ऐसे स्पष्ट वादी मुस्लिमों की आवश्यकता है आज

ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर मिले शिवलिंग को लेकर इस समय टीवी चैनलों पर जितने भर भी मुस्लिम वक्ता- प्रवक्ता आ रहे हैं वह सभी कह रहे हैं कि यह शिवलिंग नहीं बल्कि फव्वारा है। उनके इस मूर्खतापूर्ण बयान पर सभी को हंसी भी आ रही है, क्योंकि उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अबसे 350 – 400 वर्ष पहले यह फव्वारे बिना बिजली के चलते कैसे थे ?
इसके उपरांत भी यह लोग अपनी झेंप मिटाने के लिए रटे-रटाये शब्दों को बोलते जा रहे हैं ।उधर एक असदुद्दीन ओवैसी साहब हैं जो 1991 के किसी कानून से बाहर निकल कर के ही नहीं आ रहे हैं। वह अपना बाजा 1991 के उसी एक्ट के इर्द-गिर्द बजाते दीख रहे हैं, जबकि उनके दूसरे भाई अकबरुद्दीन ओवेसी देश में आग लगाने की पूरी तैयारी करते हुए जहर उगल रहे हैं। असदुद्दीन ओवैसी को अब इतनी शर्म तो आई है कि वह अब अपने आपको मुगलों या किसी भी आक्रमणकारी की संतान न कहकर ए0 पी0जे0 कलाम जैसे उदारवादी और राष्ट्रवादी मुस्लिमों के साथ जोड़ कर दिखा रहे हैं। यद्यपि ए0पी0जे0 कलाम जैसे किसी भी राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता से असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों का दूर-दूर तक भी कोई संबंध नहीं है।
इस समय कुछ ऐसी सोच के मुस्लिम वक्ता प्रवक्ता भी हैं जो अपने लेखन या वक्तव्य के माध्यम से सच को सच कहने का साहस दिखा रहे हैं। हमें उनकी इस परंपरा को और अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें प्रयास करना चाहिए कि ऐसे लोगों के माध्यम से ही मुस्लिमों को सच का बोध कराया जाए।
इतिहास में भी ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब मुस्लिम समाज के कुछ लोगों ने साहस करके कातिल, आतंकवादी और लुटेरे विदेशी आक्रमणकारियों या मुस्लिम शासकों के सामने साहस करके सच को प्रस्तुत किया है।
बात उस समय की है जब तैमूर लंग जैसा क्रूर विदेशी लुटेरा भारत की भूमि पर अपना कहर बरपा रहा था। जब उसने जमुना को पार करके दिल्ली के उत्तर पूर्व में बसे लोनी पर धावा किया तो एक मुस्लिम नाबीना फकीर तैमूर के पड़ाव में पहुंच गया और चंगेज खां, हलाकू खान और बड़े खान की तारीफ व बुराई करता रहा।
तैमूर ने इसको अपने खेमे में बुलाया और कहा कि बाबा साईं ! आप किस खानदान से हो और आपका नाम क्या है? बाबा ने कहा कि मैं सैयद कुल का हूं और मेरा नाम दौलत है।
इस पर तैमूर ने कहा कि मैं सैयद लोगों का अदब करता हूं। उन्होंने शहादत देकर सैयद नाम पैदा किया है । लेकिन क्या दौलत अंधी होती है ?
इस पर साईं ने जवाब दिया कि अगर अंधी नहीं होती तो तेरे जैसे जालिम जाबीर लुटेरे के घर कैसे आती ? तू बात तो करता है शहादत की और नाम लिखवाता है अमीर तैमूर। मैं तुझे जालिम तैमूर कहूंगा।जो बेगुनाहों का खून बहाने वाला अमीर कहलाने का हकदार नहीं है। तुझे बक्कड़ मुल्ले चाहे अमीर कहें, पर तू जालिम तैमूर है।
यह झाड़ देकर वह नाबीना साधु चला गया। यह दिल्ली के एक बाग में रहता था और अल्लाह की इबादत का शुक्रगुजार था।
इसी समय एक मुस्लिम संत और भी थे जिनका नाम वादी उद्दीन था। यह शाह मदार के नाम से प्रसिद्ध था। यह सूफी विचारधारा का संत था। पक्का वतन परस्त था। मुल्क हिंद मादरे वतन की खिदमत का बहुत प्रचार करता था। इसका जन्म सन 1310 ईस्वी में हुआ था । यह शेख मोहम्मद तफरी तामी का शिष्य था। तैमूरी आक्रमण के समय 88 वर्ष का था। 20 दिसंबर 1434 को 124 वर्ष की अवस्था में इसका देहांत हुआ था। कन्नौज के पास मुखनपुर में इसकी कब्र पर हर वर्ष एक मेला लगता था। इस संत ने सारे भारत का भ्रमण किया था। मक्का मदीना की यात्रा तथा दूसरे मुल्कों की यात्रा करने भी गया था । धर्मात्मा और ईश्वर के भक्त इस संत को हिंदुओं की छोटी जातियों के लोग भी मानते रहे ।
इस संत ने तैमूर के दिल्ली आक्रमण ,हत्या तथा लूट के समय अपने एक शागिर्द के द्वारा एक परवाना लिखकर तैमूर के पास भिजवाया था। जिसका मजमून इस प्रकार था :-
” तैमूर तू जालिम और लुटेरा है। तूने मुल्क हिंद के लोगों को निहत्थे और गरीब मजदूरों को लूटा है तथा लूट रहा है। कत्ल कर रहा है। तू बादशाह नहीं है । तू है डाकू, लुटेरा और कातिल। जाबिर, बेरहम, बेदीन , बेहया व नापाक है। अल्लाह के इस दुनियाई चमन को उजाड़ रहा है। ए जालिम ! तू अपनी हरकतों से रुक जा, वरना तेरी नस्ल में आगे चलकर कत्ल और बेरहमी होती रहेगी । तेरी नस्ल में सगे भाई को भाई मारेगा और बाप की हुकूमत को तेरी नस्ल जबरदस्ती छीनने की कोशिश करेगी। तुझे कोई बादशाह नहीं कहेगा। सब तुझे जालिम लुटेरा ही कहेंगे। बादशाह कहलाने के लिए अच्छे काम करने की तेरे अंदर काबिलियत ही नहीं है। न तू मुसलमान है, न तू कुरान की नसीहतों को मानता है । तेरे ऊपर शैतान का गलबा है। तू गांवों के गांवों को फूंक रहा है। खून बहा रहा है। याद रख तू किसी की नस्ल को नहीं मिटा सकेगा , लेकिन तू ही मिट जाएगा । आने वाली नस्ल तेरे को याद करके तुझे लानत देगी और तेरे बुरे कामों को याद करके तुझे शैतान का बाबा कहेगी। तेरी नस्ल के लोगों को तेरे शर्मनाक कामों पर दुःख होगा।”
यह दोनों प्रेरक प्रसंग हरिराम भाट करवाड़ा निवासी की पुत्री की पोथी के लेख से उद्धृत कर ‘सर्व खाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम’ नामक पुस्तक में श्री निहाल सिंह आर्य अध्यापक ने प्रस्तुत किए हैं। जिन्हें कई अन्य मुस्लिम लेखकों ने भी अपनी पुस्तकों में लिखा है।
जो लोग आज देश में मुसलमानों को भड़का कर देश के चमन में आग लगाने की तैयारी कर रहे हैं उन्हें नहीं पता कि उनके इस प्रकार के कार्यों से देश का कितना अहित होगा ? इन लोगों की ऐसी सोच पर प्रतिबंध लगाने के लिए जिम्मेदार और समझदार मुस्लिमों को इसी प्रकार सामने आना चाहिए जैसे कभी तैमूर को लताड़ने के लिए उपरोक्त दोनों संत सामने आए थे।
देश को गृहयुद्ध की ओर धकेलने की प्रत्येक प्रवृत्ति का प्रतिरोध होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिन विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत में आकर अत्याचार किए, उनके अत्याचारों को अत्याचार कहने का साहस मुस्लिमों को भी करना चाहिए। उसी से वास्तविक सांप्रदायिक समभाव पैदा होगा। जिन अत्याचारी विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के मंदिरों को लूटकर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवाया, उन स्थानों को भी आज के मुस्लिम समाज को सहर्ष हिंदुओं को लौटा देना चाहिए।
भारत सरकार को भी अब समझना चाहिए कि जो लोग चुपचाप भीतर ही भीतर विदेशी शक्तियों के संकेत पर देश को अस्थिर करने का प्रयास कर रहे हैं उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाए। देश को बाहरी देशों से इतना खतरा नहीं रहता है जितना भीतर बैठे जयचंदों से खतरा रहता है। हमें कभी भी इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि जयचंद मर चुका है, बल्कि हर पल इस बात के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए कि जयचंद पहले से भी अधिक सक्रिय होकर अपना काम कर रहा है। विदेशी शक्तियां भारत को एक पल के लिए भी विश्व शक्ति के रूप में स्थापित होना देखना नहीं चाहेंगी। इसलिए उसे भीतर के जयचंद के कंधे चाहिए और उन कंधों को जयचंद इन विदेशी शक्तियों को बड़े आराम से उपलब्ध करवा रहा है। यह अस्थिरता एक भयंकर ग्रहयुद्ध के रूप में भी देखी जा सकती है। जिससे भारत अपनी भीतर की समस्याओं में उलझ कर रह जाए और विदेशी शक्तियां अपना काम करती रहें। तैमूर, बाबर और औरंगजेब के गीत गाने वाले लोगों पर विशेष रूप से नजर रखने की आवश्यकता है।
जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो योगी सरकार के मंत्री और स्वयं योगी जी कितनी ही बार यह दोहरा चुके हैं कि पिछले 5 वर्ष में एक भी दंगा उत्तर प्रदेश में नहीं हुआ है। ऐसे बड़बोले बयानों से भी बचना चाहिए। क्योंकि ऐसे बड़बोले बयान जयचंद को भीतरी माहौल को बिगाड़ने के लिए उकसाते हैं। कुछ बातों पर मौन रहना भी आवश्यक होता है। राजनीति में तो विशेष रूप से मौन एक नीति बन जाती है।
अंत में अपनी बात 1938 में मौलाना सिराज उल हसन तिरमिजी साहब को उद्धृत करके खत्म करना चाहूंगा। इन्हें 1938 में नवाब हैदराबाद के विरुद्ध किए गए आर्य समाजी आंदोलन के समय मुसलमानों के रोष का सामना करना पड़ा था। क्योंकि यह मुसलमानों को देश के साथ रहने का संदेश दे रहे थे। उन्होंने उस समय गरीब मुसलमानों को दंगों और आग की मनोवृति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हुए एक सभा में कहा था कि मैं तुमसे पहला सवाल करता हूं कि यह राज्य अगर निजाम और आसिफजाही घराने का है तो यह राज्य मुसलमानों का कैसे हो सकता है ? क्या निजाम अपने शहजादे और बेटों को बेदखल कर आप में से किसी गरीब मुसलमान को हैदराबाद का बादशाह बना सकता है ? निजाम के पास अतुल धनराशि है। वह दुनिया का सबसे धनवान व्यक्ति है। इतना धन उसे अपने पास रखने की क्या आवश्यकता है ? तुम यहां तांगे हाँकते हो, गाड़ी चलाते हो, मजदूरी कर अपने बच्चों का पेट पालते हो ,फिर एक के पास इतनी संपत्ति क्यों और तुम गरीब क्यों ? अगर तुम उसकी प्रजा हो तो वह अपनी संपत्ति प्रजा को क्यों नहीं देता ? तिरमिजी साहब के ऐसे सवालों को सुनकर जो युवक उनकी सभा में अशांति और उपद्रव पैदा करने के लिए आए थे, वह भी उनकी गंभीर आवाज और ठोस सवालों के सामने शांत होकर बैठ गए थे। उन्हें लगा था कि जो कुछ आगे से बोला जा रहा है उसमें जान तो है ।
क्या आज इसी बात को कोई मुसलमान कश्मीर के पत्थरबाजों को एक स्थान पर बैठाकर शेख अब्दुल्ला परिवार और महबूबा मुफ्ती के काले कारनामों से भरे इतिहास के संदर्भ में समझा सकता है ?
तिरमिजी साहब ने अपने भाषण के अंत में यह भी कहा था कि “आप सभी धर्म से मुसलमान हो। मैं भी मुसलमान हूं। इसी मिट्टी में हमारा जन्म हुआ है। हम अरबिस्तान के कैसे हो हो गए ,? हम सभी पहले हिंदू थे । हिंदू समाज के गरीब तबके की जाति के लोगों को भय और लालच देकर मुसलमान बनाया गया। क्या उसी समाज की हम प्रजा नहीं है ? तुम्हारे और मेरे पूर्वज यहां के थे। इसी मिट्टी के थे । तुम्हारा खून का रिश्ता किसी से है तो हिंदुओं से है और वही हमारे सही मायनों में रिश्तेदार और सगे संबंधी हैं।
ऊंची खानदानियत और बड़प्पन की डींग हांकना आप जैसे लोगों को शोभा नहीं देता। धार्मिक ढोंग और पाखंड को छोड़कर हमें वतन और वतन परस्ती के प्रति वफादार होना चाहिए। इस देश की आजादी के लिए जिन्होंने अपनी कुर्बानियां दीं आसफिया खानदान के आखिरी निजाम जनाब पर सर मीर उस्मान अली खान की अपेक्षा मुझे सरदार भगत सिंह अपने करीब नजर आते हैं। निजाम ने यह सल्तनत कहां से लाई ? क्या अरबस्तान ईरान से लाई? निजाम का इतिहास दगाबाजी और धोखाधड़ी का है। निजाम ने एक भी लड़ाई जीती हो ,यह एक भी उदाहरण आप नहीं दिखा सकते । युद्ध की कसौटी से देखा जाए तो हैदराबाद पर मराठों का राज्य होना चाहिए। इस्लाम शराफत का धर्म है ऐसा कहा जाता है ना , इस व्यवहार में शराफत कहां है, आप दिखाएंगे?”
सचमुच आज ऐसी ही परंपरा को निभाने वाले साहसी और साफ करने वाले मुस्लिमों की आवश्यकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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