स्वतंत्रता, हमारी सांस्कृतिक धरोहर
अग्नि का स्वाभाविक गुण (धर्म) जलाना है, इसलिए अग्नि से किसी को ये कहना नही पड़ता कि-‘हे, अग्निदेवता! आप लकड़ी को जला डालो।’ इसके विपरीत बिना कहे अग्नि स्वयं ही लकड़ी को जला डालती है। इसी प्रकार भगवान की करूणा है, जिसे मांगा नही जाता। वह स्वयं ही हमें अपनी करूणा का पात्र यथा समय बना लेते हैं। बस, यही स्थिति किसी देश के स्वतंत्रता प्रेमी ‘यौवन’ की होती है। उससे भी देश की रक्षा के लिए कहा नही जाता है कि-‘उठो, जागो और टूट पड़ो शत्रु पर।’ जहां स्वतंत्रता से प्रेम है, वहां शत्रु का दमन या विरोध स्वाभाविक है। स्वतंत्रता से स्वाभाविक प्रेम भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। इसी स्वाभाविक गुण के कारण हम अपना दीर्घ कालीन स्वतंत्रता संघर्ष चला पाये थे।
सैयद वंश का शासन प्रारंभ हुआ
तुगलक वंश के पश्चात दिल्ली पर सैयद वंश का शासन प्रारंभ हुआ। 4 जून 1414 ई. को खिज्र खां दिल्ली का सुल्तान बना और एक नये राजवंश ‘सैय्यद वंश’ की स्थापना की।
हिंदू शक्ति हो गयी थी पुन: प्रबल
यहां हम यह स्पष्ट करना आवश्यक मानते हैं कि दिल्ली के सल्तनत साम्राज्य का विस्तार जितना अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में हुआ था उतना किसी अन्य सुल्तान या मुगल बादशाह के काल (औरंगजेब के काल में भी) में भी नही हुआ। अलाउद्दीन खिलजी के काल में हिंदू शक्ति ने प्रबलता से अपना प्रतिरोध निरंतर जारी रखा, और उसके पश्चात अब तक के लगभग 50-60 वर्षों में खिलजीकालीन आधे से अधिक मुस्लिम साम्राज्य को पुन: हिंदू झण्डे भगवा के नीचे लाने में सफलता प्राप्त कर ली थी। मात्र 100 वर्ष में इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करना एक रोमांचकारी चमत्कारी इतिहास की घटना है, जिसे जानबूझकर छिपाया गया है। विशेषत: तब जब कि इतने बड़े साम्राज्य को खड़ा करने में मुस्लिम सुल्तानों को सैकड़ों वर्ष का (714 ई. से 1414 ई. तक) समय लगा था। यदि हम गुलाम वंश की स्थापना (1206 ई.) से ही काल गणना करें तो 90 वर्ष पश्चात 1296 ई. में अलाउद्दीन दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था, अर्थात उसे व अन्य मुस्लिम सुल्तानों को भारतवर्ष में सल्तनत का विशाल साम्राज्य खड़ा करते-करते लगभग सौ वर्ष का समय लगा। जिसे हिंदू शक्ति ने अपने प्रबल प्रतिरोध से अगले 50 से 60 वर्षों में ही धराशायी कर दिया।
हिंदू शौर्य का होने लगा विस्तार
इस धराशायी साम्राज्य का अगला शासक खिज्र खां बना। यह उस समय की घटना है जब हिंदू उत्साही था-इस बात को लेकर कि जब इतने बड़े साम्राज्य को सीमित किया जा सकता है तो कोई भी चमत्कार किया जा सकता है। सैय्यद वंश कालीन सुल्तानों ने भी अपने पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों की भांति अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार का यथासंभव भरसक प्रयास किया, परंतु उन्हें हिंदू प्रतिरोध के कारण अपने लक्ष्य की पूर्ति में कोई उल्लेखनीय सफलता नही मिली। सल्तनत की सीमाएं निरंतर सीमित होती चली गयीं और हिंद शौर्य का निरंतर विस्तार होता चला गया। सैय्यद सुल्तानों को हिंदुओं के छोटे-छोटे सामंतों ने भी चुनौती दी और आश्चर्य की बात है कि कोई भी सैय्यद सुल्तान इन छोटे-छोटे सामंतों की चुनौतियों से आगे नही बढ़ पाया और ना ही इनका समूल नाश कर पाया।
हिंदू विद्रोह बनाम मुस्लिम बगावत
इसका एक महत्वपूर्ण कारण था कि हिंदू प्रतिरोध के निरंतर जारी रहने से जहां मुस्लिम शक्तियों ने सत्ता के लिए विद्रोह (हिंदू के विद्रोह और मुस्लिम शक्तियों के विद्रोह में यही अंतर था कि वे सत्ता के लिए विद्रोह-बगावत करते थे, तो हिंदू स्वतंत्रता के लिए प्रतिरोध और संघर्ष करते थे। इन दोनों के लिए ‘विद्रोह’ शब्द यदि प्रयोग किया जाता है तो उसे इतने अंतर के साथ समझना ही उचित होगा) किया वहीं मुस्लिम सल्तनत दुर्बल पड़ती चली गयी।
हो गयीं कई अन्य मुस्लिम सल्तनतें स्थापित
इससे हिंदू राजाओं को एक लाभ हुआ कि मुस्लिम शक्ति कई केन्द्रों में विभक्त हो गयी और कोई एक सशक्त ‘अलाउद्दीन’ खड़ा करने में वह निष्फल हो गयी। फलस्वरूप देश में मालवा, जौनपुर, गुजरात और कालपी में अन्य चार मुस्लिम सल्तनतें स्थापित हो गयीं। अब ये भी परस्पर एक दूसरे से आगे निकलने के लिए संघर्ष करने लगीं, यद्यपि अलग-अलग सभी के लिए हिंदू इसके उपरांत भी निशाने पर रहा और हिंदुओं को भी इनसे अलग-अलग मोर्चों पर युद्घ करने पड़े। परंतु प्रसन्नता की बात यह थी कि मुस्लिम शक्ति के बिखराव से हिंदू का उत्साह बना रहा और वह अपनी स्वतंत्रता के लिए निरंतर प्रतिरोधात्मक संघर्ष करता रहा।
मुस्लिमों की इस फूट पर इतिहास मौन है
भारत के विभिन्न स्थानों पर इतनी शीघ्रता से कई मुस्लिम सल्तनों की स्थापना हो जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मुस्लिमों के मध्य भी कितनी फूट रही है, जबकि इस फूट के लिए मध्यकालीन इतिहास में केवल हिंदू को ही कोसा जाता है। ये मुस्लिम सल्तनें सामान्यतया एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी और शत्रु थीं। इनका उद्देश्य भी भारत में सबको पीछे छोडक़र आगे बढऩा और अपना साम्राज्य स्थापित करना था। प्रचलित भारतीय इतिहास की यह विडंबना ही है कि यह हमें हिंदू समाज की फूट को तो बारंबार बताता है, परंतु मुस्लिम समाज की फूट की ओर से आंखें बंद कर लेता है।
दिल्ली बहा रही थी आंसू
जिस समय खिज्र खां दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था उस समय दिल्ली लगभग श्मशान बनी अपने भाग्य पर आंसू बहा रही थी। उसकी गलियों में बच्चों की किलकारियां सुनाई नही पड़ती थीं अपितु गिद्घों की डरावनी आवाज, आया करती थी। समकालीन इतिहासकार यहिया का कहना है कि-‘‘पिछले (शासकों) कारनामों की जोर जबरदस्ती से दिल्ली (पूर्णत:) कंगाल हो चुकी थी।’’
आंसू पोंछने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश आया आगे
सैय्यद काल में भी पूर्व की भांति पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना का समुचित और वीरोचित प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन का एक कारण यह भी था कि दिल्ली पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लगती हुई है और उसके कष्टों व दुखों की अनुभूति सर्वप्रथम पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ही होती थी। इसलिए हर मुस्लिम शासक का ध्यान इस संवेदनशील प्रांत के स्वतंत्रता प्रेमी लोगों के दमन पर सर्वप्रथम जाता था।
कटेहर नरेश हरिसिंह ने दी चुनौती
‘कटेहर’ अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना के लिए पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के काल में भी विख्यात रहा था। अब भी उसने अपने इस परंपरागत गुण को यथावत बनाये रखा। वहां के राजा हरिसिंह ने नये मुस्लिम सुल्तान के सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व सल्तनत में सिंहासन के लिए मचे घमासान के वर्षों में ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। इसलिए इस हिंदू स्वतंत्र शासक का दमन करना मुस्लिम सुल्तान खिज्र खां के लिए अवश्यक हो गया था। फलस्वरूप खिज्र खां ने हरिसिंह को अपने आधीन करने का निर्णय लिया। खिज्र खां ने अपने विश्वससीन ताजुल मुल्क को 1414-15ई में कटेहर पर आक्रमण करने के लिए बड़ी सेना देकर भेजा। राजा हरिसिंह ने विशाल सेना का सामना न करके पीछे हटकर घाटियों मे ंजाना उचित समझा। ताजुल मुल्क ने कटेहर निवासियों को जितना लूट सकता था, या मार सकता था, उतना लूटा भी और मारा भी। तत्पश्चात उसने नदी पार कर खुद कम्पिला, सकिया और बाथम को लूटा। ‘तारीखे मुबारक शाही’ के अनुसार मुस्लिम सेना ने राजा का घाटियों में भी प्रतिरोध किया तो उसने कर देना स्वीकार कर लिया।
हारकर भी राजा ने हार नही मानी
इसके पश्चात शाही कि सेना जैसे ही पीछे हटी और राजधानी दिल्ली पहुंचीे तो राजा हरिसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की पुन: घोषणा कर दी। अगले वर्ष 1416-17 ई. में ताजुल्मुल्क को राजा हरिसिंह के शौर्य के दमन के लिए पुन: सेना सहित कटेहर की ओर प्रस्थान करना पड़ा। इस बार भी उसने राजा को ‘कर तथा उपहार’ देने के लिए पुन: बाध्य कर किया।
राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध उठा ली थी
राजा ने कर तथा उपहार देकर शत्रु को दिल्ली भेज दिया, पर उसके दिल्ली पहुंचते ही पुन: कटेहर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मानो राजा ने स्वतंत्र रहने की सौगंध खा ली थी और उसे सुल्तानों की अधीनता किसी भी सीमा तक स्वीकार्य नही थी। ऐसी परिस्थितियों में पुन: अगले ही वर्ष (1418-1419ई में) कटेहर के हिंदू राजा का मस्तक झुकाने के लिए ताजुल मुल्क पुन: वहां भेजा गया। ताजुल मुल्क अपनी विशाल सेना के साथ दिल्ली से चलकर कटेहर आ धमका। राजा हरिसिंह ने शत्रु के आ धमकने की सूचना पाकर अपने राज्य के खेत खलियानों को स्वयं ही अपनी प्रजा से विनष्ट कराना आरंभ कर दिया। जिससे कि शत्रु को किसी भी प्रकार से अन्नादि उपलब्ध न होने पाये। राजा पुन: आंवला की घाटी में प्रविष्ट हो गया। शाही सेना ने राजा का घाटी तक पीछा किया। फलस्वरूव राजा और शाही सेना के मध्य प्रबल संघर्ष इस घाटी में हुआ। ‘तारीखे मुबारकशाही’ के अनुसार राजा पराजित हुआ और कुमायूं के पर्वत की ओर चला गया। शाही सेना के 20 हजार घुड़सवारों ने उसका पीछा किया, परंतु राजा को पकडऩे में शाही सेेना पुन: असफल रही। राजा से असफल होकर पांच दिन के असफल संग्राम के पश्चात शाही सेना दिल्ली लौट आयी।
ध्यान देने योग्य तथ्य
ध्यान देने की बात ये है कि दिल्ली लौटी सेना या उसके सेनापति राजा हरिसिंह को परास्त करके उसे बंदी बनाने में हर बार असफल होते रहे और राजा के भय के कारण कभी भी उसके राज्य पर अपना राज्यपाल नियुक्त करने या उसे सीधे अपने साम्राज्य के आधीन लाने का साहस नही दिखाया। फलस्वरूप इस बार भी राजा ने अपने राज्य पर पुन: अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। तब सुल्तान स्वयं कटेहर की ओर सेना लेकर बढ़ा। फरिश्ता का कहना है कि सुल्तान ने कटेहर को नष्ट किया और पुन: दिल्ली लौट आया। परंतु हरिसिंह इसके उपरांत भी स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा।
इतिहास को ऐसे भी पढ़ा जा सकता है
पांच सैनिक अभियानों के लिए एक छोटे से हिंदू राजा ने मुस्लिम सल्तनत को विवश किया, पर्याप्त विनाश झेला और इसके उपरांत भी अपनी स्वतंत्रता को खोया नही यह इतिहास है। इन सैनिक अभियानों से मुस्लिम सल्तनत दुर्बल हुई। क्योंकि हर वर्ष एक बड़ी सेना को सैनिक अभियान के लिए भेजना और कोई विशेष उपलब्धि के बिना ही सेना का यूं ही लौट आना उस युग में बड़ा भारी पड़ता था। राजा ने निश्चित रूप से वीरता पूर्वक मुस्लिम सेना से संघर्ष नही किया, यह हम मानते हैं।परंतु उसके साहस की भी उपेक्षा नही की जा सकती कि शाही सेना के पीठ फेरते ही वह अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर देता था। इस कार्य में कटेहर की धर्मभक्त और स्वतंत्रता प्रेमी हिंदू जनता भी साधुवाद की पात्र थी, क्योंकि उसने भी अपने शासक के विरूद्घ कभी न तो विद्रोह किया और ना ही शाही सेना के सामने समर्पण कर इस्लाम स्वीकार किया। उसने हर बार अपने शासक के निर्णय को उचित माना और उसके निर्णय के साथ अपनी सहमति व्यक्त की। इतिहास को इस दृष्टिकोण से भी पढ़ा जाना अपेक्षित है।
सुल्तान को स्वयं चलाना पड़ा सैनिक अभियान
यहिया और निजीमुद्दीन अहमद के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि सुल्तान मुबारक शाह को 1422-23 ई और 1424 ई में भी कटेहर के लिए सैन्य अभियान चलाना पड़ा था। इन अभियानों का नेतृत्व भी सुल्तान मुबारकशाह ने ही किया था। इस प्रकार मुबारकशाह को हरिसिंह ने कभी भी सुखपूर्वक शासन नही करने दिया। उसे जितना दुखी किया जा सकता था, उतना किया। 1422-23 ई. में तो मुबारकशाह हरिसिंह से कोई कर भी प्राप्त नही कर सकता था। याहिया खां और निजामुद्दीन हमें बताते हैं कि इसके उपरांत सुल्तान गंगा नदी पार कर दोआब क्षेत्र की ओर निकल गया था।
कटेहर की ओर फिर कोई नही आया सैय्यद शासक
यह एक तथ्य है कि मुबारकशाह के पश्चात कटेहर की ओर अन्य किसी सैय्यद वंशीय सुल्तान ने पुन: कोई सैन्य अभियान नही चलाया। फलस्वरूप राजा हरिसिंह का साहस कटेहर के लिए वरदान सिद्घ हुआ और यह राज्य अपनी स्वतंत्रता स्थापित किये रखने में सफल रहा।
भारत की अद्भुत परंपरा
पराजय में भी आत्मनिष्ठ, स्वतंत्रतानिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और स्वसंस्कृतिनिष्ठ बने रहने की भारत और भारत के लोगों की विश्व में अदभुत परंपरा है। अपने इसी अदभुत गुण के कारण कितने ही आघातों-प्रत्याघातों को सहन करके भी भारत वैसे ही पुनर्जीवित होता रहा, जैसे एक फीनिक्स नाम का पक्षी अपनी राख में से पुनर्जीवित हो उठता है। अलाउद्दीन के काल तक जितने परिश्रम से यहां मुस्लिम साम्राज्य खड़ा किया जा रहा था, उतने पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात से हिंदू शक्ति उसे भूमिसात करने का अतुलनीय प्रयास कर रही थी। उसी पुनरूज्जीवी पराक्रम के प्रत्याघात की पताका का प्रतीक राजा हरिसिंह कटेहर में बन गया था। जिस शक्ति का प्रयोग मुस्लिम सुल्तान देश के अन्य भागों में हिंदू पराक्रम को पराजित करने के लिए कर सकते थे, उसे बार-बार हरिसिंह कटेहर में व्यर्थ में ही व्यय करा डालता था।
शत्रु पराभव की ओर चल दिया
यह ऐसा काल था जिसमें भारत की हिंदू शक्ति ने अपने पराक्रम से शत्रु के विजय अभियानों पर तो पूर्ण विराम लगा ही दिया था, साथ ही शत्रु को पराभव की ओर निर्णायक रूप से धकेलने का भी कार्य किया। क्योंकि इसके पश्चात पूरे देश में दिल्ली की सल्तनत पुन: उस ऊंचाई तक नही पहुंच पायी जिस ऊंचाई तक उसने अलाउद्दीन के काल में अपना विस्तार कर लिया था।
यह प्राचीन पराक्रम की प्रतिच्छाया थी
सर ऑरेल स्टीन (1862-1943ई.) हंगरी निवासी थे। जिन्होंने भारत के पराक्रमी और वैभव संपन्न अतीत पर व्यापक अनुसंधान किया था। उनके अनुसंधानात्मक कार्यों से भारत के विषय में लोगों के ज्ञान में पर्याप्त वृद्घि भी हुई। वह लिखते हैं :-‘‘भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव के उत्तर दिशा में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में इण्डोनेशिया तक और पर्शिया की सीमा से लेकर चीन तथा जापान तक विशाल विस्तार ने यह सिद्घ कर दिया है कि प्राचीन भारत सभ्यता का एक दीप्तिमान केन्द्र था जिसे अपने धार्मिक विचार तथा कला साहित्य द्वारा उन वृहत्तर एशिया के एक बड़े क्षेत्र में बिखरे तथा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न जातियों पर गहरा प्रभाव छोडऩे के लिए ही विधाता ने बनाया था।’’
इसी प्रसंग में डा. आर.सी. मजूमदार अपनी पुस्तक ‘एंशियंट इंडिया’ में जो कुछ लिखते हैं वह भी उल्लेखनीय है-
‘प्राचीन भारतीय अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार धन-संचय तथा व्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य के विकास के प्रति अत्यंत सजग थे। इन विभिन्न मार्गों से प्राप्त भौतिक समृद्घि समाज के वैशिष्टय प्रदत्त ऐश्वर्य तथा सौम्यता से परिलक्षित होती थी। पुरातात्विक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में एक ओर भारत तथा दूसरी ओर मैसोपोटामिया, अरब, फीनिका तथा मिस्र के बीच थल तथा जल मार्ग से निरंतर व्यापारिक संबंध थे। चीनी साहित्य ग्रंथों में भारत तथा चीन के मध्य ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में समुद्री तथा व्यापारिक गतिविधियों का उल्लेख है। हाल ही की खुदाईयों से फिलीपीन्स मलयद्वीप तथा इंडोनेशिया के साथ पुराने व्यापारिक संबंध सुनिश्चित होते हैं, जो ऐतिहासिक काल तक चलते रहे। यह सामुद्रिक वैशिष्टय ही था-जिसके कारण से भारत व चीन के मध्य जल तथा थल मार्ग से यातायात विकसित होने के कुछ ही समय के पश्चात भारतीय अपने भारतीय द्वीप समूहों में बस्तियां बसा सके।
भारत यूनानी संसार के भी घनिष्ट संपर्क में आया। प्राचीन अधिकृत सूत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि टोले भी फिलैडेलफस (ईसा पूर्व 285-246) के प्रदर्शनों में भारतीय महिलाएं, भारतीय शिकारी कुत्ते, भारतीय गायें और भारतीय मसालों से लदे ऊंट दिखाई पड़ते थे और यह भी कि मिश्र के शासकों की आनंद विहार नौकाओं के स्वागत कक्ष भारतीय हीरे पन्नों से जड़े होते थे। इन सबसे यह पता चलता है कि भारत तथा पश्चिमी देशों के सुदूर अफ्रीकी तटों तक घना समुद्री व्यापार होता था, सामान को तटों से थलमार्ग से नील नदी तक ले जाया जाता था, और वहां से नदी मार्ग द्वारा उस समय के विशाल वाणिज्य केन्द्र अलेग्जेण्ड्रिया तक। ईसा की प्रथम शताब्दी में अफ्रीकी तट से परे एक वाणिज्यिक बस्ती थी। भारतीयों के साहसिक कार्य उन्हें सुदूर उत्तरी सागर तक ले गये, जबकि उनके कारवां एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फेेल गये।’
उस पुनरूज्जीवी पराक्रम को प्रणाम
कोई भी जाति जब तक अपने जातीय गौरव, जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान से भरी रहती है तब तक उसे मिटाया नही जा सकता। हिंदू के पुनरूज्जीवी पराक्रम के पीछे उसकी एक गौरवपूर्ण इतिहास परंपरा खड़ी थी, जो उसके पताका प्रहरियों को जातीय पराक्रम और जातीय स्वाभिमान के श्लाघनीय गुणों से भरते थे। जब व्यक्ति निर्माण और सृजन के कीर्तिमान स्थपित करता है, तो उसे आत्मबल मिलता है, जिससे वह लंबी दूरी की यात्रा बिना थकान अनुभव किये कर सकता है, और यदि उस यात्रा में कहीं कोई व्यवधान आता है तो उसे बड़े धैर्य और संतोष भाव से दूर भी कर सकता है। जैसा कि भारत इस काल में कर रहा था।
क्रूरता शत्रु उत्पन्न करती है
इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति विध्वंस और विनाश के कीर्तिमान स्थापित करता है तो उस विध्वंस और विनाश के पापकृत्यों का भार उसके आत्मबल को धिक्कारता है, और व्यक्ति भीतर से दुर्बल हो जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं के साथ यही हो रहा था। क्रूरता उसकी स्वत: सिद्घ दुर्बलता थी, जिसे इतिहास ने उसकी वीरता सिद्घ किया है। क्योंकि वीरता शत्रु उत्पन्न नही करती है, अपितु शत्रु को शांत करती है और क्रूरता सदा शत्रु उत्पन्न करती रहती है। भारत की सात्विक वीरता से शत्रु को मित्र बनाया और इस्लाम की तामसिक क्रूरता ने मित्र को शत्रु बनाया। जिसमें वह स्वयं ही उलझकर रह गया।
भारत की वैश्विक धरोहर को किया गया उपेक्षित
भारत ने करोड़ों वर्षों तक विश्व में भ्रातृत्व और सहचर्य का भाव बनाये रखने में सफलता प्राप्त की। यह एक ऐसा इतिहास है जिस पर मानवता गर्व कर सकती है। परंतु सम्प्रदायों में विभक्त मानवता जब इस वैश्विक धरोहर (भारतीय भ्रातृत्व और सहचर्य की संस्कृति) पर विचार करती है तो उसे सर्वथा अनुपयोगी मानकर यूं ही छोड़ देती है। दूसरी ओर इस्लाम का भ्रातृत्व था जो अपने जन्मकाल से ही कलक, कटुता और क्लेश में सांस लेने के लिए अभिशप्त रहा और उसी में आज तक सांस ले रहा है। सारे इस्लामिक देशों में आज भी कलह, कटुता और क्लेश का वातावरण व्याप्त है, जो हमारी इस मान्यता की पुष्टि करता है।
अपने भ्रातृत्व और सहचर्य के विस्तार के लिए तथा इस्लामिक कलह, कटुता और क्लेश के वातावरण का प्रतिरोध करने के लिए यदि राजा हरिसिंह तत्कालीन सुल्तानों को बारम्बार दुखी कर रहे थे तो इस राष्ट्रभक्ति में दोष क्या था?
उन्होंने अपने ‘दोषियों’ के स्मारक बना डाले और हमने अपने ‘निर्दोषों और निष्पाप लोगों’ को भी इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। कृतघ्नता की भी कोई सीमा होती है।
क्रमश: