आत्मघाती और जगहसाई* *राजनीति के नमूने बन गये* *अखिलेश यादव*
*राष्ट्र-चिंतन*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
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अखिलेश यादव भी आत्मघाती और जगहंसाई राजनीति का नमूना बनते जा रहे हैं। इस कसौटी पर उनकी तुलना राहुल गांधी से हो रही है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच बहुत सारी समानताएं भी है। ये दोनों वंशवादी राजनीति की उपज हैं। दोनों के पिता और अन्य रिश्तेदार राजनीति के सिरमौर रहे हैं। राहुल गांधी के माता, पिता, दादा-दादी और परनाना राजनीति के सिरमौर रहे हैं जबकि अखिलेश यादव के पिता मुुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के जनक, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री रह चुके हैं, मुलायम सिंह यादव एक बार देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे, लालू प्रसाद यादव ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था और एच डी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए थे। राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों विदेश में पढ़े हुए हैं पर दोनो की विदेशी डिग्रियों पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं। दोनों पर यह आरोप लगते रहा है कि खानदानी विरासत को अक्षुण रखने में असफल साबित हुए हैं और अपनी अज्ञानता और अकुशलता के साथ ही साथ अदूरदर्शिता का प्रदर्शन कर खानदानी विरासत को नुकसान पहुंचाते रहे हैं और अपमानित करने साथ ही साथ जगहंसाई भी कराते रहे हैं। यह सही है कि राहुल गांधी अपनी पार्टी कांग्रेस को संभालने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं और कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस दो दर्जन से अधिक चुनावो में हार चुकी है। जबकि अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी भी कई चुनाव हार चुकी है। समाजवादी पार्टी अब बेहद कमजोर हो चुकी है और अखिलेश यादव के परिवार में भी सबकुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। अखिलेश के भाई प्रतीक की पत्नी अर्पणा यादव भाजपा में चली गयी है जबकि चाचा शिवपाल यादव के बगावती रूख भी जगजाहिर है।
राजनीति में राजनेताओं के पुत्रों और पुत्रियों के ज्ञान, दूरदर्शिता और समझ को देखकर निराशा ही होती है। वर्तमान राजनीति में सिर्फ अखिलेश यादव और राहुल गांधी ही जगहंसाई और आत्मघाती राजनीति के नमूने नहीं है बल्कि इसके नमूने और भी है। राहुल गांधी की बहन प्रियका गांधी, लालू के पुत्र तेजप्रताप यादव, वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह, नीतीश कुमार के पुत्र निशांत कुमार, प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखबीर सिंह बादल आदि इसके दर्जनों उदाहरण हैं। वसुंधरा राजे का पुत्र दुष्यंत सिंह सांसद हैं और प्रकाश सिंह बादल का पुत्र सुखबीर सिंह बादल पंजाब का उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं पर इनकी राजनीतिक दूरदर्शिता वैसी तो नहीं है जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता इनके माता-पिता और अन्य पूर्वजों की रही है। लालू के पुत्र तेज प्रताप यादव की नौटंकी कौन नहीं जानता है? तेजप्रताप यादव अपनी हरकतों से राजनीति को प्रहसन बना दिया है। नीतीश कुमार का पुत्र अभी राजनीति मे नहीं है पर नीतीश कुमार की तरह उनमें प्रतिभा की कमी महसूस की जा सकती है। हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पुत्र दीपेन्द्र सिंह हुड्डा की भी राजनीति समझ पर प्रश्न उठते रहे हैं। वंशवादी राजनीतिज्ञ अपने वंशजों को ऐसोआराम की जिंदगी देते हैं, पंचसितारा की संस्कृति देते हैं, पैसे के बल पर शिक्षा की डिग्रियां हासिल करा देते हैं। प्राइवेट शिक्षा संस्थानों से पैसे के बल पर धनपशु और राजनीतिज्ञ मनमाफिक डिग्रियां खरीद लेते हैं।
अब यहां यह प्रश्न उठता है कि जगहंसाई राजनीति और आत्मघाती राजनीति में अखिलेश यादव कितने डूबे हुए हैं और इनके जगहंसाई वाले बोल क्या-क्या हैं? ताजा उदाहरण तो ज्ञानबापी का है। ज्ञानबापी के प्रश्न पर उन्होंने ने एक बार फिर हिन्दुओं को अपमानित करने और अपने जनाधार को भी कमजोर करने वाली बयानबाजी से बाज नहीं आये। उन्होंने कह डाला कि कही भी पत्थर रख दो, पत्थर पर सिंदूर लगा दो, मंदिर बन जायेगा। इसका सीधा अर्थ हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करना है। पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान वे अयोध्या गये, अयोध्या में एक मंदिर में भी गये पर रामजन्म भूमि मंदिर में नहीं गये। रामजन्म भूमि मंदिर नहीं जाने पर आत्मघाती संदेश चला गया। राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने के काफी पहले उन्होंने कहा था कि किसी भी स्थिति में राममंदिर नहीं बनने दूंगा। जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने अयोध्या में पंचकोशी परिक्रमा पर बल का प्रयोग किया था जिसमें कई संतों की चोटें आयी थी। अखिलेश के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने विदेश से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी पर अपने शासनकाल के दौरान वे हज हाउस और कब्रिस्तान बना रहे थे। पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि उनके सपने में कृष्ण आते हैं और आश्वासन देते हैं कि तुम्हारी सरकार बनने वाली है। इसके खिलाफ भाजपा का कहना था कि फिर अखिलेश कृष्ण जन्म भूमि को मुक्त करने के लिए आगे क्यों नहीं आते हैं? जिन्ना को चुनाव के दौरान सेक्युलर और महान बताना अनावश्यक था फिर भी अखिलेश ने भाजपा को आलोचना के लिए अवसर दिया। हिन्दुओं के आस्था के प्रतीक गौ अस्मिता के खिलाफ अनावश्यक और हानिकारक बयानबाजी से बाज नही आये। दुष्परिणाम यह हुआ कि योगी के पक्ष में हिन्दू मतों की एकजुटता हुई और सत्तासीन होने का सपना अखिलेश का टूट गया।
राजनीतिक रणनीति की समझ की कसौटी पर अखिलेश को देख लीजिये। मुलायम सिंह यादव के विरोध के बावजूद अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ समझौता किया। कांग्रेस की औकात से ज्यादा विधान सभा सीटें दी थी। दुष्परिणाम क्या निकला? अखिलेश की सरकार चली गयी और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हासिये पर खडी भाजपा को सत्ता प्राप्त करने में सफलता मिली। 2019 के लोकसभा चुनावों में फिर अखिलेश ने आत्मघाती निर्णय लिये। सपा और बसपा में समझोते हुए। सपा और बसपा मिलकर चुनाव लडे। बसपा को सपा से अधिक सीटें मिली। पिछले लोकसभा चुनावों के बाद मायावती ने बयान दिया था कि सपा के कारण बसपा को प्रत्याशित सीटें नहीं मिली और भविष्य में कभी भी सपा के साथ समझौते नहीं करेगी। इसके अलावा अपने खानदान को भी एक रखने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। मुलायम सिंह यादव अपने भाइयों और अन्य रिश्तेदारों को साथ रख कर चलते थे। मुलायम सिंह यादव के अधिकतर राजनीतिक निर्णयों को उनके छोटे भाई शिवपाल यादव लागू कराते थे। शिवापाल यादव ने समाजवादी पार्टी को पूरे उत्तर प्रदेश में फैलाने और पार्टी की जड़ों को मजबूत करने की बहुत बडी भूमिका निभायी थी। शिवपाल यादव को अपमानित करने का कोई कसर अखिलेश ने नहीं छोडी।
अखिलेश बेशर्मी के साथ समाजवाद का प्रहरी होने का दावा करते हैं। पर क्या वे सही अर्थो में समाजवाद के प्रहरी माने और कहे जा सकते हैं? कदापि नहीं। समाजवाद के राजनीतिक जनक राममनोहर लोहिया परिवारवाद को अभिशाप कह कर आंदोलित रहते थे। अखिलेश यादव ने समाजवाद को परिवारवाद का रखैल बना दिया। अपनी लोकसभा सीट जब खाली की तब उस सीट से अपनी पत्नी को संसद में भेज दिया। क्या आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि समाजवादी पार्टी पर किसी अन्य का कभी भी वर्चस्व हो सकता है? जैसे कांग्रेस, राजद, अकाली दल आदि पार्टियों पर किसी अन्य का कभी भी वर्चस्व नहीं हो सकता है वैसे ही समाजवादी पार्टी पर सिर्फ और सिर्फ अखिलेश यादव और उनके आने वाले सतानों का ही वर्चस्व रहेगा।
मंदबुद्धि के राजनीतिक पुत्रों और पुत्रियों के लिए जनता का साफ संदेश है। सिर्फ वंशवादी विरासत के बल पर सत्ता की चाभी नहीं मिलने वाली है। राहुल गांधी प्रतिदिन मोदी का विध्वंस करने का सपना देखते हैं, लालू का परिवार पिछले सतरह सालों से सत्ता से दूर है। अखिलेश यादव भी अब फिर से पांच साल तक सत्ता से दूर रहेंगे। आगे भी उन्हें सत्ता मिलेगी कि नहीं,इसकी कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए राजनीतिज्ञ पुत्रों-पुत्रियों को अब खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए कि सिर्फ वंशवादी विरासत के बल पर सत्ता मिल जायेगी। अब राजनीति समझ और समर्पण के बल पर ही सरकार चलाने की चाभी मिल सकती है। निश्चित तौर पर अखिलेश यादव अपनी राजनीतिक नासमझी, आत्मघाती राजनीतिक निर्णयों और अनावश्यक बयानबाजी के कारण जनता के बीच राहुल गांधी की तरह ही अलोकप्रिय, कुचर्चित और मनोरंजन के पात्र बन रहे हैं।
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