एक महान महिला थी पंजाब माता विद्यावती देवी
उगता भारत ब्यूरो
इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर ऐसे संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं. भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगत सिंह का नाम प्रमुख है. उस वीर की माता थीं श्रीमती विद्यावती कौर.सरदार अर्जुन सिंह जी के तीन पुत्र थे- किशन सिंह, अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह। किशन सिंह जी को महान क्रन्तिकारी भगत सिंह का पिता होने का गौरव प्राप्त है। इनका विवाह विद्यावती से हुआ, जिनसे 9 सन्ताने पैदा हुई।। माता विद्या वती धार्मिक स्वभाव की बहादुर स्त्री थी। उन्होंने अपने सभी बालकों में देशभक्ति और समाज सेवा के भाव उतपन्न किये।। वह पूण्य आत्मा थी।
विद्यावती जी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता. सरदार किशन सिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहां का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था.
माता विद्यावती देवी के ससुर सरदार अर्जुन सिंह कट्टर आर्य समाजी थे अपने घर में नित्य यज्ञ करते थे उन्ही से प्रेरणा लेकर माता विद्यावती ने आर्य समाज के समाज सुधार के कार्यों स्वयम को अर्पित किया ।
उनके देवर सरदार अजीत सिंह देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे. स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे; पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को सांस ऊपर खींचकर देह त्याग दी.
माता विद्यावती के समान ही उनकी देवरानी अमर क्रन्तिकारी सरदार अजीत सिंह की पत्नी हरनाम देवी ने अपना सारा जीवन देश की आजादी के लिए विदेशों में भटक रहे पति की प्रतीक्षा में व्यतीत किया। जब अजीत सिंह भरी कष्ट उठा कर विदेश से लौटे तो भाव विह्वल होकर बोले ” सरदारनी मै तुझे सुख न दे सका हो सके तो मुझे माफ़ करना।
उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्ण सिंह भी जेल की यातनाएं सहते हुए बलिदान हुये. उनके पति किशन सिंह का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था. विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगत सिंह की 11 वर्ष की आयु में सन्निपात से मृत्यु हुई. भगत सिंह 23 वर्ष की आयु में फांसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे.
इन जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चौपट हो गयी तथा घर की चौखटें तक बिक गयीं. इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया. एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गांव का जर्जर मकान भी बह गया. ईष्यालु पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी. 1939-40 में सरदार किशन सिंह जी को लकवा मार गया. उन्हें खुद चार बार सांप ने काटा; पर उच्च मनोबल की धनी माताजी हर बार घरेलू उपचार और झाड़-फूंक से ठीक हो गयीं. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार सुनकर उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया क्योंकि भगत सिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं, वरना लोग क्या कहेंगे कि भगत सिंह की मां रो रही है.
भगत सिंह पर उज्जैन के लेखक श्री श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा. नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिये माताजी जब उज्जैन आयीं, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा. उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया. सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये और छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे. पुस्तक के विमोचन के बाद ‘सरल’ जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया. माताजी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया. उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए. माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालायें और राशि भेंट की. इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये. समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये. जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई. सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगत सिंह जैसे वीर बन सकें.
1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधायें मिलीं; पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गये. उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे. माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं. वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थीं.
भगत सिंह का अपनी माता से अगाध प्रेम था। जब एक बार उनकी माता अत्यंत बीमार हुई तो वह भगत सिंह को देखने के लिए तड़पने लगी। पिता किशन सिंह ने भगत को बुलाने के लिए एक विज्ञापन निकाला ताकि उसे पढ़कर वह घर लौट आए । ऐसा ही हुआ, माँ ने भगत को गले लगा लिया और खूब बातें कर के अपना मन हल्का किया। माता भगत सिंह की शादी करना चाहती थी भगत चुप चाप घर से निकल क्रांतिकारियों से जा मिले माँ मन मसोस कर रह गई ।
माता विद्यावती जब अपने वीर पुत्र भगत सिंह से फाँसी लगने से पूर्व जेल में अंतिम भेंट करने गई तो ठहाकों के बीच भगत सिंह ने कहा , “बेबे जी मेरी लाश लेने मत आना कुलवीर नूँ भेज देना कहीं तू रो पड़ी तो लोग कहेंगे की भगत सिंह की मां रो रही है” इतना कह कर देश का यह दीवाना भगत सिंह पुनः जोर से हंसा ।
इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में 1 जून, 1975 को 96 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली. उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगत सिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिये समाप्त हो रही है ।
माता विद्यावती ने अपने जीवन काल में अपने पति, देवरों और पुत्रों को ब्रिटिश शासन की दी गई भयंकर यातनाएं सहते देखा वे आजादी के बाद भी जिन्दा रही उन्हें पंजाब माता की उपाधि से विभूषित किया गया।
समस्त भारतवर्ष इस वीर माता का ऋणी रहेगा।। माता को शत शत नमन।
वीर माता विद्यावती जी अमर रहे…
(साभार)
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माता विद्यावती जी ने अपने जीवन में अथाह दुख देखे।
आजादी के बाद ही वे एक गुमनामी से जीते रहे । सही कहा आपने गांधीवादियों को ही सारी सुविधाएं मिली भगत सिंह के परिवार और अन्य क्रांतिकारी के परिवार किसी को याद तक रही रहे।
इंकलाब ज़िंदाबाद