पुण्य प्रसून वाजपेयी
अगर पत्रकार रहते हुये आशीष खेतान कारपोरेट घरानों के प्यादे बनने से नहीं कतरा रहे थे। अगर पंकज गुप्ता हर हाल में पार्टी फंड बढ़ाने के लिये हर रास्ते को अपनाने के लिये तैयार थे। अगर कुमार विश्वास कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के बीच झूलते हुये केजरीवाल को नजर आ रहे थे। अगर सत्ता की मद में राखी बिडला के सरोकार अपने परिवार तक से नहीं बचे हैं। अगर योगेन्द्र यादव हर हाल में अपने समाजवादी चिंतन तले समाजवादी कार्यकर्ताओं को संगठन के अहम पदों पर बैठाने के लिये बैचेन थे। अगर प्रशांत भूषण पार्टी के भीतर अपनी डोलती सत्ता को लेकर बैचेन थे। अगर शांति भूषण के सपनो की आम आदमी पार्टी उनके वैचारिकी के साथ खड़ी नहीं हो पा रही थी। अगर पार्टी के भीतर अहम पदो से लेकर अहम निर्णयों पर रस्साकसी जारी थी। बावजूद इसके दिल्ली चुनाव तक किसी ने किसी का मुखौटा नहीं उतारा और सत्ता मिलते ही अपनी पंसद के मुखौटों को अपने पास रखकर हर किसी ने हर चेहरे से मुखौटा उतारना शुरु कर दिया तो फिर आम आदमी पार्टी का चेहरा बचेगा कहां से । और जो आम आदमी वाकई बचा है उसके जहन में तो यह सवाल आयेगा ही कि जब राजनीतिक सत्ता से मोहभंग के हालात मनमोहन सिंह सरकार के दौर में पैदा हो चले थे तो अन्ना आंदोलन ने ही उम्मीद जगायी क्योंकि उसके निसाने पर सत्ता के वह मुखौटे थे जो जनता की न्यूनतम जरुरतो के साथ फरेब कर रहे थे। इसीलिये मनमोहन सरकार के 15 कैबिनेट मंत्री हो या बीजेपी के उस दौर के अध्यक्ष।
भ्रष्टाचार के कठघरे में बिना लाग लपेट तलवार हर किसी पर चली। लेकिन मुखौटे उतरने के दौर में अगर यह सच उघड़ने लगे कि जिन्हें केजरीवाल कटघरे में खड़ा कर रहे थे, उन्हीं के साथ मौजूदा आप नेताओ के ताल्लुकात रहे तो? यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि दिल्ली की सत्ता चलाने वालो में आशीष खेतान दूसरे नंबर के खिलाडी बन चुके है लेकिन पत्रकारिता करते हुये क्रोनी कैपटलिज्म से लेकर पेड न्यूज को बाखूबी कैसे उन्होने अपनाया अब यह प्रशांत भूषण के पीआईएल का हिस्सा हो चुका है। कुमार विश्वास अमेठी में राहुल गांधी को चुनौती देने वाले एसे कवि निकले, जिनकी धार राजनीतिक मंच पर भी पैनी दिखायी दी। लेकिन भाजपा से साथ संबंधो के हवाले की हवा पहली बार आप के भीतर से ही निकली और पिछले दिनों कांग्रेसी नेता कमलनाथ के साथ बैठक के दौर का जिक्र भी कांग्रेसी दफ्तर से ही निकला। तो क्या आप के लिये सत्ता जीवन-मरण का सवाल बन चुकी थी । या फिर आप एक ऐसी उम्मीद की हवा में खुद ब खुद बह रही थी जहा जनता का मोहभंग सत्ता से हो रहा था और उसे हर बुराई को छुपाते हुये आप के धुरधंर सियासी सेवक लग रहे थे । यानी दबाब आम जनता का था कि अगर केजरीवाल की पार्टी खामोशी से हर जख्म को पीते चली जाये और अपने झगडो की पोटली को छुपा ले जाये तो चुनाव में जीत मिल सकती है। ध्यान दें तो आप के भीतर का संघर्ष सियासी कम उम्मीद से ज्यादा मिलने के बाद उम्मीद से ज्यादा पाने और तेजी से हथियाने की सौदेबाजी के संघर्ष की अनकही कहानी ज्यादा है।
सुधार। एक तरफ परेशान आम जनता को सुविधायें मुहैय्या करने में पांच बरस गुजरना या पांच बरस में उस राजनीतिक व्यवस्था को ठीक कर देना जिसके बाद कोई भी सत्ता में आये वह भ्र,ट्र ना हो । क्रोनी कैपटिलिज्म के रास्ते पर ना चले । लेकिन कुछ मुखौटो को उतार कर अपने मुखौटो को बचाने की कवायद तो सिस्टम को ठीक करने के बदले एक नये भ्रष्ट्र सिस्टम को ही खडा करेगी । जिसकी मिसाल पेड कार्यकर्ताओ को सरकार में नौकरी दिलाने के लिये दिल्ली डायलाग के तहत नौकरी के लिये 24 घंटे का एक विज्ञापन निकालने से समझा जा सकता है । यानी जो संघर्ष कर रहे थे क्या वह पेड थे । तब एनजीओ फिर पार्टी । और अब सरकार है तो पहले अपनो को रोजगार पर लगाये और सिस्टम बरकरार रहे इसके लिये विज्ञापन निकाल कर खानापूर्ति भी । यही काम तो बंगाल में हुआ । जह लेफ्ट कैडर ही सरकारी नौकर हो गया और ज्योती बसु से बुद्ददेव भट्टचार्य तक के दौर में उसी कैडर ने सरकारी नौकर बनकर सिस्टम को ही इतना खोखला कर दिया कि बंगाल में परिवर्तन की हवा बही तो मा , माटी, मानुष की थ्योरी भी सत्ता में आने के बाद सारधा चिटफंड में खो गयी । और यही काम तो केन्द्र में स्वयसेवको की सरकार के आने के बाद हो रहा है ।
हर अहम जगह संघ की विचारधारा से ओतप्रोत स्वयंसेवको को खोजा जा रहा है । और जो कभी स्वयसेवक रहे नहीं वह संघ को राष्ट्रवाद का चरम बताकर नौकरी पा रहे है । यही काम यूपी में समाजवादी कर रहे है । वहा यादववाद की गूंज है तो सैकडो भर्तिया नाम के आगे यादव देखकर तय हो रहा है । तो फिर केजरीवाल का रास्ता अलग कैसे होगा । और यही से विचारधारा का सवाल भी निकल सकता है कि सिर्फ नारो की गूंज या बिजली पानी के सवालो को माझना भर तो राजनीति नहीं है । शायद इसीलिये जब आंदोलन से पार्टी बनी तो ऐसे ऐसे सवाल उठे थे जो वाकई मौजूदा राजनीतिक धारा से इतर एक नई लकीर खिंचने की बेताबी दिखा रही थी । सितंबर 2012 की गुफ्त-गु सुन लिजिये । जो सडक पर संघर्ष करते है उन्हे महत्व ज्यादा दिया जाना चाहिये या जो वैचारिक तौर पर संघर्ष को एक राजनीतिक आयाम देते है महत्व उन्हे दिया जाना चाहिये । महत्व तो कैडर को देना चाहिये । जो संघर्ष करता है । क्योकि मौजूदा दौर में संघर्ष करने वाले कार्यकत्ता ही गायब हो चले है । और आम आदमी पार्टी तो संघर्ष का पर्याय बनकर उभरी है तो फिर संगठन का चेहरा कुछ ऐसा रहना चाहिये जिससे पार्टी पढे लिखो की बरात भर न लगे । बल्कि जो जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान में आंदोलन को खडा करने में लगे रहे । पार्टी संगठन में इन्हे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिये । यानी संगठन और संगठन के भीतर नेशनल एक्जूटिव क्या होती है इसे ना समझने वाले संतोष कोली को ज्यादा महत्व के साथ जगह मिलनी चाहिय जो जगह योगेन्द्र यादव को मिल रही है । यानी प्रतिकात्मक तौर पर योगेन्द्र यादव उस वर्ग की नुमाइन्दगी करते है जो संघर्ष को राजनीतिक विचारधारा का जामा पहनाने में सक्षम है और देश के बोध्दिक तबके को प्रभावित करने की क्षमता रखते है । वही संतोष कोली उस तबके की नुमाइन्दी करती है जो जिन्दगी की जद्दोजहद में सिर्फ अपने हक को समझता है ।
उसका संघर्ष हर राजनीतिक दल के लिये हथियार भर होता है उसे कभी वैचारिक तौर पर किसी भी पार्टी में जगह मिल नही पाती । और इस बहस के बाद ही आम आदमी पार्टी के भीतर वैसे लोगो का महत्व संगठन के दायरे में बढने लगा जो लगातार संघर्ष करते हुये आंदोलन से राजनीतिक दल बनाते हुये भी चुनावी संघर्ष में कूदने की तैयारी कर रहे थे । चेहरे नये थे । नाम बेनाम थे । जोश था । कुछ बदलने का माद्दा था । केजरीवाल पर भरोसा था । वही दूसरी तरफ पढे लिखे राजनीतिक समझ रखने वाले तबके में भी जोश था कि उनके विचारधारा को सडक पर अमली जामा पहनाने के लिये पूरी कतार खडी है जो सवाल नहीं करेगी बल्कि भरोसे के साथ राजनीतिक संघर्ष में खुद को झोंक देगी। केन्द्र में अरविन्द केजरीवाल ही थे। जो संघर्ष और बौद्दिकता का मिला जुला चेहरा लिये हुये थे। बौध्दिक तबके से संवाद करना और संघर्ष करने वालों के साथ भरी दोपहरी में भी सड़क पर चल देना । इस रास्ते ने 2013 में दिल्ली के भीतर चुनावी जीत की एक ऐसी लकीर खिंची जिसके बाद हर किसी को लगने लगा कि आम आदमी पार्टी तो दिल्ली के एक तबके के मानस पटल पर इस तरह बैठ चुकी है जहा से उसे मिटाना किसी भी राजनीतिक दल के लिये मुश्किल होगा क्योंकि हर राजनेता तो सत्ता की लड़ाई लड रहा है और हर पार्टी का कार्यकर्ता सत्ता से कुछ पाने की उम्मीद में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से जुड़ा है। हर बार हर किसी को सत्ता परिवर्तन या बदलाव सियासी शिगूफा से ज्यादा कुछ लगा नहीं। लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत आम जनता की होगी। वोट जनता को खुद को देना है । कमाल की थ्योरी थी। या दिल्ली ने पहली बार कांग्रेस-बीजेपी से इतर झांका तो उसके पीछे राजनीतिक दलो से मोहभंग होने के बाद एक खुली खिड़की दिखायी दी। जहां से साफ हवा आ रही थी। रोशनी दिखायी दे रही है। लेकिन यह हवा इतनी जल्दी बदलेगी या रोशनी घने अंघेरे में खोती दिखायी देगी। यह किसने सोचा होगा।