ओ३म्
-गुरुकुल पौंधा में स्वाध्याय शिविर का आयोजन-
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गुरुकुल पौंधा-देहरादून का तीन दिवसीय 22वां वार्षिकोत्सव 3 जून से 5 जून 2022 तक आयोजित किया गया है। इस अवसर पर 29 मई से 2 जून 2022 तक एक स्वाध्याय शिविर का आयोजन किया गया जिसमें आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई ऋषि दयानन्द लिखित लघु पुस्तक ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ का अध्ययन करा रहे हैं। दिनांक 2 जून, 2022 को हमें भी इस शिविर की कक्षा में सम्मिलित होने का अवसर मिला। कार्यक्रम प्रातः 10.00 बजे से आरम्भ हुआ। कार्यक्रम के संयोजक दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रतिनिधि डा. मुकेश कुमार आर्य जी ने स्वाध्याय शिविर का परिचय दिया। उन्होंने अपना परिचय पथिक जी के गीत की कुछ पंक्तियों ‘दयानन्द के वीर सैनिक बनेंगे, दयानन्द का काम पूरा करेंगे’ से आरम्भ किया। उन्होंने डा. सोमदेव शास्त्री जी को आर्योद्देश्यरत्नमाला पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया। डा. सोमदेव शास्त्री जी ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों का, उन उन ग्रन्थों के लेखन की भूमिका एवं उनसे सम्बन्धित महत्वपूर्ण जानकारियों सहित परिचय प्रशिक्षुओं के सम्मुख प्रस्तुत किया। डा. सोमदेव शास्त्री जी के सम्बोधन का प्रथम भाग हम पहले प्रस्तुत कर चुके हैं। उनके सम्बोधन का शेष भाग इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं।
डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की रचना का कार्य समाप्त कर वेदभाष्य करने का कार्य आरम्भ किया। उन्होंने नमूने का अंक तैयार किया। इस अंक में प्रत्येक मन्त्र के दो अर्थ व्यवहारिक एवं पारमार्थिक प्रस्तुत किये। आचार्य जी ने कहा कि वेद के मन्त्रों में लौकिक एवं पारलौकिक सब विद्यायें हैं। आचार्य जी ने अपने सम्बोधन में ऋषि दयानन्द लिखित लघु पुस्तक भ्रान्तिनिवारण का परिचय दिया और इसके लेखन की भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि ऋषि दयानन्द ने इस पुस्तक में पौराणिक विद्वान पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न, कोलकत्ता की आपत्तियों का निराकरण किया था। विद्वान वक्ता आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने बताया कि वेदों में अग्नि शब्द परमात्मा का भी नाम है तथा भौतिक अग्नि के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। अग्नि के इन दोनों अर्थों को ऋषि दयानन्द ने शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के शिष्य पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी के गुणों का वर्णन भी किया और बताया कि उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को 18 बार पढ़ा था। इस उदाहरण से उन्होंने श्रोताओं को ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़ने की प्रेरणा की।
डा. सोमदेव शास्त्री जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द ने सम्पूर्ण यजुर्वेद का भाष्य किया। उन्होंने ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 62 वें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक का भाष्य भी किया है। आचार्य जी ने कहा कि ऋग्वेद में कुल 10552 मन्त्र हैं जिसमें से ऋषि दयानन्द ने 5649 मन्त्रों का भाष्य किया है। ऋषि दयानन्द के पत्रों से ज्ञात होता है कि उन्होंने ऋग्वेद के शेष भाग को एक वर्ष में पूर्ण कर लेने का अनुमान व्यक्त किया था। आचार्य जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द का ऋग्वेद भाष्य को प्रकाशित होने में 22 वर्ष का समय लगा। यजुर्वेद भाष्य को छपने में 11 वर्ष समय लगा। आचार्य जी ने बताया कि प्रो. मैक्समूलर तथा मि. विल्सन भी ऋषि दयानन्द के वेद भाष्य के मासिक अंकों की ग्राहक सूची में थे। आचार्य जी ने बताया कि प्रो. मैक्समूलर ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र लिखना चाहते थे। उन्होंने इसका प्रस्ताव भी किया था। उन्हें ऋषि जीवन की सामग्री भेजी जानी थी परन्तु भेजी नहीं जा सकी। यदि यह सामग्री भेज दी जाती तो प्रो. मैक्समूलर का लिखा ऋषि दयानन्द का जीवन चरित्र प्रकाशित हो सकता था। ऐसा होने पर ऋषि दयानन्द यूरोप के देशों में छा जाते। आचार्य जी ने कहा कि देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है परन्तु ऋषि दयानन्द के आजादी में योगदान की कहीं चर्चा नहीं हो रही है। यह ऋषि दयानन्द के प्रति पक्षपात का उदाहरण है। आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने यह भी कहा कि ऋषि दयानन्द को उनके लेखन कार्य में सहयोग करने वाले ईमानदार लोग नहीं मिले। इस प्रसंग में आचार्य जी ने पं. भीमसेन शर्मा सहित कुल 3 लोगों की चर्चा की और उनके कृत्यों पर प्रकाश डाला। ऋषि दयानन्द जी ने अपने एक पत्र में पं. ज्वालादत्त पर सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है कि यह व्यक्ति कहीं वेदभाष्य में पोप लीला न डाल दे।
डा. सोमनाथ शास्त्री जी ने ऋषि दयानन्द की लघु पुस्तक ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ का परिचय देते हुए बताया कि यह पुस्तक सन् 1877 में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने एक पुस्तक ‘चतुर्वेद विषय सूची’ भी तैयार कराई थी। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द द्वारा एक अन्य पुस्तक ‘संस्कृत वाक्य प्रबोध’ को लिखकर प्रकाशित कराये जाने के विषय में भी जानकारी दी। ऋषि दयानन्द का बालकों के लिए एक महत्वपूर्ण लघु ग्रन्थ ‘व्यवहार भानु’ है। इसका परिचय भी आचार्य सोमदेव शास्त्री जी ने श्रोताओं को दिया। ‘गोकरूणानिधि’ भी ऋषि दयानन्द की एक महत्वपूण पुस्तक है। इसका परिचय भी विद्वान वक्ता ने स्वाध्याय शिविर के शिविरार्थियों को दिया। आचार्य जी ने कहा कि गोघृत सर्पदंश के प्रभाव से मुक्त कराने की प्रमुख ओषधि है। उन्होंने बताया कि यदि सर्पदंश से ग्रस्त मनुष्य को थोड़ा सा भी शुद्ध गोघृत पिला दिया जाये तो वह मरेगा नहीं। इसके बाद आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थ ‘भ्रमोच्छेदन’ का परिचय दिया। इस क्रम में उन्होंने बताया कि ऋषि दयानन्द ने ‘अनुभ्रमोच्छेदन’ नाम से भी एक लघु ग्रन्थ की रचना की है। इन ग्रन्थों के लेखन के कारणों वा भूमिका पर भी विद्वान वक्ता ने प्रकाश डाला। आचार्य जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द जी ने वेदांग प्रकाश के 14 भाग लिखे हैं। इन ग्रन्थों का परिचय आचार्य जी ने श्रोताओं को दिया। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का उल्लेख करने के बाद आचार्य जी ने आर्योद्देश्यरत्नमाला ग्रन्थ का स्वाध्याय कराया। प्रथम उन्होंने पुस्तक से अपरलोक का विषय पढ़कर समझाया। इसके बाद आचार्य जी ने जन्म क्या है, इस पर पुस्तक के आधार पर प्रकाश डाला और इसे कुछ उदाहरणों से स्पष्ट किया। आचार जी ने मरण वा मृत्यु पर भी प्रकाश डाला। विद्वान आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि यदि हमारे कर्म अच्छे होते हैं तो हमारा अगला जन्म अच्छा मनुष्य का होता है। मनुष्य जन्म मोक्ष तक जीवात्मा को ले जाता है। आचार्य जी ने अच्छे कर्मों के फलों पर भी प्रकाश डाला। योग भ्रष्ट मनुष्य की चर्चा कर आचार्य जी ने बताया कि जिस मनुष्य की इस जन्म में समाधि नहीं लगी, ऐसे पुण्य कर्म करने वाले ऐसे मनुष्य को अगले जन्म में पवित्र माता-पिताओं के यहां जन्म मिलता है। वहां उस जीवात्मा की योग की स्थिति उन्नति को प्राप्त होती है।
डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि स्वामी दयानन्द जी ने अपनी 59 वर्ष की आयु में जितने कार्यों को किया उसमें उनके अनेक पूर्वजन्मों के उत्तम संस्कारों का योगदान था। आचार्य जी ने यह भी बताया कि पापियों को आत्मा परमात्मा की बातें अच्छी नहीं लगती। उन्होंने कहा कि मनुष्य वा जीवात्मा के यदि पचास प्रतिशत कर्म पुण्य कर्म होंगे तभी उसे पुर्नजन्म में मनुष्य जन्म मिलता है। कर्मों की उत्तमता से ही पुर्नजन्म में भी उसके अनुसार ही हमें सुख व ज्ञान की प्राप्ति के साधन आदि मिलते हैं। आचार्य जी ने बताया कि मनुष्य का जन्म उभय योनि है जिसमें वह नये कर्मों को करता भी है और पूर्व किये हुए कर्मों का फल भी भोक्ता है। जीवात्मा शरीर को धारण करता है, इसे जन्म कहते हैं। शरीर को छोड़ने को मृत्यु कहा जाता है। जीवात्मा मनुष्य शरीर धारण किए बिना कर्म नहीं कर सकता। जीवात्मा को कर्म करने के लिए शरीर चाहिये। जीवात्मा शरीर से निकल जाता है तो शरीर शव बन जाता है। आचार्य जी ने कहा कि हमें मनुष्य शरीर शुभ व पुण्य कर्म करने तथा फल भोगने के लिए मिला है। मरने के बाद क्योंकि जीवात्मा का पुनर्जन्म हो जाता है, अतः मरने के बाद जो तेरहवीं व इस प्रकार की अन्य क्रियायें की जाती हैं वह सब पाखण्ड होने से व्यर्थ होती हैं। इसी के साथ आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने अपनी वाणी को विराम दिया। कार्यक्रम के संयोजक डा. मुकेश कुमार आर्य जी ने डा. साहब के सम्बोधन की प्रशंसा की और उनका धन्यवाद किया। इसी के साथ प्रातःकाल की यह कक्षा समापत हुई।
कार्यशाला वा शिविर में गुरुकुल के विद्यार्थियों सहित बाहर से पधारे स्त्री व पुरुष बड़ी संख्या में विद्यमान थे। कार्यक्रम की समाप्ति पर कार्यक्रम के संयोजक डा. मुकेश आर्य जी ने डा. सोमदेव शास्त्री जी के ज्ञान व प्रवचन शैली की प्रशंसा की और उनका धन्यवाद किया। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य