इस प्रदेश की विधानसभा की कुल सीटें यहां के संविधान के 20वें संविधान संशोधन (1988) के अनुसार 111 हैं। इनमें से 24 सीटें ऐसी हैं जो पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित हैं। उन्हें घटाकर 87 सीटें बचती हैं, जिन पर हमारे जम्मू कश्मीर प्रांत के निवासी अपने मताधिकार से अपने जनप्रतिनिधि चुनते हैं। यहां के अलग संविधान की इस धारा के रहते पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का अधिकार मान्य है। जिसे कश्मीर का संविधान मान्यता देता है। जम्मू कश्मीर के संविधान की इस धारा का विशेष महत्व इसलिए भी है कि यह धारा पाक को इन चौबीस सीटों के क्षेत्रों में एक अतिक्रमणकारी राष्ट्र मानती है। दूसरे, जम्मू कश्मीर की विधानसभा तब तक अधूरी और अपूर्ण है जब तक इसमें ये 24 और विधायक नही आ जाते हैं। अत: एक प्रकार से एक धारा जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को अंतिम तो सिद्घ करती ही है साथ ही भारत सरकार को यह अधिकार भी देती है, कि वह पाक अधिकृत, कश्मीर को लेने के अपने कूटनीतिक प्रयास जारी रखे।
हम भारतवासियों को जम्मू कश्मीर राज्य के संविधान की इस व्यवस्था के रहते हुए इस राज्य की विधानसभा के सदस्यों की संख्या कभी भी 87 नही कहनी चाहिए, अपितु 111 ही कहनी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि व्यवहार में अपनायी गयी बातें सिद्घांत की बातों को धूमिल कर देती हैं। यदि हम व्यवहार में जम्मू कश्मीर विधानसभा के क्षेत्रों की संख्या 87-87 कहते रहेंगे तो यह 111 की संख्या धूमिल होते-होते अनौचित्यपूर्ण हो जाएगी। जिससे कभी इस 111 सदस्यों की व्यवस्था के प्राविधान को हटाने की बातें भी हो सकती हैं। यहां के संविधान के अनुच्छेद 48 के अनुसार विधानसभा में 24 सीटें राज्य के उस भाग हेतु जो इस समय पाकिस्तान के कब्जे में हैं, के लिए खाली हैं। यहां की विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष है।
इस राज्य की कुल जनसंख्या लगभग सवा करोड़ है। जम्मू क्षेत्र का क्षेत्रफल लगभग 28 हजार वर्ग किमी. है और कश्मीर घाटी का क्षेत्रफल लगभग 14 हजार वर्ग किमी. है। दोनों की अलग अलग जनसंख्या भी लगभग समान ही है। परंतु यहां जम्मू कश्मीर विधानसभा के लिए सीटों की व्यवस्था इस प्रकार की गयी है कि जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री मुस्लिम ही बनना चाहिए। इसलिए लगभग समान जनसंख्या के रहते भी कश्मीर घाटी से 46 तो जम्मू क्षेत्र से 37 विधायक चुने जाते हैं। यह असंतुलन राज्य में ‘शासकीय साम्प्रदायिकता’ को बढ़ावा देता है। जो किसी भी लोकतांत्रिक राज्य या सभ्य समाज के लिए उचित नही कहा जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य स्वयं को किसी पंथ विशेष के साथ जोडक़र चले। पर भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यही निकाला जाता है कि अल्पसंख्यक वर्ग अपनी मान्यताओं, राष्ट्र विरोधी तथा लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों को भी चलाये तो उसे इसकी छूट होनी चाहिए। हमें सिखाया जाता है कि हम इन सब बातों को मौन रहकर देखें और झेलें। यदि किसी ने यह भी कहा कि सावधान हो जाओ, अन्यथा देश की एकता और अखण्डता के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है, तो यह भी उस कहने वाले का ही दोष माना जाएगा।
जम्मू कश्मीर का अपना संविधान 26 जनवरी 1957 से लागू हुआ था। नई पीढ़ी को जानने की आवश्यकता है कि आजादी के पश्चात जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह 20 जून 1949 तक राज्य के राज्यपाल रहे थे। उन्हें पं. जवाहरलाल नेहरू तथा राज्य के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने राज्य से हटाने का षडयंत्र रचा और उन्हीं के बेटे युवराज कर्ण को उनका विरोधी बनाकर राज्य के राज्यपाल का दायित्व उसे सौंप दिया। युवराज कर्णसिंह ने पिता के विरूद्घ जाकर 20 जून 1949 से 17 नवंबर 1952 तक राज्य के राज्यपाल का तथा 17 नवंबर 1952 से 30 मार्च 1965 तक सदर-ए-रियासत का दायित्व संभाला। इसके पश्चात 30 मार्च 1965 से जब राज्य में पुन: राज्यपाल नियुक्त करने की व्यवस्था लागू हुई तो तब भी राज्य का पहला राज्यपाल डा. कर्णसिंह को ही बनाया गया और वह 30 मार्च 1965 से 15 मार्च 1967 तक इस पद पर रहे।
यहां की सवा करोड़ की आबादी दिल्ली जैसे छोटे से राज्य की आबादी से भी कम है। लेकिन इसी आबादी की सुख सुविधाओं के लिए देश के खजाने से अब तक अरबों डॉलर खर्च किया जा चुका है। दिल्ली से पैकेज पर पैकेज कश्मीर को दिये जाते हैं, परंतु वहां की सरकार की दोरंगी नीतियों के कारण इस दी गयी धनराशि में पाकिस्तान से आये हिंदुओं का कोई अंश नही होता। इतना ही नही जम्मू क्षेत्र में भी जम्मू कश्मीर की सरकारें दोहरे मानदण्ड अपनाकर धनराशि व्यय करती हैं। यदि अब तक प्रत्येक पंचवर्षीय योजनाओं में भारत सरकार द्वारा कश्मीर को दी गयी सहायता का अनुमान लगाया जाए तो प्रत्येक कश्मीरी करोड़ों की संपत्ति का स्वामी हो सकता था, परंतु ऐसा हो नही पाया। इसका कारण है कि जो सहायता भारत सरकार की ओर से जम्मू कश्मीर को दी जाती है उसका अधिकांश हिस्सा नेताओं, सरकारी अधिकारियों और आतंकवादियों की लूट में चला जाता है। यहां की सरकारें इस ‘मुफ्त के माल’ की लूट के लिए बनती हैं, और बहुत सीमा तक यह भी सच है कि कश्मीर घाटी में आतंकवादी घटनाओं के कारण भी राजनीति न होकर इस ‘मुफ्त के माल’ को लूटने के लिए अपने आपको बड़े से बड़ा आतंकवादी सिद्घ करने की होड़ भी है। ताकि सरकारें तुष्टिकरण का टुकड़ा डालने के लिए बाध्य हो जाएं और ‘मुफ्त के माल’ में ऐसे आतंकवादियों का हिस्सा तय कर दें। देश की केन्द्र सरकारों को सब पता रहता है कि कश्मीर को दी गयी धनराशि का अर्थ क्या है और उसका उपयोग कहां और कैसे होने वाला है? पर सब चुप रहते हैं। किसी ने आज तक यह नही पूछा कि केन्द्र से कितनी बड़ी धनराशि अब तक दे दी गयी है और उसका प्रयोग कहां किया गया है, या उससे लोगों के जीवन स्तर में कितना सुधार हो पाया है?
बात कुछ ऐसी हो रही है कि ‘अंधी पीस रही है और सयाने खा रहे हैं,’ अंधी कितना पीस चुकी है उसे तो यह पता नही है और सयाने कितना खा चुके हैं, उन्हें यह पता नही। जिन राष्ट्रभक्तों के लिए पैसा जाता है, या जिस गरीब व्यक्ति के लिए धन दिया जाता है, क्या कारण है कि उसका जीवन स्तर सुधारने में जम्मू कश्मीर की सरकारें अभी तक कोई सुधार नही कर पायी हैं? सवा करोड़ लोगों को अरबों डॉलर व्यय करके भी यदि हम विकास की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा करने में असफल रहे हैं, तो मानना पड़ेगा कि व्यवस्था में भारी छेद है। यह भी विचारणीय है कि ये लोग इतना कुछ पाने के बावजूद भारत के विरोध में नारे क्यों लगाते हैं? कश्मीरी ब्राह्मणों के पुनर्वास पर हो रहे आंदोलन को इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू कश्मीर राज्य में प्रति वर्ग किमी. में 124 व्यक्ति ही रहते हैं। यहां प्रति एक हजार पुरूषों पर 883 महिलाएं आती हैं। यहां की साक्षरता दर 68.14 प्रतिशत है। जबकि उत्तर प्रदेश में से काटकर अलग बनाये गये उत्तराखण्ड में प्रति एक किमी. में 189 व्यक्ति रहते हैं, पर यहां की साक्षरता 79.52 प्रतिशत है। यहां एक करोड़ दो लाख के लगभग आबादी निवास करती है। यहां का लिंगानुपात जम्मू कश्मीर की तुलना में एक हजार पुरूषों पर 883 महिलाओं की अपेक्षा एक हजार पुरूषों पर 963 महिलाओं का है।
सारा देश जानता है कि हम उत्तराखण्ड जैसे नवजात राज्य को कश्मीर की तुलना में कितना धन देते हैं? परंतु इसके उपरांत भी यहां की स्थिति जम्मू कश्मीर की अपेक्षा काफी अच्छी है। पर यदि उत्तराखण्ड अपनी स्थिति को जम्मू कश्मीर की तुलना में उन्नत बनाये हुए है तो यह तथ्य भी तो स्पष्ट हो जाता है कि जम्मू कश्मीर को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का कितना दुरूपयोग होता रहा है?
अब केन्द्र में ‘नमो सरकार’ है। प्रधानमंत्री से हमें अपेक्षा है कि कश्मीर की इस अंधी लूट को रोकें और वहां के लिए आर्थिक सहायता देने के लिए एक ऐसा बोर्ड गठित किया जाए, जिसकी निगरानी में सहायता धनराशि वास्तविक पात्र व्यक्ति तक पहुंचे, इस धनराशि में प्रथम वरीयता उन लोगों को दी जाए जो 1947 में या उसके बाद पाकिस्तान से आये और आज तक अपने मौलिक अधिकारों से उन्हें वंचित रखकर स्वतंत्र भारत में गुलाम बनाकर रखा जा रहा है। आशा है मोदी जी, देश की पुकार को सुनेंगे।