कश्मीरी आतंकवाद : अध्याय 10,( 1 ) अंधकार के गर्त में डूबा रहा कश्मीर
कश्मीर में चाहे जिन कारणों से भी ऐसा रहा हो, लेकिन मुगल काल में प्रशासन के उच्च पदों पर कई हिंदू नियुक्त किए जा चुके थे। मुगल काल में इन नियुक्तियों तक पहुंचने में सफल हुए हिंदुओं से ईर्ष्या और घृणा करने वाले मुसलमानों के एक वर्ग की संख्या में बड़ी तेजी से वृद्धि होती जा रही थी। उन्हें किसी भी कीमत पर उच्च पदों पर हिंदू अधिकारियों का नियुक्त होना स्वीकार नहीं था। इन लोगों की सोच थी कि जैसे भी हो हिंदू का उत्पीड़न होते रहना चाहिए और ‘हिंदू मुक्त कश्मीर’ बनाने में बाधक बने लोगों को समाप्त किया जाना चाहिए।
एक पक्के मुसलमान का दृष्टिकोण
वास्तव में ‘हिंदू मुक्त कश्मीर’ का सपना इस्लाम को मानने वाले लोगों के लिए कोई नई बात नहीं थी। उन्हें अपनी धार्मिक पुस्तक के माध्यम से ही ऐसी शिक्षा प्राप्त होती है कि गैर मुस्लिम लोगों का शासन समाप्त हो और उसके साथ-साथ उनके धर्म का भी विनाश हो। संसार में कहीं पर भी ‘काफिर’ नाम की चीज ना रह जाए। सर्वत्र इस्लाम का परचम लहराए और सारी धरती इस्लाम के रंग में रंग जाए। जीवन के इस पवित्र उद्देश्य को प्राप्त करने वाले मुसलमान को ही पक्का मुसलमान माना जाता है । हर पक्के मुसलमान को यह लालच भी दिया जाता है कि यदि वह ऐसा करने में सफल हुआ या इस कार्य को करने में उसने किसी भी प्रकार का सहयोग दिया तो खुदा उसे मरने के बाद भी जन्नत में भेजेगा। वहां पर उसे 72 – 72 हूरें मिलेंगी। स्वर्ग के इस लालच के वशीभूत होकर अनेक मुसलमानों ने अपने – अपने शासनकाल में हिंदुओं या गैर मुस्लिमों पर अनगिनत अत्याचार किए हैं। जिनसे भारत सहित विश्व का इतिहास भरा पड़ा है।
यहां पर हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि कश्मीर हो चाहे शेष भारत भूमि हो ,विदेशी मुसलमानों ने इससे कभी भी प्रेम नहीं किया। उन्होंने इसे जमीन का एक टुकड़ा मात्र समझा है। इसके प्रति उनका आत्मिक लगाव कभी भी नहीं बन पाया। यही कारण है कि जहाँ कुरान को पुस्तकों की माता और मक्का को शहरों की माता कहकर सम्मान देने वाला मुसलमान उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करता देखा जाता है , वहीं वह भारत भूमि को ‘माता’ इसलिए नहीं मानता कि यह एक निर्जीव चीज है।जबकि पुस्तक और शहर भी अपने आप में एक निर्जीव चीज ही हैं। वास्तव में मुसलमान की इस मानसिकता के पीछे कारण केवल एक है कि वह अपनी पुस्तक की मान्यताओं को ही प्राथमिकता देता है, दूसरे की मान्यताओं को वह कभी स्वीकार नहीं करता।
भारत माता से प्रेम न करने के अपने मौलिक कुसंस्कार के कारण मुसलमान शासकों ने प्रारंभ से ही भारत भूमि को रौंदने और यहां के रहने वालों पर भांति – भांति के अत्याचार करने को अपना ‘धर्म’ मान लिया। जब कभी उन्होंने देखा कि प्रशासन में उच्च पदों पर हिंदू नियुक्त कर दिए गए हैं तो उन्होंने ‘दबाव गुट’ बनाकर ऐसे हिंदुओं का विरोध किया जो उच्च पदों पर किन्ही कारणों से नियुक्त कर दिए गए थे। इसके लिए उन्हें चाहे जो कुछ करना पड़ा, उसे उन्होंने निसंकोच किया।
अहमदशाह अब्दाली को दिया गया निमन्त्रण
अब जबकि मुगल काल में कई हिंदू उच्च पदों पर नियुक्त कर दिए गए थे तो उनका विरोध करने के लिए भी मुसलमानों का एक शक्तिशाली गुट बना। भारत माता से उनका कोई विशेष लगाव नहीं था और ना ही भारत के धर्म या वैदिक मूल्यों से उनका कोई लेना-देना था। उन्हें केवल हिंदू दमन करना था और इसके लिए वे जिस सीमा तक भी जा सकते थे, उस तक जाने के लिए सदा तैयार रहते थे । अपनी इसी प्रकार की सोच के वशीभूत होकर उस समय के मुसलमानों ने अहमदशाह अब्दाली जैसे विदेशी क्रूर आक्रमणकारी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। इस आमंत्रित आक्रमणकारी में भारत के मुसलमान एक गुण देख रहे थे कि वह अंततः उनका अपना बिरादरी भाई था। डॉक्टर अंबेडकर साहब ने ऐसे ही नहीं कहा कि मुसलमानों का भ्रातृत्व भाव संसार के सभी लोगों के लिए ना होकर केवल अपने बिरादरी भाइयों तक सीमित है।
स्पष्ट है कि अहमदशाह अब्दाली यदि भारत पर आक्रमण करता तो उसके अत्याचारों का सबसे अधिक शिकार हिंदू ही बनने वाले थे । मुसलमानों को वह अपना भाई मानकर क्षमा कर देने वाला था। 1752 ई0 में कश्मीर पर अफगान शासक अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गए थे । उनके इस प्रकार कश्मीर पर अधिकार कर लेने के उपरांत हिंदुओं के दलन और दमन की प्रक्रिया बहुत ही तेज हो गई थी। यहां पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी मुस्लिम शासक को शासक तभी माना जाना चाहिए जब वह अपनी प्रजा पर बिना किसी भेदभाव के न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाकर शासन करता हुआ पाया जाए। यदि वह मुस्लिमों की गैर मुस्लिमों को मिटाने की सोच से ग्रसित है और इसी के वशीभूत होकर गैर मुस्लिमों पर अत्याचार करता है तो उसे शासक के रूप में एक भेड़िया, राक्षस या गिद्ध ही माना जाना चाहिए। क्योंकि राजा का पक्षपाती होना उसे राजा नहीं, इसी प्रकार के कुपात्रों में सम्मिलित करता है।
अहमदशाह अब्दाली के सूबेदारों के अत्याचार
अहमदशाह अब्दाली के द्वारा नियुक्त किए गए सूबेदार अब्दुल्लाह खान इश्क अब्बासी ने अपने सहायक अधिकारियों के साथ मिलकर हिंदुओं से धन वसूलना आरंभ किया। इसके लिए उसने बड़ी कठोरता से काम करना आरंभ किया। बहुत से हिंदुओं की जमीनों को कुर्क कर उसे धनवान मुस्लिमों को बेच दिया गया। जिससे इस सूबेदार ने एक वर्ष में ही बहुत बड़ी धनराशि एकत्र कर ली। लूटे गए हिंदुओं के घरों को जला दिया जाता था और उनकी महिलाओं को सूबेदार के हरम में पहुंचा दिया जाता था। बहुत-सी महिलाओं ने इस प्रकार के अत्याचारों से बचने के लिए वैसे ही आत्महत्या कर ली थी जैसे वर्तमान कश्मीर में 1989 -1990 ई0 के पश्चात कई महिलाओं ने विष खाकर अपना जीवन समाप्त कर लिया था।
अब्दुल्ला खान लूटमार करके एक वर्ष पश्चात अफगानिस्तान चला गया। अफगानिस्तान जाने से पहले वह कश्मीर का शासन अब्दुल्ला खान काबुली को सौंप गया था। इस राक्षस काबुली को अब्दाली की सेना के अधिकारी रहे अब्दुल हसन और सुखजीवन मल्ला ने मार दिया था। इसके पश्चात राजा सुखजीवन मल्ला ने कश्मीर की सत्ता संभाली। इस हिंदू शासक ने जितनी देर भी शासन किया उतनी देर उसके राज्य में मुस्लिम और हिंदू दोनों ही प्रसन्न रहे। उसने पक्षपात शून्य होकर न्यायिक दृष्टिकोण अपनाकर शासन किया। जिससे सभी प्रजाजन तो प्रसन्न थे पर मुस्लिम अधिकारियों को उसका इस प्रकार लोकप्रिय होना रुचिकर नहीं लग रहा था। उसका यह शासन अल्पकालीन ही रहा। क्योंकि मुसलमान अधिकारियों ने इस लोकप्रिय शासक को उखाड़ने के षड़यन्त्रों पर काम करना आरंभ कर दिया था। वह एक पल भी नहीं चाहते थे कि यह शासक कश्मीर पर शासन कर उनके पूर्वजों की ‘कमाई’ या उपलब्धियों को समाप्त करे। बड़ी कठिनता से जिस स्थिति को इन मुस्लिम लोगों ने कश्मीर में प्राप्त किया था, उसे फिर एक काफिर के हाथों जाते देखकर उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड़ चुकी थी। फलस्वरूप इन मुस्लिम प्रभावशाली लोगों ने उसके विरुद्ध बगावत करनी आरंभ कर दी थी।
अहमदशाह अब्दाली को फिर दिया गया निमंत्रण
अहमदशाह अब्दाली ने अपने एक आक्रमण के माध्यम से इस हिंदू राजा को उखाड़ने का प्रयास किया। राजा ने अपने शौर्य और पराक्रम से अहमदशाह अब्दाली को पराजय की धूल चटा दी। अहमदशाह अब्दाली जिस अपेक्षा और अहंकार के वशीभूत होकर इस हिंदू राजा का विनाश करने के लिए आया था, उसमें उसे निराशा हाथ लगी। फलस्वरूप इस हिंदू राजा के पराक्रम का शिकार बनकर अपमानित होकर लौट जाने के लिए उसे विवश होना पड़ गया।
अहमद शाह अब्दाली निराश और हताश होकर चाहे कश्मीर से चला गया था, परंतु एक ‘काफिर’ के हाथों मिली पराजय उसे बेचैन किए रही। इधर कश्मीर के मुस्लिम प्रभावशाली लोग भी यह नहीं चाहते थे कि कश्मीर का एक ‘हिंदू राजा’ उनके बलशाली सुल्तान अहमदशाह अब्दाली को परास्त करके भेज दे। इन मुस्लिमों की दृष्टि में कश्मीर का यह हिंदू राजा ‘काफिर’ होने के कारण विदेशी जैसा था और विदेशी अहमदशाह अब्दाली उनके लिए ‘अपना’ था। यही कारण रहा कि उन्होंने अहमदशाह अब्दाली को एक बार फिर कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
अहमदशाह अब्दाली ने कश्मीर के मुस्लिमों के आमंत्रण पर दूसरी बार और भी अधिक वेग से कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनापति नूरुद्दीन को भेजा। इस बार अहमदशाह अब्दाली को अपनी पुरानी हार का प्रतिशोध लेने का पूरा ध्यान था। यही कारण था कि इस बार के उसके आक्रमण में क्रोध मिश्रित प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।
हिंदू योद्धा के साथ हुई गद्दारी
हमारे देशभक्त हिंदू योद्धाओं ने विदेशी राक्षस आक्रमणकारियों का सामना हर बार बड़ी वीरता और साहस के साथ किया है । हमारे इन हिंदू वीर योद्धाओं के बारे में यह कथन सत्य है, वहीं उनके उनके साथ एक यह अभिशाप भी लगा रहा है कि युद्ध के अवसर पर कितनी ही बार उन्हें अपने ही गद्दार साथियों की गद्दारियों का सामना करना पड़ा। जिससे युद्ध में उन्हें अनचाही पराजय का सामना करना पड़ा। सचमुच भारत में यदि यह गद्दार ना होते तो हमारा इतिहास कुछ दूसरा ही होता।
सुखजीवन मल्ला ने अपने वीर देशभक्त साथियों के साथ मिलकर अहमदशाह अब्दाली की विशाल सेना का वीरतापूर्वक सामना किया । इतिहासकारों का कहना है कि इस बार सुखजीवन मल्ला के साथ उसके अपने ही साथी बखतमल्ल ने धोखा किया । वह युद्ध के मैदान में नूरुद्दीन के साथ जा मिला। राजा सुखजीवन बहुत वीरता के साथ विदेशी राक्षसों से युद्ध करते हुए अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते रहे ।
बखतमल्ल नाम के उस गद्दार ने सुखजीवन मल्ला को युद्ध के मैदान में चारों ओर से अपने सैनिकों की सहायता से घेर लिया। भारत माता से गद्दारी करते हुए इस गद्दार राक्षस ने ही देशभक्त और वीर राजा सुखजीवन को गिरफ्तार करके स्वयं अब्दाली को जा सौंपा। अपने ही लोगों के साथ इस प्रकार का क
कृतघ्नतापूर्ण आचरण करते हुए उस नीच-पापी बखतमल्ल को तनिक भी लज्जा नहीं आई। उसने निर्लज्जता की सभी सीमाओं को लांघते हुए यह पाप किया। इस जैसे नीच पापियों के कारण भी हमारे कश्मीरी पंडितों को दीर्घकाल तक मुस्लिम अत्याचारों का सामना करना पड़ा है।
कश्मीर में अत्याचारों का चल गया नया दौर
सुखजीवन मल्ला की इस पीड़ादायक पराजय के पश्चात कश्मीर में हिंदुओं के संहार का एक पीड़ादायक दौर फिर से आरंभ हो गया। सर्वत्र हिंदू के दलन और दमन का चक्र चलना आरंभ हो गया। क्रूरता और निर्दयता के ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए गए कि हिंदू सर्वत्र ‘त्राहिमाम – त्राहिमाम’ कर उठा। अब दूर दूर तक भी कश्मीरी पंडितों के बचाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता था। उन पर एक से बढ़कर एक नई विपत्ति आ – आकर पड़ रही थी। यद्यपि वैदिक धर्म के प्रति उनकी निष्ठा और ईश्वर के प्रति आस्था के विश्वास ने उन्हें इन अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी जीवित बने रहने के लिए प्रेरित किया। यह अलग बात है कि निर्ममता और क्रूरता के इस दमनकारी दौर में हमारे कितने ही हिंदू भाई भय के कारण मुस्लिम मजहब में चले गए। भय और आतंक के इस वातावरण को और भी अधिक गहरा बनाने के लिए सारे कश्मीर पर अफगानों का शासन हो गया।
अफगान सरदार लाल मोहम्मद खान 1766 ईस्वी में कश्मीर का सूबेदार बना। उसे यह भली प्रकार ज्ञात था कि कश्मीर के स्थानीय मुसलमानों का सहयोग तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार किए जाएंगे। उसने कश्मीरी पंडितों के साथ मिलकर हिंदुओं के विरुद्ध पीड़ादायक अत्याचारों का क्रम जारी कर दिया। अपेक्षा के अनुरूप कश्मीर के मुसलमानों ने उसे अपना सहयोग देना आरंभ कर दिया। वास्तव में कई बार मुस्लिम अधिकारियों, सूबेदारों, नवाबों और बादशाहों के द्वारा हिंदुओं पर इसलिए भी अत्याचार किए गए कि इसमें उन्हें अपनी मुस्लिम आवाम का बड़ा समर्थन प्राप्त हो जाता था।
हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि मुस्लिम राजनीति को खूनी बनाने में केवल इस्लाम को मानने वाले सरदारों, नवाबों या बादशाहों का ही चिंतन काम करता था। हमें समझना चाहिए कि स्थानीय आवाम भी उन्हें हिंदुओं पर अत्याचार करने के लिए प्रेरित करती थी । इस बात को हमें आज के पाकिस्तान के संदर्भ में भी समझना चाहिए कि वहां के नेता ही भारत विरोध की बात नहीं करते हैं, बल्कि वहां की जनता भी भारत विरोध की मानसिकता से ग्रसित है। इस बात की पुष्टि के लिए हम यह कहना चाहेंगे कि पाकिस्तान के जितने हिंदू 1947 के बाद समाप्त किए गए हैं, उन सबके पीछे स्थानीय मुस्लिमों की अपनी सोच ही अधिक सफल रही है। उन पर भी ‘गाजी’ बनने और काफिरों का नाश करने का नशा उतना ही चढ़ा होता है जितना किसी बड़े मुसलमान पर चढ़ा होता है। इसके साथ ही हिंदुओं को मारकर उनका माल लूटने, उनकी बहू बेटियां के साथ अत्याचार करके जन्नत मिलने का लालच उन पर भी उतना ही हावी होता है जितना किसी बड़े मुसलमान पर । यही बात ‘दा कश्मीर फाइल्स’ – से भी हमें समझ लेनी नहीं चाहिए कि कश्मीर में केवल आतंकवादियों ने ही हिंदू पंडितों को भगाया हो यह कहना ठीक नहीं है। वहां के स्थानीय मुसलमानों ने भी हिंदुओं को भगाने में पूरा सहयोग दिया।
तत्कालीन हिंदुओं की दशा
दुर्भाग्य से उस समय कश्मीरी पंडित नेता विहीन थे । इस अवस्था का लाभ ये अफगान सूबेदार पूरी तरह उठा लेना चाहता था। इतिहासकार मुहम्मद दीन फाक ने लिखा है – ‘हिंदुओं पर अत्याचार करने के लिए उसे पैसे की आवश्यकता थी । जिसे वह पंडितों से निकलवाने की आशा कर रहा था। परिणामस्वरुप उसने पंडितों के विरुद्ध एक क्रूर दमन अभियान चलाया। लूटमार, आगजनी और पंडितों की हत्याएं स्वतंत्रता से होने लगीं। उन्हें भांति भांति के उपायों से सताया जाने लगा।’
अफगान सूबेदार को हटाने के लिए हिंदुओं में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। तब पंडित कैलाश धर नाम के प्रभावशाली हिंदू नेता ने इस दायित्व को बहुत वीरता और साहस के साथ निभाने का संकल्प लिया। पण्डित कैलाश धर ने बड़ी सावधानी से अब्दाली से संपर्क साधकर इस अफगान सूबेदार के काले कारनामों के बारे में अपने ढंग से जाकर उसे बताया। अब्दाली ने सरदार खुर्रम खान को कश्मीर का सूबेदार नियुक्त करके पण्डित कैलाश धर के साथ कश्मीर भेजा। साथ में एक बड़ी सेना भी अपने सूबेदार खुर्रम खान को दी। पंडित कैलाश धर के सहयोग से खुर्रम खान विजयी हुआ । लाल मोहम्मद जैसे क्रूर सूबेदार का पतन हो गया। तब नए सूबेदार के विषय भोगी और विलासी होने के कारण सत्ता की सारी शक्ति पंडित कैलाश धर ने अपने हाथों में ले ली और कश्मीर का प्रशासक बन कर कार्य करने लगा।
यद्यपि मुस्लिम अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों को पंडित कैलाश धर का इस प्रकार शक्ति संपन्न होना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मीर फकीरुल्ला नामक मुस्लिम सरदार के नेतृत्व में एकत्र होकर पंडित कैलाश धर और सूबेदार खुर्रम खान का सामना किया और उन्हें पराजित कर मीर फकीरुल्ला ने कश्मीर का शासन हथिया लिया।
हिंदुओं पर फिर होने लगे अत्याचार
बाम्बा जाति के इस नए कश्मीरी प्रशासक के बारे में हसन ने ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में लिखा है कि :- ‘बाम्बाओं ने अपना काम इतनी कुशलता से किया कि आज भी लोग कश्मीरी पंडितों पर किए गए घोर अत्याचारों को याद करके कांप उठते हैं। सुबह होते ही अनेक बाम्बा पंडितों के घरों में घुस जाते थे। घर के सदस्यों का धर्म – कर्म तोड़ते और उन्हें बंदी बनाते और घर को आग लगा देते । इन बंदियों को या तो मार दिया जाता या इस्लाम ग्रहण करने को कहा जाता। इन तरीकों से लगभग 2000 पंडितों को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया । पंडितों की एक बड़ी संख्या मौत के घाट उतार दी गई। संक्षेप में मीर फकीरुल्ला और उसके बाम्बा सैनिकों द्वारा अपनाए गए पंडित विरोधी क्रूर उपाय सभी वर्णनों को पीछे छोड़ देंगे।’
एक षड़यंत्र रचकर इस निर्मम और अत्याचारी प्रशासक फ़कीरुल्ला ने पंडित कैलाश धर की भी हत्या करवा दी थी।
1776 ई0 में कश्मीर के शासन पर अफगान सूबेदार हाजी करीम दाद खान का कब्जा हुआ। उसने भी कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचारों का क्रम यथावत जारी रखा । अपने शासन में उसने पंडित दिलाराम नाम के एक सुलझे हुए हिंदू नेता को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया था। करीम दाद खान के बाद उसका बेटा आजाद खान कश्मीर का सूबेदार बना । इतिहासकार हसन ने उसके बारे में लिखा है : – ‘ नया सूबेदार आजाद खान बिल्कुल अपने बाप पर गया था । उसके दिल में अपने बाप से भी ज्यादा इस बात की तड़प थी कि वह अपनी प्रजा के लिए रोज नए-नए क्लेश और विपत्तियां पैदा करे। उसे दूसरों के तड़पने से सुख मिलता था और जिस दिन ऐसा अवसर नहीं मिलता वह एक दो व्यक्तियों की हत्या करके अपने मन की विकृत इच्छा पूरी करता था।’
पंडित दिलाराम का विशेष योगदान
आजाद खान ने भी अपने शासनकाल में पंडित दिलाराम को अपना प्रधानमंत्री बनाए रखा। पंडित दिलाराम ने अनेक अवसरों पर इस अत्याचारी शासक को हिंदुओं के विरुद्ध क्रूरता पूर्ण आदेश जारी करने से रोका था । एक न्याय प्रिय प्रधानमंत्री के रूप में ऐसा करके उस समय के हिंदू समाज पर पंडित दिलाराम ने उस समय के हिंदू समाज पर विशेष उपकार किया था। निश्चय ही तत्कालीन कश्मीर का हिंदू समाज उसके इस ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। क्योंकि उसके इस प्रकार के कार्यों से अनेक हिंदुओं का वध होने से रुक गया था, उनके साथ लूटमार, हत्या, डकैती, बलात्कार आदि के अपराध कम हो गए थे।
यद्यपि अब कितने ही मुस्लिम सरदार और उच्च पदाधिकारी उसके विरोध में आ गए थे।
पंडित दिलाराम के विरोध में आए इन मुसलमानों का एक ही उद्देश्य था कि इस हिंदू नेता को किसी भी ढंग से समाप्त कर दिया जाए। क्योंकि इसके रहते हुए उनकी दाल नहीं गल रही थी। हिंदू अब एक बार फिर सुख की नींद सोने लगा था। जो इन मुस्लिम अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों को रुचिकर नहीं लग रहा था। फलस्वरूप पंडित दिलाराम जैसे बुद्धिमान हिंदू नेता को साजिशें रचकर मौत के घाट उतार दिया गया।
राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत