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आर्यसमाज के विद्वान कीर्तिशेष आचार्य चतुरसेन गुप्त जी ने कई वर्ष पूर्व एक पुस्तक ‘महान् आर्य हिन्दू-जति विनाश के मार्ग पर’ पर लिखी थी। इस पुस्तक का एक संस्करण 17 वर्ष पूर्व सम्वत् 2062 (सनू् 2005) में श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिण्डोन सिटी से प्रकाशित किया गया था। पुस्तक में 32 पृष्ठ हैं। पुस्तक का प्रकाशकीय ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने लिखा है। पुस्तक का मूल्य मात्र 8.00 रुपये है। यह पुस्तक हरयाणा एवं मध्यप्रदेश के कुछ बन्धुओं द्वारा प्रदत्त दान से प्रकाशित की गई है। पुस्तक ज्ञानवर्धक एवं सभी आर्यों तथा हिन्दुओं के लिए पठनीय है। जब तक हमें अपनी जाति के सामाजिक रोगों का पता नहीं होगा हम उसका उपचार नहीं कर सकते हैं, न ही निरोग वा स्वस्थ हो सकते हैं। इस दृष्टि से इस पुस्तक को पढ़ना हमें सभी के लिए अभीष्ट प्रतीत होता है। यद्यपि पूरी पुस्तक पठनीय है, परन्तु हम आज इस पुस्तक से कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सामग्री पुस्तक में पृष्ठ 22 पर ‘‘संस्कृत वांग्मय का ह्रास” शीर्षक से दी गई है। हम आशा करते हैं कि इस सामग्री से संस्कृत पे्रमी बन्धुओं को इस विषय की कुछ जानकारी मिलेगी और यह अनुभव होगा कि संस्कृत भाषा की उन्नति के कार्यों की देश की केन्द्र व राज्य सरकारों ने उपेक्षा की है। पुस्तक से ‘संस्कृत वांग्मय का ह्रास’ विषयक सामग्री प्रस्तुत है।
संस्कृत आर्यजाति की ही नहीं अपितु मानवजाति की सांस्कृतिक जननी है। इस सम्बन्ध में अधिक क्या लिखूं। स्वराज्य के पश्चात् संस्कृत शिक्षा प्रचार-प्रसार के स्रोत सूख गए या बन्द हो गए। मुगलकाल में भी संस्कृत किसी प्रकार जीवित बच निकली किन्तु आज की दशा अत्यन्त चिन्तनीय है।
संस्कृत के सम्बन्ध में महामहिम राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसादजी ने 22 नवम्बर 1952 में अपने एक भाषण में जो कहा था वह संस्कृतप्रेमियों की आंखें खोलनेवाला और मनन करने योग्य है। राष्ट्रपति महोदय कहते हैं-
सांस्कृतिक दृष्टि से संस्कृत के अध्ययन के महत्व के सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों और शासकों तक ने भी किसी प्रकार की शंका नहीं की। जिस प्रकार आज अनेकों देशों के विद्यार्थी शिक्षा के लिए यूरोप या अमेरिका जाते हैं, उसी प्रकार संस्कृत और उसका वांग्मय पढ़ने के लिए अन्य देशों से विद्या-जिज्ञासु हमारे देश में सहस्राब्दियों तक आते रहे। इनमें चीनी थे, यूनानी थे, फारसी थे, अरबी थे और स्वर्ण दीपमाला के वासी थे। उस युग में संस्कृत, सभ्यता के रहस्यों को पाने की एक कुंजी समझी जाती थी और इसलिए भारत के विद्वानों को विदेशों में आमंन्त्रित किया जाता था जिससे वहां के लोगों को संस्कृत में संचित ज्ञान का उनकी भाषा में ज्ञान करायें। ……. मुझे इस बात का खेद है कि इस दिशा में जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, जितना धन, समय और शक्ति लगनी चाहिए, वैसी न तो व्यवस्था है और न उतना धन, समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय था जब राज्य और समाज, दोनों ही संस्कृत के अध्ययन का पोषण करते थे। दरबार में संस्कृत पण्डितों और कवियों का बहुत आदर-सम्मान होता था और राजा तथा सामन्तगण उन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए पर्याप्त धेनु, धन और धान्य देते थे। ……
मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है कि सम्भवतः स्वतन्त्र भारत में संस्कृत अध्ययन की परम्परा कहीं समाप्त न हो जाए। आज संस्कृत-विद्वानों की जो अवस्था है, वह वास्तव में चिन्तनीय है। अभी राज्य ने संस्कृत-अध्ययन को प्रश्रय देने का भार अपने सिर पर नहीं लिया। ……..
बड़ी-बड़ी रियासतें और जमींदारियां जो इस काम में बहुत व्यय किया करती थीं, अब नहीं रहीं और उनके स्थान पर अभी तक कोई नया प्रबन्ध नहीं हो पाया है। फल यह हो रहा है कि संस्कृत के शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों ही की दुर्दशा हो रही है। दूसरे शब्दों में आज समाज से आनेवाली दान-सरिता लगभग सूख गई है। …….
अतीत में संस्कृत पाठशालाओं को दानशील रियासतों, जमींदारों और सेठ-साहूकारों से आवश्यक वित्तीय सहायता मिल जाया करती थी। कुछ तो उनके लिए दान की गई जमींदारियों की आय के सहारे चल रही थीं, किन्तु अब तो हमने जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन (का निर्णय) कर लिया है। ……
मैं समझता हूं कि इस दिशा में राज्य सरकारें पहल कर सकती हैं। अब समय आ गया है कि वे संस्कृत-अध्ययन के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता का प्रबन्ध करें। जब समाज के सब सम्पत्ति-साधनों को वे अपने हाथों में ले रही हैं तो कोई कारण नहीं कि वे समाज के उत्तरदायित्वों को भी क्यों न वहन करें। …..
(भारत सरकार द्वारा प्रकाशित राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद के भाषण पृ0 115)
राष्ट्रपति महोदय ने अपनी विचारधारा में संस्कृत वांग्मय की महानता और प्रचार की आवश्यकता पर बल देते हुए उसके प्रसार के स्रोत सूखने पर गहरी चिन्ता प्रकट की है। साथ ही राज्य सरकारों पर इसके संरक्षण का उत्तरदायित्व सौंपा है। हिन्दूजाति के ह्रास के साथ-साथ हिन्दूजाति का संस्कृत वांग्मय कैसे जीवित रहेगा यही चिन्ता है। और अब तो हिन्दी के भी दुर्दिन आ रहे हैं। राष्ट्रभाषा का हिन्दी पद-भुलावा या छलावा मात्र रह गया है। अब हम उर्दू और अंग्रेजी की गुलामी में फंसे बिना नहीं रह सकते। पुस्तक की संस्कृत वांग्मय का ह्रास विषयक सामग्री यहां समाप्त होती है।
हम इस लेख में आचार्य चतुरसेन गुप्त जी का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक समझते हैं। यह परिचय हम शीर्ष आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी की पुस्तक ‘आर्य लेखक कोश’ से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आचार्य चतुरसेन गुप्त जी का जन्म मुजफ्फर-नगर जिले के शामली कस्बे में 1906 में हुआ। यद्यपि आपको व्यवस्थित रूप से विद्याध्ययन करने का अवसर नहीं मिला, किन्तु आर्य-समाज के सम्पर्क में आने पर आपने स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानोपार्जन किया। आपने स्वयं तो अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे ही, समय समय पर अनेक प्रकाशन संस्स्थाओं की स्थापना कर उनके द्वारा विभिन्न उपयोगी ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया। ऐसे प्रकाशनों में महाभारत प्रकाशन, राष्ट्रनिधि प्रकाशन, सत्यार्थप्रकाश धर्मार्थ ट्रस्ट प्रकाशन, वैदिक धर्मशास्त्र प्रकाशन, भारतीय राजनीति प्रकाशन, सार्वदेशिक प्रकाशन तथा आर्य व्यवहार प्रकाशन आदि के नाम आते हैं। इनका निधन 23 दिसम्बर, 1973 को दिल्ली में हुआ।
लेखक के लेखन कार्य-सत्यार्थप्रकाश उपदेशामृत (1985), स्वर्ग में हड़ताल, साम्प्रदायिकता का नंगा नाच, नेहरूजी की आर्य विचारधारा (1959), नरक की रिर्पोट, काश्मीर मुसलमान कैसे बना?, राष्ट्रपति जी के नाम 11 पत्र (1962), पूंजीपतियों की कहानी, भारत मां की अश्रुधारा, ईसाइयों के खूनी कारनामे, विदेशी समाजवाद के मुंह पर चपत, गांधी जी की गाय, पागलखाने से, मैं बुद्धू बन गया, भाग्य की बातें, मैं हंसू या रोऊं, परलोक में 26 जनवरी, महान् हिन्दू जाति मृत्यु के मार्ग पर, रंगीले लाला, पुरुषार्थ प्रकाश, हे मेरे भगवान। (आत्मकथन) (2029 विक्रमी सम्वत्)।
हम आशा करते हैं कि आचार्य चतुरसेन गुप्त जी द्वारा लिखित संस्कृत वांग्मय का ह्रास विषयक सामग्री पाठकों को उपयोगी प्रतीत होगी। हम समझते हैं कि संस्कृत भाषा की रक्षा एवं पोषण में आर्यसमाज और इसके अनुयायियों द्वारा संचालित गुरुकुलों, मुख्यतः गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार, का उल्लेखीय योगदान है। सभी गुरुकुलों का पोषण व रक्षा करनी सभी हिन्दुओं व आर्यसमाज के अनुयायियों का कर्तव्य है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य