शरीर की अनित्यता
माधव बोले- पार्थ ! बिना लड़े शत्रु को क्यों गर्वित करता है ?
तू धर्म धुरीण धनुर्धर होकर क्यों धर्म – ध्वजा झुकने देता है ?
मां का पावन पयपान किया है -उसे ना अपयश का पात्र बना,
हे अर्जुन ! कायर बनकर शत्रु को तू क्यों उत्साहित करता है ?
जितने भर भी देह तुझे यहाँ समरांगण में खड़े दिखाई देते हैं,
मुझे खड़े नहीं अर्जुन ! ये सारे बीच समर में पड़े दिखाई देते हैं।
जो शत्रु बन तेरे विरुद्ध खड़ा हुआ, उसे तू भी अपना शत्रु मान,
युद्ध क्षेत्र में शत्रु का वध करने वालों को देव भी बधाई देते हैं।।
यह शरीर नित्य नहीं हो सकता, समय आने पर मिट जाता है,
है नश्वरता धर्म इसी का, श्रेष्ठ ज्ञानी ही इसको समझ पाता है।
संबंधों का संयोग हँसाता मानव को , वियोग सदा रुलाता है,
वही मानव विवेकी होता है – जो स्वयं को द्वंद्वातीत बनाता है।।
देह के असत् होने के कारण ,तू क्यों इसका अभिमान करें,
कुछ ही दिनों का होता यौवन मूर्खजन जिस पर अभिमान करें।
ढलती फिरती छाया अर्जुन ! यह देह भी धोखा देने वाली है,
ज्ञानी -ध्यानी विवेक पुरुष समय रहते भगवत ध्यान करें।।
जीवात्मा होती है अविनाशी और जन्म मरण से रहती दूर सदा,
अचिंत्य स्वरूप होता है इसका – वेदों ने ऐसा बारंबार कहा।
अविनाशी का कभी नाश ना होता – उस पर क्यों तू शोक करे ?
जितना भर शत्रु तेरे समक्ष खड़ा सचमुच में तो यह नहीं खड़ा ।।
वीरों की भांति डट समर क्षेत्र में, मत भगने का तू भाव जगा ,
जो ना मरता – ना मारा जा सकता, उसमें तू अपना भाव लगा।अर्जुन ! बरसीम की खेती की भांति हुआ करता नर समूह सदा,
जो आगे से कटता दिख रहा , वही पीछे फूटता आया करता ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत