कांग्रेसियों की मुझे तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने उस पैसे को दबाकर नहीं रखा। अपने नेता को फिर से जिन्दा करने के लिए उन्होंने करोड़ों रुपये फूंक दिए। रेलों में, बसों में, कारों में, भरकर हज़ारों लोगों को रामलीला मैदान में ला खड़ा किया। पगड़ियों और टोपियों का लालच तो कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोल ही रहा था लेकिन बटुए ने भी कम कमाल नहीं किया। जो भी हो,सभी दलों की आजकल भीड़ जुटाने की शैली यही है तो फिर अकेली कांग्रेस को दोष क्यों दें?
राहुल को जो भाषण रटाया गया था, वह उन्होंने बिना उतार-चढ़ाव के, जनता को परोस दिया। यदि आप मिर्जा ग़ालिब को ‘रेख्ता के उस्ताद’ कहते हैं तो आप शहजादे राहुल को ‘चीखता के उस्ताद’ कह सकते हैं। लगभग 20 मिनिट तक राहुल चीखते रहे। मोदी सरकार के विरुद्ध उन्हें जयराम रमेश या दिग्गी राजा ने तर्क तो अच्छे रटाए थे लेकिन आश्चर्य है कि उनके भक्तों की भीड़ ताली बजाना भी भूल गई।
कहीं उनके पगड़ियों के नीचे प्रांतीय नेताओं ने नींद की गोलियाँ तो नहीं रख दी थीं? अगली पंक्तियों में बैठे बड़े-बड़े नेताओं के सिर पर पगड़ियाँ नहीं थीं। फिर भी वे झपकियाँ क्यों ले रहे थे? क्योंकि शहजादे का भाषण ही उनके लिए नींद की गोली का काम कर रहा था। चीखना भी उनके लिए राग मालकौंस का-सा असर कर रहा था । शाहजादे ने एक-दो मजाक की बातें भी कहीं लेकिन कोई हसां तक नहीं। शाहजादे ने कहा कि चुनाव लड़ने के लिए मोदी ने ‘उदियोगपतियों’ से हजारों करोड़ रुपये का जो ‘कर्ज’ लिया था, उसे अब वे किसानों की जमीनें छीनकर उन्हें चुका देंगे। कितनी ऊँची अकल की बात कही, राहुलजी ने? फिर भी किसानों ने तालियाँ नहीं बजाईं। मंच पर खड़े दरबारियों ने श्रोताओं को हाथ हिला-हिलाकर तालियाँ बजाने के लिए भी कहा लेकिन वह भी बेअसक! शायद नेता जी के चीखने-चिल्लाने में ही सारी दलीलें और तालियाँ डूब गईं।