कश्मीर में आतंकवाद, अध्याय – 11, कश्मीर पर महाराजा रणजीत सिंह के उपकार
अभी तक के हमारे वर्णन से स्पष्ट है कि कश्मीर में 1301 ईस्वी से दुर्दिनों का दौर आरंभ हुआ था , जिसमें कश्मीर के हिंदुओं ने अनेक प्रकार की यातनाओं को देखा और झेला।
इस प्रकार लगभग 500 वर्ष तक कश्मीर का हिंदू निरंतर अनेक प्रकार के अमानवीय अत्याचारों की यंत्रणाओं को झेलता रहा। इस काल में कश्मीर के हिंदू वैदिक स्वरूप को मिटाने और उस पर इस्लाम का रंग चढ़ाने में इस्लाम को मानने वाले शासकों , उच्चाधिकारियों, प्रभावशाली लोगों, सरदारों और तथाकथित सूफी संतों ने किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। कश्मीर और कश्मीर के वैदिक स्वरूप को मिटाने के लिए यह लोग जितना अधिक क्रूरता का व्यवहार कर सकते थे, उतना उन्होंने करके देख लिया।
इसके उपरांत भी कश्मीरी पंडित अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल रहे। यद्यपि इस काल में उन्हें अपना बहुत कुछ खोना पड़ा। निरंतर 500 वर्ष तक कठोर यंत्रणाओं और अत्याचारों को झेलने के उपरांत भी यदि कश्मीर के हिंदू अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहे तो सचमुच यह एक आश्चर्य से कम नहीं था। अत्याचार और दमन के नाम पर उनके साथ क्या नहीं किया गया था ? – अर्थात सब कुछ ही तो किया गया था। इसके उपरांत भी यदि वे अपनी अस्मिता को बचाने में सफल रहे तो यह मानना पड़ेगा कि कश्मीर के हिंदुओं को अपना धर्म अर्थात वैदिक धर्म बहुत ही प्रिय था। उनकी जिजीविषा और जीवंतता को नमन करना ही पड़ेगा।
वैद्यराज पंडित श्रीभट्ट जैसे लोगों का हमें ऋणी होना चाहिए जिन्होंने कश्मीर के हिंदुओं को एकता के सूत्र में बांधकर उन्हें कश्मीरी पंडित का नाम दिया। यह नाम कश्मीर के लोगों को उत्कृष्टता का बोध कराता रहा । उन्हें यह बताता रहा कि वे संसार की श्रेष्ठतम जाति हैं । उनका वैदिक धर्म संसार का श्रेष्ठतम धर्म है। जिसके सामने इस्लाम के कोई अर्थ नहीं रह जाते हैं। अपने धर्म की उत्कृष्टता और श्रेष्ठता को बनाए रखना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है । इसके लिए चाहे जितने अत्याचार हमें झेलने पड़ें, हम झेलते रहेंगे।
क्या है कश्मीरियत की परिभाषा ?
इस पवित्र भावना ने अनेक प्रकार की विषमताओं के बीच भी जीते रहने की प्रबल इच्छा शक्ति कश्मीर के हिंदू पंडितों के भीतर बनाए रखी। उन्होंने अपने लोगों को अपने सामने क्रूरतापूर्वक मरते देखा , अपने सामने अपनी बहन बेटियों की इज्जत लुटती हुई देखी, अपने सामने उन्होंने संसार का हर वह जघन्यतम कृत्य होते देखा जिसकी वह कल्पना तक नहीं कर सकते थे। परंतु इसके उपरांत भी उन्हें एक जिद थी कि जैसे भी हो निज धर्म को सुरक्षित रखना है, निज देश की रक्षा करनी है और निज संस्कृति के लिए चाहे जो करना पड़े, उसे करने के लिए तत्पर रहना है। जब जीते रहने की जिद हो जाती है तो मृत्यु भी वहां से भाग जाती है। भय का कहीं अता – पता नहीं रहता और प्रत्येक प्रकार की विषमता अपने आप अपना समाधान लेकर उपस्थित होती है।
जैसे तूफानों में भी जलते रहना दीए की शान होती है और बाढ़ के पानी से फुंकारती हुई नदी के सामने सीना तानकर खड़े हो जाना चट्टान की पहचान होती है, वैसे ही प्रत्येक प्रकार के तूफान और अनेक प्रकार के अत्याचारों की फुंकारती हुई नदी के सामने सीना तान कर खड़े हो जाना कश्मीर के हिंदू पंडितों की पहचान बन गई थी । आज के संदर्भ में यदि कश्मीर के हिंदू लोगों की इसी पहचान को कश्मीरियत का नाम दिया जाए तो कितना उचित होगा ? हमारे विचार से कश्मीरियत की यही सबसे उपयुक्त परिभाषा है कि तूफानों के बीच दीए की भांति जलते रहना जिसको आता हो और फुंकारती हुई नदियों के सामने भी चट्टान की भांति खड़े हो जाना जिसने सीख लिया हो – वही कश्मीरियत है।
सत्ता आई हिंदुओं के हाथ में
कश्मीर के पड़ोस में उस समय महाराजा रणजीत सिंह जैसे हिंदूवादी शासक का शासन था । सिखों के खालसा और हिंदुओं के स्वराज में कोई अंतर नहीं होता है । यद्यपि कुछ लोगों ने आजकल इन दोनों में अंतर करके देखना आरंभ कर दिया है । पर ध्यान रहे कि ये वही लोग हैं जो भारतवर्ष में पाकिस्तान के संकेत पर अपनी ही जड़ों को खोदने के काम में लगे हुए हैं। अंतिम सूबेदार आजिम खान के समय में सत्ता पंडित बीरबल धर, पंडित सुखराम और मिर्जा पंडित के हाथों में हस्तांतरित हो गई थी। ये तीनों हिंदू सरदार अपने समय के कुशल प्रशासक थे। उनके प्रभावशाली होने को हर बार की भांति कुछ मुसलमान अधिकारियों ने उचित नहीं माना। फलस्वरूप उनके विरुद्ध धांधलीबाजी के आरोप लगाए गए और उन्हें समाप्त करने के षड़यंत्र रचे जाने लगे। आजिम खान ने उन मिथ्या आरोपों को सच मान लिया और इन हिंदू सरदारों की पारिवारिक संपत्ति को जब करने के आदेश अपने अधिकारियों को दे दिए। उसने अपने मुसलमान अधिकारियों को इस बात की भी खुली छूट दे दी कि वे जैसे चाहें वैसे हिंदुओं का विनाश कर सकते हैं।
हिंदुओं पर आई इस नई विपत्ति के दौर से हिंदू समाज को निकालने के लिए बीरबल धर ने लोगों में जागरण का भाव पैदा करने का बीड़ा उठाया। इस संबंध में एक विशेष बैठक मिर्जा पंडित के घर पर हुई। बैठक का विषय केवल एक ही था कि कश्मीर में हिंदुओं की रक्षा कैसे की जाए और किस प्रकार मुस्लिम शासकों को उखाड़ फेंककर फिर से हिंदू सत्ता स्थापित की जाए । यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय था। जिस पर पूर्ण गोपनीयता बरती जानी अपेक्षित थी। क्योंकि इस योजना के लीक हो जाने का अर्थ था – नई विपदा को आमंत्रित कर लेना। बैठक में उपस्थित लोगों का मत था कि जैसे भी हो अपनी समस्याओं से महाराजा रणजीत सिंह को अवगत कराया जाए। लोगों को विश्वास था कि जिस प्रकार कभी गुरु तेग बहादुर जी ने हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपने आपको समर्पित किया था उसी भाव से महाराजा रणजीत सिंह हमारी समस्याओं के निदान के लिए निश्चित रूप से पहल करेंगे।
कश्मीरी मुसलमानों ने भी दिया साथ
बैठक में निर्णय लिया गया कि पंडित बीरबल धर कश्मीर के हिंदू पंडितों के दु:ख – दर्द को महाराजा रणजीत सिंह तक पहुंचाएं और हिंदू अस्तित्व को बचाने के लिए जो भी उचित समझते हैं, उनके साथ मिलकर निर्णय लें।
कहा जाता है कि इन हिंदू नेताओं की इस प्रकार की बैठक की जानकारी सूबेदार आजिम खान को भी हो गई थी, परंतु उसे मिर्जा पंडित ने किसी प्रकार शांत कर दिया। उधर बीरबल धर अपने पुत्र राजा काक के साथ मिलकर और पंडित का वेश बनाकर महाराजा रणजीतसिंह से मिलने के लिए घर से निकल गए। उन्होंने अपनी कार्य योजना को पूर्णतया गुप्त रखा।
इन दोनों पिता पुत्रों को कश्मीर से सुरक्षित निकालने में उन देशभक्त मुसलमानों ने भी सहायता की जो कुछ समय पहले तक हिंदू धर्म में ही बने हुए थे और जो परिस्थितियों वश मुस्लिम हो गए थे। उनके भीतर भारत भक्ति की ज्वाला धधक रही थी। जिसे वह बहुत अधिक मुखर होकर तो नहीं दिखा सकते थे परंतु यदि कहीं से कोई ऐसा संकेत मिलता था जिससे भारतीयता का सिर्फ ऊंचा होता हो तो उसमें वह समय-समय पर सहायक अवश्य बन जाते थे । उन लोगों की भारत भक्ति प्रशंसनीय थी। वह हर स्थिति में अपने देश की उन्नति चाहते थे और यह भी चाहते थे कि हम पर बलात रूप से थोपा गया विदेशी शासन यथाशीघ्र समाप्त हो और हम अपनी ‘घर वापसी’ करें।
जब उन्होंने देखा कि पड़ोस में महाराजा रणजीतसिंह हिंदुत्व की शक्ति के रूप में स्थापित हो चुके थे और यदि उनसे मिलने के लिए बीरबल धर और उनके पुत्र जा रहे थे तो निश्चय ही इन बड़े नेताओं की वार्ता का कोई सकारात्मक परिणाम निकलेगा, जिसका लाभ भविष्य में उन्हें भी मिलेगा तो उन्होंने अपनी भारत भक्ति, हिंदू भक्ति, और राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर इन दोनों पिता-पुत्रों को कश्मीर की सीमाओं से सुरक्षित बाहर निकाल देने में अपनी सहायता दी।
मलिक जाति के यह मुसलमान धन्यवाद के पात्र थे, जिन्होंने अपने प्राणों पर खेलकर इन दोनों पिता-पुत्रों को सुरक्षित निकलने में सहायता प्रदान की। वे अपने देश और अपने धर्म से असीम प्रेम करते थे । यही कारण था कि अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए जा रहे दोनों पिता-पुत्रों के प्रति उनके अत्यंत पवित्र भाव थे।
वीरांगना पत्नी ने किया तिलक
भारत वीरों का ही नहीं वीरांगनाओं का भी देश है। देश धर्म की रक्षा के लिए सही समय आने पर यहां की अनेक वीरांगनाओं ने अपना बलिदान दिया है। उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए हर वह कार्य करके दिखाया है जिसे एक वीरांगना भारतीय नारी ही करके दिखा सकती है। भारतीय नारी की वीरता और शौर्य को देखकर राक्षस से राक्षस विदेशी आक्रमणकारी भी दाँतों तले उंगली दबाकर रह गये हैं। बीरबल की पत्नी भी ऐसी ही एक वीरांगना नारी थी।
जब बीरबल धर अपने घर से निकले थे तो उनकी पत्नी ने स्वयं अपने हाथों से उनका तिलक कर उनको राष्ट्रपथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था। उसको इस बात पर असीम प्रसन्नता हो रही थी कि उनके पति महाराजा रणजीत सिंह से मिलने के लिए इसलिए जा रहे हैं कि वह देश व धर्म की रक्षा के इस समय प्रतीक बन चुके हैं। सब लोगों ने उन्हें जाने का दायित्व सौंपा है, इससे उनकी गरिमा तथा महिमा और भी अधिक बढ़ गई हैं।
बीरबल की पत्नी ने उन्हें इस बात का विश्वास भी दिला दिया था कि चाहे जैसी भी विषम परिस्थिति उनके सामने आए पर वह कभी धर्म से अपने आपको पतित नहीं होने देंगी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें मृत्यु का वरण करना स्वीकार होगा परंतु किसी विदेशी म्लेच्छ का हाथ वह अपने शरीर से नहीं लगने देंगी।
वास्तव में भारत की ऐसी महान नारियां भारत के इतिहास की सरिता के गौरव पथ हैं । जिनका जितना अधिक वंदन किया जाए उतना कम है। राष्ट्रधर्म पर बढ़ते हुए पति को वीरोचित शैली में विदा करना संसार में यदि किसी को आता है तो वह केवल भारत की नारियों को ही आता है। इसका कारण केवल एक है कि धर्म, धर्म की मर्यादा और धर्म को निभाने के महान कर्तव्य को यदि किसी ने समझा है तो वह केवल भारत के आर्य हिंदुओं ने ही सीखा है। जिन्होंने इस बात को बचपन से सीखा है कि धर्म को निभाने के लिए चाहे प्राण गंवाने पड़ जाएं पर कभी पीछे नहीं हटना चाहिए । बस, इसी बात को आज बीरबल की पत्नी ने समझकर अपने पति को राष्ट्र के गौरव पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित कर विदा कर दिया था।
वीरांगना पत्नी का बलिदान
बीरबल धर की विदुषी और वीरांगना पत्नी के लिए पति को विदा करना हो सकता है कहीं किसी सीमा तक संभव रहा हो परंतु बेटे को भी पिता के साथ भेजना निश्चित रूप से एक मां के लिए बड़ा कठिन हो गया होगा ? परंतु इस वीरांगना नारी ने पुत्र को भी वीरोचित उपदेश देकर पिता के साथ सहर्ष भेज दिया। पुत्र की पत्नी भी उतनी ही वीरांगना थी, जितनी उसकी सास थी। उसने भी विदा के क्षणों में अपने पति को तिलक लगाया और विदा कर दिया। वीरांगना बहू के नेत्रों में भी गंगा – यमुना नहीं उमड़ी।
बीरबल धर ने अपने एक विश्वसनीय साथी पंडित बसाराम का के माध्यम से अपनी पत्नी और अपनी बहू को अपने एक मुस्लिम साथी कादिस खान गोजवारी के यहां भेज देने का आदेश दिया था। वे दोनों सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंचा दी गई। कुछ समय पश्चात सूबेदार आजिम खान को यह पता चला कि पंडित बसाराम के हाथों बीरबल की पत्नी और बहू किसी सुरक्षित स्थान पर भेजी गई हैं तो उसने पंडित बसाराम को उठवा लिया। बहुत कड़ाई से पूछने पर भी बसाराम ने उसे कुछ नहीं बताया। उसे नौ दिन भूखा रखा गया । गर्म सलाखों से उसका मांस नोंचा गया। आंखें निकाल दी गईं। उस पर ₹9000 प्रतिदिन का जुर्माना भी लगाया गया। अंत में दसवे दिन एक गर्म कटार से उसका पेट फाड़ दिया गया। इस प्रकार वह वीर देशभक्त धर्म की वेदी पर बलिदान हो गया।
बाद में किसी गद्दार ने कादिस खान के यहां टिकी सास – बहू की जानकारी सूबेदार आजिम खान तक पहुंचा दी। उसने तुरंत उन दोनों महिलाओं को उठवा लिया। बीरबल की पत्नी ने रास्ते में एक हीरा निगल लिया। जब वह खान के समक्ष दरबार में पेश की गई तो उसने वीरतापूर्वक उस राक्षस को ललकारते हुए स्पष्ट कह दिया कि उसके पति और पुत्र दोनों ही सुरक्षित रूप से महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच चुके हैं। अपनी बात पूरी करने से पहले उस वीरांगना की मृत्यु हो गई, परंतु उसकी पुत्रवधू को राक्षसों ने वहां से गिरफ्तार कर अफगान सरदार के साथ काबुल भेज दिया। उसके पश्चात वह किस हालत में कहां रही ? – कुछ पता नहीं।
महाराजा रणजीत सिंह का ऐतिहासिक कार्य
उधर पंडित बीरबल धर और उनके पुत्र राजा काक ने हिंदू ह्रदय सम्राट महाराजा रणजीत सिंह को जाकर अपनी सारी व्यथा कथा सुनाई। महाराजा रणजीत सिंह अपने हिंदू भाइयों की व्यथा कथा को सुनकर बड़े व्यथित हो उठे। उन्होंने उनके दु:ख दर्द को सुनकर उन्हें अपनी सहायता का पूरा विश्वास दिलाया। महाराजा ने अपनी सेना के सेनापति को आदेश दिया कि वह समुचित सेना ले जाकर कश्मीर के पंडितों की रक्षा करे। महाराजा ने ऐसा निर्णय हिंदुओं के प्रति अपनी स्वाभाविक सहानुभूति के कारण नहीं अपितु हिन्दू राष्ट्र भक्तों के कारण लिया था। जिससे बीरबल धर सहित उस समय जितने भी हिंदुओं को महाराजा के निर्णय की जानकारी हुई वह सब प्रसन्नता से झूम उठे । बीरबल धर से राजा ने कहा कि वह भौगोलिक जानकारी देने के लिए उनकी सेना का मार्गदर्शन करें।
तत्कालीन इतिहास से हमें जानकारी मिलती है कि महाराजा रणजीत सिंह की विशाल सेना के आगमन की सूचना जैसे ही सूबेदार खान को मिली तो वह घबरा गया। उस नीच कुकर्मी के लिए यह संभव नहीं था कि वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सामना कर सके। महाराजा रणजीत सिंह की सेना की सूचना पाते ही वह भारत को छोड़कर अपने देश भागने की तैयारी करने लगा । जब कोई तेज:पुंज प्रकाशित होने का आभास मात्र देता है तो अंधकार अपने आप भागने लगता है और यही स्थिति उस समय महाराजा रणजीत सिंह की सेना के आगमन की सूचना पाने पर इस सरदार की होती जा रही थी। उसने अपने धन को अपने विश्वसनीय लोगों के माध्यम से काबुल भेज दिया और स्वयं भाग गया।
प्रदेश के राजकाज का भार वह अपने भाई जबर खान को सौंप गया। यद्यपि जबर खान भी नाम का ही जबर खान था, उसके भीतर भी इतना साहस नहीं था कि वह अपने भाई के पापों को उठाकर महाराजा रणजीत सिंह की सेना का सामना कर सके। बाद में जून 1819 ई0 को जबर खान और महाराजा रणजीत सिंह की सेना का जब सामना हुआ और मां भारती के सच्चे सपूतों ने जब जबर खान की सेना को गाजर मूली की भांति काटना आरंभ किया तो मैदान साफ होने लगा। इसके साथ ही यह भी साफ होने लगा कि अब वैदिक धर्म का सूर्योदय होने ही वाला है और इस मैदान से विजयी होकर जब महाराजा की सेना लौटेगी तो कश्मीर की पवित्र धरती को बहुत देर से अपने पापों से अत्याचारों से आतंकित करने वाले राक्षसों का यहां से अंत हो जाएगा।
अन्त में वैदिक धर्मरक्षिणी महाराजा रणजीत सिंह की इस सेना के सामने जबर खान की सेना के भी पांव उखड़ गए और वह भी मैदान छोड़कर भाग गया । भारत के इतिहास की यह बहुत बड़ी घटना थी ।क्योंकि इसने कश्मीर को आज एक नये सूर्य का आभास कराया था। पापी यहां से भाग चले थे और दीर्घकालिक रात्रि का अब अवसान हो चुका था। हिंदू धर्म रक्षक महाराजा रणजीत सिंह ने गुरु तेग बहादुर जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने धर्म के भाई हिंदुओं की रक्षा के संकल्प को पूरा करके दिखा दिया । आज का धर्मनिरपेक्ष हिंदू समाज चाहे महाराजा रणजीत सिंह के इस उपकार को कुछ भी न मानता हो परंतु तत्कालीन हिंदू समाज सर्वत्र उनकी जय-जयकार कर रहा था।
पंडित बीरबल धर ने किया राजधानी में प्रवेश
सिखों की सेना की निर्णायक विजय हुई और इस प्रकार कश्मीर से अत्याचारी अफगानों के शासन का अंत हो गया। 20 जून को पंडित बीरबल ने सिख फौज के साथ एक विजयी जुलूस के रूप में श्रीनगर में प्रवेश किया।
मुहम्मद दीन फ़ाक ने लिखा है कि :— ‘पंडित बीरबल बड़े उज्ज्वल चरित्र का व्यक्ति था । उसकी दृष्टि में उचित कार्य के लिए किया गया बड़े से बड़ा बलिदान भी नगण्य था। अपनी वफादार पत्नी की आत्महत्या, बहू के अपहरण और बलात धर्म परिवर्तन और मित्रों व संबंधियों की नृशंस हत्याओं से भी पंडित बीरबल विचलित नहीं हुआ। वह दृढ़ता से अपने पथ पर बढ़ता रहा, ताकि अफ़गानों को वह अपने देश से बाहर भगा सके, परंतु अपनी सफलता में वह अपने मुसलमान देशवासियों के प्रति अपने कर्तव्य को नहीं भूला। उसके इतने महान कार्य को इस देश की आत्मा कभी भुला नहीं सकती। चाहे पापी इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उसे भारतीय इतिहास के समुज्ज्वल पृष्ठों से कितना ही ओझल क्यों न कर दिया हो परंतु मां भारती उसके प्रति सदैव ऋणी रही है और रहेगी। आज की पीढ़ी को उसके उज्जवल चरित्र और ऐतिहासिक कार्यों पर गर्व है और आने वाली पीढ़ियां भी गर्व करती रहेंगी।
सिक्ख शहर को लूटना चाहते थे, परंतु वह रास्ते में खड़ा हो गया और जब फूल सिंह शाह हमदानी की पवित्र मस्जिद को तोड़ने लगा तो पंडित बीरबल ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना फूलसिंह को कहा कि उसके इस कुकर्म के लिए इतिहास उसको लताड़ेगा। बीरबल का यह एक कारनामा ही उसे अमर करने के लिए पर्याप्त है। वह पंडितों के परंपरागत गुणों तथा समय के थपेड़ों से लड़ने की शक्ति का प्रतीक और प्रतिनिधि है।’
क्रमश: