क्या भारत को लेकर सचमुच बदल गया है तालिबान ?

काबुल में भारतीय दल की उपस्थिति के क्या मायने हैं और इससे चीन और पाकिस्तान की क्यों उड़ी नींद

अभिनय आकश

रूस, अमेरिका, चीन से अलग भारत का संबंध अफगान लोगों से रहा है, तालिबान संग रिश्ते सुधारने की कोशिश उसी की एक कड़ी है

यूपीए-2 के शासन का आखिर वर्ष और तालिबान के पहले शासन में पाकिस्तान में राजदूत मुल्ला अब्दुल सलाम जईफ गोवा में आयोजित एक सम्मेलन में उपस्थित होते हैँ। उन्हें तालिबान के साथ बेस्टसेलिंग माई लाइफ के लेखक के रूप में आमंत्रित किया गया था। मुल्ला जईफ को वीजा देने को तालिबान के प्रति भारत की नीति में बदलाव के रूप में देखा गया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम और तालिबान के संस्थापक मुल्ला अब्दुल सलाम ज़ईफ की साथ वाली एक तस्वीर भी खूब चर्चा में रही थी। मीडिया रिपोर्टों ने तब सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा कि यह जईफ की पहली यात्रा नहीं थी, सूत्रों ने यह संकेत भी दिया है कि मुल्ला जईफ को भारत में आने की अनुमति प्रदान करने का फैसला तालिबान के साथ संबंध बढ़ाने के लिए सोच-समझ कर उठाया गया कदम था। कारण वही थे जो आज हैं। नई दिल्ली अफगानिस्तान में कूटनीतिक खेल में पिछड़ न जाए। भारतीय विदेश मंत्रालय के अधिकारी जेपी सिंह अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी की तस्वीर ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है। यूक्रेन युद्ध में उलझी दुनिया के लिए एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रही है। इस एक तस्वीर ने अफगानिस्तान में बड़े-बड़े मंसूबे पाले बैठे चीन के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है। दरअसल, भारत के विदेश मंत्रालय की एक टीम ने काबुल का दौरा किया। अगस्त 2021 में अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी और काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद से भारत सरकार के नुमाइंदों की ये पहली अफगानिस्तान यात्रा थी। भारत ने तालिबान पर कब्जे के बाद से ही अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर दिया था। लिहाजा ये मुलाकात बेहद अहम बन गई। इस यात्रा के दौरान भारत के अधिकारियों ने अफगानिस्तान में ऐसे प्रोजेक्ट का भी दौरा किया जो भारत में तालिबान के दोबारा शासन में आने से पहले शुरू किए थे। भारत और तालिबान के अधिकारियों की मीटिंग के बाद बताया गया कि तालिबान लीडरशिप मानवीय मदद और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भारत की मदद चाहती है। इस मीटिंग में इसी मसले पर चर्चा भी हुई। 

इस मीटिंग से टेंशन में आया चीन 
अफगानिस्तान को लेकर भारत की इस पहल ने चीन के कान खड़े कर लिए हैं। भारतीय अधिकारियों के वापस लौटने के बाद ही अफगानिस्तान में चीन के राजदूत तेंग इनान एक्टिव हो गए और उन्होंने तालिबान सरकार  के मंत्री  शेर मोहम्‍मद अब्‍बास स्‍टानेकजई से मुलाकात करके अफगानिस्तान में नई विकास परियोजनाएं शुरू करने की बात कही। तालिबान के प्रवक्ता की तरफ से बयान में कहा गया कि चीनी राजदूत के साथ बैठक अफगानिस्तान-चीन के बीच ऐतिहासिक संबंधों, द्विपक्षीय सहयोग और अफगानिस्तान में पूरे नहीं हुए प्रोजेक्ट को फिर से शुरू करने पर केंद्रित थी। चीन अपने प्रोजेक्ट बीआरआई को अफगानिस्तान में आगे बढ़ाना चाहता है। सीपीईसी के जरिये चीन पाकिस्तान में काफी एक्टिव है। अमेरिका के अफगानिस्तान से बाहर होने जाने के बाद अब चीन पाकिस्तान के जरिये काबुल में भी अपना प्रभाव जमाना चाहता है। लेकिन उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा भारत ही है। तालिबान की सत्ता में वापसी से पहले भारत ने अफगानिस्तान में कई बड़े-बड़े प्रोजेक्ट तैयार किए थे। जिनमें अस्पताल, स्कूल, रोड और अफगानिस्तान की संसद का निर्माण भी शामिल है। 
पाकिस्तान नहीं चाहता अफगानिस्तान में भारत का दखल
अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी पाकिस्तान को भी खटकती है। चूंकि पाकिस्तान इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा समझता है। भारतीय अधिकारियों के अफगान दौरे पर पाकिस्तान ने कहा कि वह नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में कोई भी देश स्थिति बिगाड़ने वाली भूमिका निभाये। पाकिस्तान विदेश कार्यालय के प्रवक्ता आसिम इफ्तिखार ने प्रेसवार्ता के दौरान कहा कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के संदर्भ में पाकिस्तान के विचार जगजाहिर हैं। भारतीय दल की काबुल यात्रा और भारत के अफगानिस्तान में दूतावास दोबारा खोले जाने की खबरों से जुड़े सवाल पर प्रवक्ता ने कहा, अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के बारे में हमारे विचार ऐतिहासिक रूप से जगजाहिर हैं। हालांकि, हाल में अफगान अधिकारियों के अनुरोध पर पाकिस्तान ने एक विशेष संकेत के रूप में भारतीय गेहूं की खेप को (अफगानिस्तान ले जाने के लिए) परिवहन की अनुमति दी थी। उन्होंने कहा, पाकिस्तान नहीं चाहता कि कोई भी देश स्थिर और समृद्ध अफगानिस्तान के रास्ते में स्थिति बिगाड़ने वाली भूमिका निभाये। दरअसल, तालिबान को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का ही प्रोडक्ट माना जाता है। पाकिस्तान, तालिबान के सहयोग से अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ बने आतंकी संगठनों के ट्रेनिंग कैंप के लिए करना चाहता है। लेकिन अगर भारत और तालिबान के बीच कोई अंडरस्टैंडिंग बनती है तो ये पाकिस्तान और चीन दोनों के मंसूबों के लिए बड़ा झटका होगी। 

कितना बदला है तालिबान
तालिबान के लिए भारत का सतर्क रुख ऐसे समय में आया है जब समूह ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने पिछले दौर से नहीं बदला है। तालिबान ने हाल ही में अफगान महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य किया था। सत्ता पर काबिज होने के बाद तालिबान ने लड़कियों की पढ़ाई कक्षा छह तक सीमित कर दी। इतना ही नहीं तालिबान ने मीडिया में काम करने वाली महिलाओं को भी चेहरा ढककर समाचार प्रस्तुत करने का आदेश दिया है। संयुक्त राष्ट्र तालिबान की निगरानी समिति ने रिपोर्ट दी है कि तालिबान अल-कायदा के करीब बना हुआ है, अफगानिस्तान में उसके बहुराष्ट्रीय लड़ाकू बल की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। रिपोर्ट में पाकिस्तान सीमा के करीब नंगरहार और कुमार में जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर के प्रशिक्षण शिविरों के संकेत का भी उल्लेख है। इनमें से कुछ पर तालिबान का सीधा नियंत्रण है। बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी एस तिरुमूर्ति ने तालिबान प्रतिबंध समिति के अध्यक्ष के तौर पर ‘‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों के संज्ञान में लाने के लिए रिपोर्ट पेश की और परिषद का दस्तावेज जारी किया। हालाँकि, एक विचार जिसने भारतीय प्रतिष्ठान में जमीन हासिल की है, वह यह है कि पाकिस्तान को तालिबान से अलग करने का समय आ गया है, खासकर जब पाकिस्तान सुरक्षा प्रतिष्ठान काबुल शासन के साथ नहीं जम पा रही है, जिसकी एक  बड़ी वजह पाकिस्तानी तालिबान (टीटीपी) भी है। 
अफगान लोगों से भारत का रिश्ता
रूस, अमेरिका या चीन से अलग भारत का संबंध मुख्य रूप से अफगान लोगों से रहा है। भारत के खान पान से लेकर फिल्म और संस्कृति में अफगान लोगों की दिलचस्पी रही है। तालिबान से हिचकिचाते हुए ही सही फिर भी भारत को अफगान लोगों से हमदर्दी है, भारत चाहता है कि अफगानिस्तान एक शांत एवं खुशहाल देश बने। तालिबान को चाहिए होगा कि वह पहले की तरह पाकिस्तानी कठपुतली की तरह व्यवहार नहीं करे चूंकि अभी तक तालिबान ने एक आजाद अफगान होने का एहसास करवाया है, भविष्य में भी वह अगर इस नीति पर कायम रहता है और शांतिपूर्ण कार्यों को आगे बढ़ाते हुए अफगानिस्तान की शांति एवं विकास को तरजीह देता है तब शायद भविष्य में भारत या अन्य लोकतांत्रिक देश सीमित ही सही परन्तु अफगानिस्तान से सम्बन्ध बनाए रखना चाहेंगे। भारत की सदैव नीति रही है कि वह किसी भी देश के आंतरिक मामलों में कोई दखलदांजी नहीं करता, लेकिन अगर देश खासकर अगर वह पड़ोसी है और उसका असर भारत के आंतरिक हिस्सों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर पड़ता है तब इस पर भारत जरूर कुछ न कुछ कदम उठाता है। अफगानिस्तान अभी जिस दौर में है भारत ही नहीं दुनिया भर को अफगानियों की मदद को आगे आना चाहिए। 

दूतावास फिर खोल सकता है भारत
जानकार बता रहे हैं कि भारत अफगानिस्तान में दूतावास दोबारा खोल सकता है। विदेश मामलों की भारतीय परिषद यानी आईसीडब्ल्यूए की रिसर्च फेलो अन्वेषा घोष कहती हैं, “वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति शायद तुरंत नहीं होगी लेकिन जूनियर अधिकारियों के साथ दूतावास खोलने पर विचार हो रहा है।

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