डॉ. किरण शर्मा
धर्म के व्यवस्थापकों तथा आचार्यों के निवास के लिऐ मठों का निर्माण किये जाने की परम्परा प्राचीन है। इस प्रकार के मठ जन-कोलाहल से दूर निर्जन तथा एकान्त स्थानों पर बनाये जाते थे। सम्भवत: मठों की कल्पना बौद्ध धर्म की देन है। बौद्ध भिक्षुओं के भिक्षाटन को रोकने के लिऐ बौद्ध मठों व विहारों का निर्माण किया गया और इन संस्थाओं को दान देने की परम्परा प्रारम्भ की गयी। यह परम्परा ही कालान्तर में मठ के रूप में विकसित हुई प्रतीत होती है। समय के साथ-साथ बौद्ध मत में महासुख की कल्पना का प्रवेश हुआ। यह कल्पना शक्ति मत से बहुत अधिक साम्य रखती है। कालान्तर में शाक्त तथा बौद्ध मतों में भेद समाप्त होता गया तथा शिव-शक्ति के मिलन की कल्पना व्यापकता पा गयी। भिक्षुगण आध्यात्मिक तथा शैक्षिण विषयों को छोडक़र तंत्र तथा महासुख की कल्पना में लीन हो गये।
प्रमुख भिक्षुगण दान दी गई सम्पत्ति को अपने अधिकार में लेने का हरसम्भव प्रयास करने लगे। कालान्तर में व्यक्तिगत पद का लाभ उठाकर ये भिक्षुगण समस्त सम्पत्ति को अपने आधिपत्य में कर उस संस्था (मठ) के स्वामी बन बैठे। प्रधान अधिकारी मठाधीश के रूप में कार्य करने लगे। बौद्ध, शैव तथा शाक्त मत इस प्रकार मिश्रित धर्म बन गये थे और उनमें स्थूल विभेद करना ही कठिन हो गया था। शैव साधु तथा मंत्रयानी भिक्षुओं में कोई अन्तर नहीं रहा। बौद्ध परम्परा में शनै:शनै: प्रवेश हुई बुराईयाँ कुछ समय पश्चात् जीवित रही। ऐसा लगता है कि उसका अस्तित्व शैवमत में विलीन हो गया। वर्तमान समय में मठाधीश शैव मतानुयायी माने जाते हैं।
मालवा में शैव मठ परम्परा की प्राचीनता के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर भी प्राप्त सन्दर्भो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मालवा में शैव मठों की परम्परा, प्राचीन समय से ही विद्यमान रही हैं।
पंचतंत्र में उल्लेखित एक कथा के अनुसार उज्जयिनी के बाहर एक मठ था। वर्तमान में हमें इस मठ से संबंधित कोई पुरावशेष प्राप्त नहीं होते हैं, लेकिन पंचतंत्र की प्रामाणिकता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कथा-सरित्सागर में उल्लेखित एक कथा के अनुसार,आदित्य सेन नामक राजा जब एक विद्रोही सामन्त पर आक्रमण करने उज्जयिनी के मार्ग से निकला, तब उज्जयिनी के बाहर एक ब्राह्मण के गुप्त मठ में ही उसने रात को विश्राम किया था। इस गाथा में ऐतिहासिकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज उज्जैन में प्राचीन मठों के अस्तित्व के कोई भी पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं। फिर भी हम यह सुविधापूर्वक कह सकते हंै कि मालवा में गुप्त औलिकर काल में निश्चित ही शैव मठ निर्मित होने लगे थे।
अभिलेखों में भी शैव मठों का उल्लेख मिलता है। इन मठों में शैव योगी तथा आचार्य निवास करते थे। आज भी यह परम्परा विद्यमान है। इन मठों के लिऐ राजाओं से दान प्राप्त हुआ करते थे। संन्यासियों की सुविधा हेतु मठों के निकट तालाब तथा उद्यान भी निर्मित किये जाते थे। कलचुरि शासक रत्नदेव तृतीय के मंत्री ने 1181 ई. में एक शैव मठ का निर्माण करवाया था। सोमेश्वर ने उदयपुर अभिलेख में कापालिकों के निवास के लिये शैव मठ के निर्माण का उल्लेख आया है। इन शैव मठों में रह कर शैव योगी साधना किया करते थे। मान्धाता का अमरेश्वर मंदिर, प्रस्तर-खण्ड अभिलेख सोमेश्वरदेव मठ का उल्लेख करता है।
7वीं शताब्दी में जब जगद्गुरु शंकराचार्य अपने दिग्विजय अभियान पर निकले थे तो उज्जैन भी आये थे। उस समय उज्जैन में शैव मठ अस्तित्व में थे। एक शैवाचार्य उन्मत भैरवानन्द उनसे विवाद करने के लिये भी उपस्थित हुआ था। शंकराचार्य ने अन्य सम्प्रदायों के साथ-साथ उज्जैन के कापालिकों और पाशुपतों से भी शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी।
उज्जैन में दत्त अखाड़ा अभी भी विद्यमान है। यह भैरव या जूना अखाड़ा कहलाता है। यद्यपि मराठाकाल में इस अखाड़े का पूरी तरह पुन: निर्माण कर दिया गया है फिर भी यहाँ ऐसी अनुश्रुति है कि इस अखाड़े की स्थापना शंकराचार्य द्वारा की गई थी। इस अखाड़े के प्रागंण में एक छोटे से देवालय में स्फटिक प्रस्तर के दो अति लघु शिवलिंग अभी भी विद्यमान है। इन शिवलिंगों के विषय में यह मान्यता है कि ये शंकराचार्य द्वारा स्थापित किये गये थे। इस देवालय के सामने पूर्व में शिप्रा नदी प्रवाहित है। इस नदी पर इस ओर जो घाट है, वह भी हरि-हर घाट कहलाता है।
आचार्य शंकर द्वारा स्थापित किये जाने संबंधी इस मठ की अनुश्रुति को एकदम अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आचार्य शंकर द्वारा अन्यत्र मठ स्थापित किये गये थे। दक्षिण में श्रृंगेरी मठ, पूर्व में गोवर्धन मठ, उत्तर में जोशी मठ तथा पश्चिम में शारदा मठ। इन मठों के अतिरिक्त काँची काम-कोटि मठ भी स्वयं को शंकराचार्य द्वारा स्थापित किये जाने का दावा प्रस्तुत करता है।
विदिशा के ग्यारसुर में दक्षिण-पश्चिम में स्थित मंदिर वाजिया मठ(वज्र मठ) के नाम से जाना जाता हैं। इस मंदिर में शिव, विष्णु तथा सूर्य की प्रतिमाएँ स्थापित थी। वर्तमान समय में यहाँ जैन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। ऐसा मानना अन्यथा नहीं है कि प्राचीन समय में यह शैव मठ रहा होगा।
गुना क्षेत्र के कदवाहा ग्राम के 1 मील उत्तर-पश्चिम में एक 10वीं-11वीं सदी का शिव मंदिर स्थानीय जनता में चाण्डाल मठ के नाम से जाना जाता है। कदवाहा में ही गढ़ी क्षेत्र के निकट लगभग 10वीं शताब्दी ई. का एक दो मंजिला शैव मठ बना हुआ है। यह मठ मतमयूर सम्प्रदाय के शैवाचार्यों के लिए बनवाया गया था। इस स्थल से प्राप्त अभिलेख में शैवाचार्यो की वंशावली दी गयी है।
गुना क्षेत्र के ही रणोद नाम स्थान पर लगभग 10-11वीं शताब्दी का एक शैव मठ निर्मित है। यह मठ स्थानीय जनता में खोखई नाम से जाना जाता है। प्रस्तरों द्वारा निर्मित इस दो-मंजिलें शैव मठ से प्राप्त लेख से ज्ञात होता है कि इस मठ का निर्माण मत्तमयूर सम्प्रदाय के व्योमकेश शैवाचार्य द्वारा किया गया था।
परमार कालीन मालवा में अनेक शैव सम्प्रदाय विकसित हो गये थे। इन शैव सम्प्रदायों के शैवाचार्यो के लिये शैव मठों का निर्माण होना स्वाभाविक ही था। उज्जयिनी का चण्डिकाश्रम मठ इस परम्परा का एक ज्वलंत प्रमाण है। इस मठ में शैव मत के ग्रंथों को सुरक्षित रखा जाता था तथा उन पर सत्संग किया जाता था। इस मठ के प्रमुख मठाधीशों के नाम तापस, वाकलवासी, ज्येष्ठजराशि, योगेश्वरराशि, मौनिराशि, योगेश्वरीराशि, दुर्वासराशि केदारराशि आदि थे। योगेश्वरी नाम से यह प्रतीत होता है कि सम्भवत: स्त्रियाँ भी मठाधीश बन सकती थीं। भाव-बृहस्पति नामक एक शैवाचार्य ने भी एक पीठाचार्य की ख्याति अर्जित की थी।
शिप्रा पर शैव तीर्थ
तीर्थों का धार्मिक क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। धर्म से अनुप्राणित इस भारत-भूमि का हृदय-स्थल मालवा तीर्थों का नगर कहलाता है। मालवा का अंचल दो-दो ज्योतिर्लिंगों से सुशोभित है। एक ज्योतिर्लिंग शिप्रा के किनारे महाकाल के नाम से प्रसिद्ध है, तो दूसरा ज्योतिर्लिंग नर्मदा के किनारे औंकारेश्वर के नाम से जाना जाता हैं। महाकाल की नगरी अवन्तिका का तथा ओंकारेश्वर का प्राचीन समय से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। दोनों ही तीर्थस्थल अनेक शैवतीर्थों को अपनी गोद में समेटे हुए हैं।
वर्तमान समय में इन शैव तीर्थों के साहित्यिक सन्दर्भ अधिक तथा पुरातात्विक प्रमाण अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं।
स्कन्द पुराण का अवन्ति-खण्ड निम्नलिखित शैव तीर्थों का वर्णन करता है:-
(1) महाकाल या कोटितीर्थ (अध्याय-7), (2) कलिमलनाशक तीर्थ (अध्याय 9), (3) अप्सरा कुण्ड तीर्थ (अध्याय 10), (4) कुटुम्बेश्वर तीर्थ (अध्याय 11), (5) गन्धर्व तीर्थ (अध्याय 12), (6) मर्कटेश्वर तीर्थ (अध्याय 13), (7) महिषकुण्ड तीर्थ (अध्याय 13), (8) स्वर्ग द्वार तीर्थ (अध्याय 14), (9) दशाश्वमेध तीर्थ (अध्याय 18), (10) पिशाचमोचन तीर्थ (अध्याय 22), (11) हनुमत्केश्वर तीर्थ (अध्याय 23), (12) यमेश्वर तीर्थ (अध्याय 25), (13) वाल्मीकेश्वर तीर्थ (अध्याय 27-28), (14) शुक्रकेश्वर तीर्थ (अध्याय 27-28), (15) गंगेश्वर तीर्थ (अध्याय 27-28), (16) कामेश्वर तीर्थ (अध्याय 27-28), (17) चण्डेश्वर तीर्थ (अध्याय 27-28), (18) अंकपातन तीर्थ ( अध्याय 33 ), (19) चन्द्रादित्य तीर्थ (अध्याय 34), (20) करभेश्वर तीर्थ (अध्याय 35), (21) कुसुमेश्वर (अध्याय 37), (22) सोमेश्वर तीर्थ (अध्याय 38), (23) नरकेश्वर तीर्थ (अध्याय 39), (24) केदारेश्वर तीर्थ (अध्याय 41), (25) सौभाग्येश्वर तीर्थ (अध्याय 42), (26) गोपेन्द्र तीर्थ (अध्याय 42), (27) भक्तिभेद तीर्थ (अध्याय 45), (28) अभयेश्वर तीर्थ (अध्याय 48), (29) कलकलेश्वर तीर्थ (अध्याय 48), (30) अंगारेश्वर तीर्थ (अध्याय 48), (31) अगस्त्येश्वर तीर्थ (अध्याय 49), (32) अमरावती तीर्थ (अध्याय 56), (33) गया तीर्थ (अध्याय 58), (34) गोमती कुण्ड तीर्थ (अध्याय 73), (35) वामन तीर्थ (अध्याय 74), (36) वामनकुण्ड या ब्रह्मतीर्थ (अध्याय 74), (37) वीरेश्वर तीर्थ (अध्याय 77), (38) नाग तीर्थ (अध्याय 75), (39) भैरव तीर्थ (अध्याय 75), (40) कुटुम्बेश्वर तीर्थ (अध्याय 77), (41) नृसिंह तीर्थ (अध्याय 77), (42) खण्डेश्वर तीर्थ (अध्याय 78), (43) कर्कराज तीर्थ (अध्याय 81), (44) देव तीर्थ (अध्याय 82), (45) घृतकुल्या तीर्थ (अध्याय 83), (46) मधुकुल्या तीर्थ (अध्याय 83), (47) अवन्ति तीर्थ (अध्याय 83), (48) ऋणमुक्तेश्वर तीर्थ (अध्याय 83), (49) गंगा तीर्थ (अध्याय 83), (50) अकू्ररेश्वर तीर्थ (अध्याय 31), (51) शंकराचार्य तीर्थ (अध्याय 33), (52) चन्द्रादित्य तीर्थ (अध्याय 34), एवं (53) योग तीर्थ (अध्याय 83)।
उपरोक्त तीर्थों के अतिरिक्त अवन्ति खण्ड जिन अन्य तीर्थों का भी उल्लेख करता है, ये निम्नलिखित हैं – (1) जयशंकर तीर्थ, (2) उत्तरमानस तीर्थ, (3) सनातन तीर्थ (4) कायावरोहण तीर्थ (5) सहस्त्रकोटि (6) विजय तीर्थ, (7) लुम्पेश्वर तीर्थ, (8) मल्लिकार्जुन तीर्थ आदि।