महाराजा ने कश्मीर के मुसलमानों की इस याचना को महर्षि दयानंद के कहे अनुसार ही स्वीकार किया था। परंतु जब पंडितों ने उनसे आकर यह कहा कि यदि वह इन लोगों को फिर से हिंदू बनाएंगे तो उनके राज्य का नाश हो जाएगा तो धर्म भीरु शासक अपने लिए हुए निर्णय से पीछे हट गया। इस प्रकार उस समय कश्मीरी पंडितों के द्वारा लिया गया यह निर्णय उनके अपने ही वंशजों के लिए खतरनाक सिद्ध हुआ।
उनकी मानसिक संकीर्णता के चलते इस ऐतिहासिक कार्य को करने में महाराजा स्वयं संकोच पर गए। यदि इन मुसलमानों की बात को महाराजा स्वीकार कर लेते तो उस समय के कश्मीरी पंडितों के उत्तराधिकारी अर्थात आज के कश्मीरी पंडितों को इस पीड़ादायक दौर से नहीं गुजरना पड़ता। तब उन्हें 1989- 90 में कश्मीर छोड़ने के लिए भी विवश करने वाला कोई नहीं होता ।
तब ‘द कश्मीर फाइल्स’ के कई पृष्ठ भी ना लिखे गए होते।
महाराजा प्रताप सिंह और महाराजा हरि सिंह
महाराजा रणवीरसिंह ने कश्मीर पर 20 फरवरी 18 56 से 12 सितंबर 1885 तक शासन किया । उनके पश्चात महाराजा प्रतापसिंह ने शासन सत्ता संभाली। उनके शासनकाल में उनके छोटे भाई अमरसिंह ने उनका सक्रिय विरोध किया था । जिससे महाराजा की शक्ति क्षीण हुई और उसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया। इन्हीं महाराजा प्रताप सिंह के बाद महाराजा हरिसिंह 1925 ई0 में कश्मीर के शासक बने।
1925 में अपने चाचा प्रताप सिंह की मृत्यु के पश्चात हरि सिंह जम्मू और कश्मीर के सिंहासन पर बैठे। उन्होंने राज्य में हिंदू धर्म की शिक्षाओं को देने के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया, बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून लागू किए और निम्न जातियों के लिए पूजा स्थल खोलकर उन्हें हिंदू समाज में सम्मानित स्थान दिलवाने का प्रशंसनीय कार्य किया।उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में चर्चिल के युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में भी कार्य किया और मित्र देशों की सेना के लिए जम्मू और कश्मीर राइफल्स (जम्मू और कश्मीर राज्य बलों) से सैनिकों की आपूर्ति की। महाराजा हरि सिंह की राष्ट्रभक्ति असन्दिग्ध रही है । उनके साथ पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्लाह की जोड़ी ने ऐसी स्थिति पर स्थिति पैदा की कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय होने के उपरांत भी मामला उलझ गया।
1931 ई0 में जब लंदन में गोलमेज कांफ्रेंस आयोजित की गई थी तो उसमें ‘चेंबर ऑफ प्रिंसेज’ में महाराजा हरिसिंह भी उपस्थित हुए थे। महाराजा हरिसिंह ने उस समय भारत की पूर्ण स्वाधीनता का समर्थन किया था। उन्होंने यह स्पष्ट कह दिया था कि – ‘यह पहला अवसर है, जब भारत के देशी राज्यों के नरेश प्रत्यक्ष रूप में ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश भारतीय प्रतिनिधियों के साथ भारत के राजनीतिक भविष्य के विषय में विचार करने के लिए आए हैं । भारतीय होने के नाते हम चाहते हैं कि हमारी मातृभूमि ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में आधार और बराबरी का स्थान प्राप्त करे।’
महाराजा हरिसिंह ने यहीं से अंग्रेजों की शत्रुता मोल ले ली थी।
अंग्रेजों ने महाराजा से अपनी शत्रुता को साधने के लिए शेख अब्दुल्ला जैसे फिरकापरस्त मुसलमान को तैयार करना आरंभ किया। अंग्रेजों की सहमति और कुछ अपनी व्यक्तिगत शत्रुता के चलते पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी महाराजा का साथ न देकर शेख अब्दुल्लाह का साथ दिया। जिससे कश्मीर नई जटिलताओं के दौर में प्रवेश कर गया। शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ कर निकला था। यह हम सभी जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय ने अनेक ऐसे मुस्लिम राष्ट्रवादियों को जन्म दिया जो भारत से जन्मजात शत्रुता रखते थे। कश्मीर में पहुंचने के पश्चात शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम युवकों को हिंदू महाराजा के विरुद्ध भड़काने का काम करना आरंभ किया। शेख अब्दुल्ला यहीं पर एक विद्यालय में अध्यापन के कार्य में भी लग गया था, परंतु वहां उसने अपनी मूर्खता और दुर्बलताओं के चलते एक विद्यार्थी के साथ अनैतिक आचरण ( गुदा मैथुन) किया। जिससे उसे सरकारी सेवा से निकाल दिया गया। इस घटना ने उसे और भी अधिक महाराजा का विरोधी बना दिया। ऐसी मानसिकता के शेख अब्दुल्ला को अंग्रेजों और नेहरू ने मिलकर महाराजा के विरुद्ध खड़ा करना आरंभ किया। उपरोक्त तथ्य की पुष्टि डॉ. गौरीनाथ रस्तोगी ने अपनी पुस्तक ‘हमारा कश्मीर’ में की है।
शेख अब्दुल्ला महाराजा विरोध से आगे बढ़ते बढ़ते हिंदू विरोध और हिंदू विरोध से राष्ट्र विरोध तक बढ़ता चला गया। उसने 24 सितंबर 1932 ईस्वी को महाराजा के जन्म दिवस पर सुनियोजित ढंग से श्रीनगर में पत्थरबाजी करवाई और दंगे करा कर हिंदुओं के घरों को लूटा। उस समय शेख अब्दुल्ला ने अराजकता का माहौल बनाने का हर संभव प्रयास किया। जो मुसलमान पहले से ही जम्मू कश्मीर में हिंदुओं के बढ़ते प्रभाव को लेकर अपने आपको असहज अनुभव कर रहे थे, उन्होंने स्वाभाविक रूप से उपद्रवी शेख अब्दुल्ला को अपना नेता मान लिया । इस प्रकार धर्मांध मुसलमानों का नेता बनने में शेख अब्दुल्ला को देर नहीं लगी। इस व्यक्ति ने कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस संस्था का गठन किया। इसके माध्यम से इसने कश्मीर में अराजकता उत्पन्न करने का बार-बार प्रयास किया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत