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आतंकवाद इतिहास के पन्नों से

कश्मीरी आतंकवाद का पूरा सच अध्याय 9, मुगल काल और कश्मीरी पंडित

मुगल काल को छद्म इतिहासकारों ने भारत के इतिहास का स्वर्णिम युग कहने तक की मूर्खता की है। यद्यपि इस काल में हिन्दू विरोध की बयार बड़ी तेजी से बहती रही । कहीं पर भी ऐसा कोई आभास हमें नहीं होता जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि मुगल काल में भारत में हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू समाज ने किसी भी प्रकार से उन्नति की हो।

अकबर नहीं था एक जनहितैषी शासक

मुगल वंश के बादशाह अकबर के लिए प्रचलित इतिहास में प्रशंसा के बड़े पुल बांधे गए हैं। यद्यपि वह इस प्रकार की प्रशंसा का पात्र नहीं है। क्योंकि उसके शासनकाल में भी पूरे हिंदू समाज पर अत्याचार और दमन का दौर पूर्ववत जारी रहा। 1556 से 1605 ई0 तक शासन करने वाले इस मुगल बादशाह ने हिंदुओं के प्रति अपनी वैसी ही नीतियों को जारी रखा जैसी एक मुस्लिम शासक से अपेक्षा की जा सकती है। यदि अकबर उदार और हिंदुओं के प्रति विशालहृदयता का प्रदर्शन करने वाला शासक होता तो महाराणा प्रताप जैसे लोग उसका हृदय से स्वागत करते । यदि महाराणा प्रताप और उन जैसे अन्य अनेक हिंदू योद्धा अपने समय में अकबर और उसकी नीतियों का विरोध कर रहे थे तो इसका अर्थ यही था कि वह एक अत्याचारी शासक था, जिसे सहन किया जाना भारतीयता के विरुद्ध था।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारत ने प्राचीन काल से ही कंस जैसे उस प्रत्येक शासक का विरोध किया है जो जनविरोधी नीतियों को लागू करने वाला होता है। भारत ने कभी भी किसी आदर्श राजा का विरोध नहीं किया। इसी बात को अकबर के संदर्भ में हमें समझना चाहिए कि यदि भारतवर्ष में उस जैसे शासक का विरोध हो रहा था तो निश्चित रूप से वह जनहितैषी शासक नहीं था।
अकबर ने अपने शासनकाल में राजा भगवानदास को कश्मीर को विजय करने का आदेश देकर एक विशाल सेना के साथ भेजा था। युसूफ शाह ने कुछ देर ही भगवानदास की सेना का सामना किया था । बाद में वह स्वयं ही अकबर की सेना के साथ जा मिला था। इसके बाद कश्मीर याकूब चाक्क के हाथों में चला गया। जिसने सफलतापूर्वक भगवानदास की सेना का सामना करना आरंभ किया । उसके पराक्रमी स्वभाव के समक्ष भगवानदास को झुकना पड़ा था और संधि करके लौटने में ही उसने अपना भला देखा था। भगवानदास के पराजित होकर लौट जाने के पश्चात याकूब ने कश्मीर के हिंदुओं पर दमन और अत्याचार का चक्र चलाना आरंभ किया। घोर सांप्रदायिकता का शिकार बने हिंदू इधर-उधर छुप – छुपाकर अपना समय काटने के लिए बाध्य हो गए। कइयों ने कश्मीर को छोड़ दिया तो कई बलात मुस्लिम बना लिए गए। उनसे गुलाम का काम लिया जाता था और प्रत्येक प्रकार से उपेक्षा और उत्पीड़न का व्यवहार उनके साथ किया जाता था। हिंदू उस समय नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। संसार की सबसे श्रेष्ठ आर्य जाति का प्रतिनिधि होकर भी हिंदू को सर्वत्र ताड़ना, प्रताड़ना, लताड़ना और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा था। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही भयानक और वेदनापूर्ण थी।

मुगलों के शासन काल में कश्मीरी पंडितों की स्थिति

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब कश्मीर अकबर के अधीन हुआ तो हिंदुओं पर अत्याचार में कुछ कमी आई। इसका कारण यह नहीं था कि अकबर हिंदू प्रेमी था, अपितु इसका कारण यह था कि अकबर की राजधानी से कश्मीर दूर पड़ती थी। जिससे वह सीधे हिंदुओं पर अत्याचार नहीं कर पाता था। जबकि कश्मीर के स्थानीय राजाओं के लिए हिंदू पर अत्याचार करना अकबर की अपेक्षा कहीं अधिक सरल था। अकबर के द्वारा दूर से शासन सूत्र संभालने से स्थानीय हिंदू को कुछ राहत सी अनुभव हुई। कहा जाता है कि अकबर स्वयं भी कश्मीर में तीन बार गया था।
अकबर के समय में बहुत से हिंदुओं को फिर से कश्मीर में उनके मूल स्थानों पर बसाने की प्रक्रिया आरंभ करने के लिए आदित्य पंडित नामक एक कश्मीरी ब्राह्मण को एक विशेष मंत्रालय का प्रमुख बना दिया गया था। इसके शासनकाल में प्रशासन में भी कश्मीरी पंडितों का वर्चस्व बढा।
अकबर के पश्चात उसके उत्तराधिकारी जहांगीर ने भी अपने पिता जैसी नीतियों को ही कश्मीर के संदर्भ में लागू किया। जिससे इस काल में भी हिंदू उत्पीड़न उतना अधिक नहीं हुआ जितना अबसे पहले के शासकों के समय में होता रहा था। इतिहासकारों का मानना है कि न्यूनाधिक इसी परंपरा को शाहजहां के शासनकाल में भी अपनाया जाता रहा।

हमारी अपनी मान्यता है कि….

हमारा मानना है कि कश्मीर मुगल काल तक अपना पुराना वैभव लगभग पूर्णतया खो चुका था। हिंदू ऋषियों की परंपरा भी पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। हिंदुओं के गुरुकुल और शिक्षा के केंद्रों का ध्वस्तीकरण भी हो चुका था। इसी प्रकार हिंदुओं के धर्मस्थलों अर्थात मंदिर आदि को भी जितना मिटाया जा सकता था, उन्हें मिटा दिया गया था । हिंदुओं के भीतर अपना शासन स्थापित करने की शक्ति भी अब तक लगभग क्षीण हो चुकी थी।
इसका अभिप्राय है कि कश्मीर को दारुल – इस्लाम बनाने के काम में और कश्मीर की राजनीति का इस्लामीकरण करने में इस्लाम के मानने वाले लगभग सफल हो चुके थे। अब मुगलों को इसमें विशेष परिवर्द्धन करने की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही थी। इस्लाम की सेवा के लिए जितना काम अब से पहले हो सकता था वह हो चुका था। उस समय हिंदू जाति की दयनीय अवस्था को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि इस जाति की जितनी अधिक दयनीय स्थिति हो सकती थी , वह हो चुकी थी।
यदि मुगलों का काल वास्तव में उदार शासकों का काल था या वे वास्तव में हिंदू प्रेमी थे तो उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वह हिंदू मंदिरों, धर्मस्थलों शिक्षा के केंद्र गुरुकुल आदि की पहले जैसी व्यवस्था पर बल देते । इन सबको पूर्व की स्थिति में लाने के लिए अपनी ओर से विशेष आर्थिक सहायता प्रदान करते और हिंदुओं का ह्रदय जीतने के लिए उन्हें प्रत्येक प्रकार की उन्नति करने के समान अवसर उपलब्ध कराते। इसके अतिरिक्त हिंदुओं को अपने धर्म को फिर से स्वीकार करने की पूरी छूट प्रदान करते , परंतु अकबर से लेकर शाहजहां के शासनकाल तक ऐसा कोई संकेत या कोई बड़ा कार्य होता हुआ हमें दिखाई नहीं देता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इन मुगल बादशाहों के समय में कश्मीर के हिंदुओं की स्थिति और सामाजिक दशा बहुत ही संतोषजनक थी।
हिंदुओं को अबसे पूर्व के मुस्लिम शासन काल में जितना निचोड़ा जा सकता था उतना निचोड़ लिया गया था। अब जब उनके पास निचोड़ने के लिए कुछ रहा ही नहीं था तो उन्हें गुलाम की सी स्थिति में बनाए रखने को मुगलों की उदार नीति नहीं कहा जा सकता । उदारता का अभिप्राय है कि किसी भी जाति वर्ग या सम्प्रदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का सम्मान किया जाएगा। उन्हें धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाएगा। किसी भी जाति ,वर्ग या संप्रदाय के विरुद्ध ऐसा अभियान नहीं चलाया जाएगा जिससे उसके अधिकारों का हनन होता हो। अकबर आदि मुगल बादशाहों के समय में हमें ऐसा दिखाई नहीं देता कि कश्मीर के हिंदू अपने पूर्ण अधिकारों का उपभोग कर रहे थे।

स्थिति का एक पक्ष यह भी था

इसके उपरांत भी हम इतना अवश्य संतोष कर सकते हैं कि मुगल काल में यदि हिंदुओं को बहुत अधिक अधिकार नहीं दिए गए तो उन्हें बहुत अधिक सताया भी नहीं गया। इसी स्थिति को मुगलों की कश्मीर के प्रति उदार नीति का जाता है। अब यह नीति उदार थी या अपना स्वार्थ सिद्ध होने पर मन ही मन प्रसन्न रहने की मुगलों की मानसिकता को प्रदर्शित कराने वाली नीति थी, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
कहा जाता है कि एक बार जहांगीर झेलम नदी के किनारे अपने ही एक पुराने दरबारी सरदार मुहब्बत खान और उसके सैनिकों द्वारा घेर लिया गया था। यह घड़ी वास्तव में जहांगीर के लिए प्राणों को गंवा देने की घड़ी थी। मृत्यु का संकट उसके सामने आ उपस्थित हुआ था। दूर-दूर तक उसे ऐसी संभावना नहीं दिखाई दे रही थी कि अब वह मुहब्बत खान और उसके सैनिकों से बच पाएगा । तब संकट की इस घड़ी में मीरू पंडित नामक एक हिंदू ने नूरजहां के सुरक्षा बलों के साथ जाकर मोहब्बत खान को युद्ध में पराजित किया था। इस प्रकार मीरू पंडित ने अपने संस्कारों को प्रकट करते हुए अपनी वीरता, पराक्रम और स्वामीभक्ति का परिचय देकर जहांगीर का मन जीत लिया। इस घटना का उल्लेख करते हुए इतिहासकार मोहम्मद दीन फाक ने लिखा है – ‘मीरू पंडित की इस बहादुरी और कुशल सैन्य संचालन को देखकर जहांगीर ने इसे कश्मीर में जागीरें प्रदान कीं और पूरे प्रदेश के किलों की सुरक्षा हेतु प्रमुख सेनापति नियुक्त कर दिया।’
इस प्रकार की जहांगीर की नीति को ही हिंदुओं के प्रति उसकी उदार नीति कहा जाता है। यहां पर यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो पता चलता है कि जहांगीर ने हिंदू मीरू पंडित के साथ यह उदारता केवल इसलिए दिखाई थी कि मीरू ने उसके प्राणों की रक्षा की थी। यह बहुत संभव है कि जब मीरू पंडित को इस प्रदेश के किलों का प्रमुख सेनापति नियुक्त कर दिया गया तो उसने अपने स्थानीय हिंदू भाइयों के साथ उदारता का व्यवहार किया होगा। जिसकी उससे अपेक्षा भी की जा सकती है । इस प्रकार यदि उस समय हिंदू सुरक्षित रह सके तो उसका कारण केवल यह था कि जहांगीर की ओर से एक हिंदू अधिकारी को प्रदेश के किलों का प्रभारी बना दिया गया था। यद्यपि इस अधिकारी को भी इतने अधिकार प्रदान नहीं किए गए थे कि वह हिंदुओं के मंदिरों का जीर्णोद्धार करा सके।

कश्मीर की विरासत और शाहजहां

कहा जाता है कि जहांगीर के बाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले शाहजहां ने कश्मीर में अनेक बाग और चश्मे बनवाए। प्रसिद्ध शालीमार, निशात, चश्मे शाही इत्यादि अनेक बागों का निर्माण हुआ। इन सबने कश्मीर प्रदेश में शांति, सुख और समृद्धि को लाने में अपनी भूमिका निभाई, परंतु यह निर्माण एवं विकास भी विदेशी मुगलिया शैली के थे। कश्मीर की प्राचीन निर्माण शैली वास्तुकला लुप्त हो गई । हिंदुओं का कला कौशल पुनर्स्थापित ना हो सका। अतः हिंदुओं की वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान और यहां तक कि सामाजिक रीति रिवाज भी मुगलिया ठाठ बाट के प्रभाव में आते चले गए।’
( हमारी भूलों का स्मारक : धर्मांतरित कश्मीर , नरेंद्र सहगल – पृष्ठ – 133)
इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि शाहजहां के समय में कश्मीर की विरासत पर भयंकर आक्रमण हुआ। कश्मीर के हिंदुओं को चाहे अपने मूल स्थान पर ही रहने दिया गया परंतु उनकी सांस्कृतिक विरासत को ध्वस्त करने की प्रक्रिया धीरे धीरे तेज कर दी गई। बहुत ही षड़यंत्रपूर्ण ढंग से और बहुत ही सावधानी बरते हुए कश्मीरी विरासत को मिटाकर मुगलिया विरासत को उन पर थोपने का कार्य किया जाने लगा। शाहजहां के द्वारा अपनाई गई इस प्रकार की नीति से आज की तथाकथित ‘गंगा जमुनी तहजीब’ का तेजी से विकास होना आरंभ हुआ।

हिंदुओं का तात्कालिक आपद-धर्म

कश्मीरी हिंदुओं ने अपना अस्तित्व सुरक्षित बनाए रखने को प्राथमिकता देते हुए देश – काल – परिस्थिति के अनुसार इस बात को भी अपने लिए उचित समझा कि यदि खान-पान, वेशभूषा, बोलचाल आदि को मुगलिया ढंग से अपना लेने पर भी अपना अस्तित्व अर्थात धर्म बचा रह सकता है तो कुछ देर के लिए ऐसा भी सही। उस समय हिंदुओं ने इसे अपना तात्कालिक धर्म मान कर स्वीकार कर लिया था।
इस प्रकार हिंदुओं ने इसे संक्रमणकालीन समस्या का एक समाधान मानकर स्वीकार किया। इसका अभिप्राय यह नहीं था कि उन्होंने इस प्रकार के खान-पान ,वेशभूषा, बोलचाल आदि को स्थायी रूप से अपना लिया था। हिंदू समाज उस समय भी यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि मुगलों का रहना – सहना, खाना-पीना, वेशभूषा, बोलचाल आदि उनसे उत्कृष्ट हैं और वे इसीलिए इन्हें अपना रहे हैं। यद्यपि कालांतर में देर तक इन्हें अपनाये रहने से यह भ्रांति आवश्यक उत्पन्न हो गई कि कश्मीर के तथाकथित पंडितों अर्थात ज्ञानीजनों को मुगलों ने ही रहना – सहना, खाना – पीना आदि सिखाया था। इससे पहले वह कुछ नहीं जानते थे। इस काल में ही नहीं आज तक भी किसी ने इस ओर नहीं सोचा कि कश्मीर की आत्मा इस तथाकथित गंगा जमुनी तहजीब को कभी भी अपना नहीं सकी। क्योंकि वह वैदिक ऋषियों के मानवतावादी उत्कृष्ट चिंतन, उनके रहन-सहन, उनकी सभ्यता और उनकी संस्कृति की उत्कृष्टता और गुणवत्ता को देख चुकी थी।

मुगलों के बारे में भ्रान्ति

ऐसी भ्रांति पालने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि मुगल काल से पहले जिन हिंदुओं को कश्मीर में रहने-सहने तक का ठिकाना नहीं मिल रहा था और वे इधर-उधर भागते-दौड़ते फिर रहे थे या जिन्हें अपने मूल स्थानों से उजाड़-उजाड़कर भगाया जा रहा था , उन्होंने इस परिस्थिति को अपना आपद-धर्म मानकर स्वीकार कर लिया था। यदि मुगलकालीन बादशाह विशेष रूप से अकबर, जहांगीर और शाहजहां वास्तव में हिंदू प्रेमी थे और उन्हें कश्मीर के हिंदुओं और उनकी संस्कृति से प्रेम था या वे यह चाहते थे कि कश्मीर के पंडित अपनी संस्कृति और धर्म का पालन करते हुए कश्मीर की पुरानी ललित कला, साहित्य, सांस्कृतिक मूल्यों आदि को अपना सकते हैं तो वह उन्हें ऐसा करने के लिए पूर्ण अधिकार प्रदान करते। अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों से और भारत के सांस्कृतिक इतिहास के वैभव पूर्ण पृष्ठों को पलटने से पता चलता है कि कश्मीर के पंडितों को किसी मुगलिया संस्कृति को अपनाने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वह स्वयं ही एक ऐसी वैश्विक वैदिक संस्कृति का नेतृत्व करते थे जो संसार में अप्रतिम थी।
इसके उपरांत भी यदि उन्हें अपनी इस अप्रतिम वैदिक संस्कृति को अपनाने से रोका गया और उन पर अपने विचारों को थोपा गया तो इसका अभिप्राय है कि तथाकथित उदार मुगल बादशाहों की उदारतापूर्ण नीतियों में कहीं न कहीं दोष था।
बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ रहा है कि मुगलों ने भी कश्मीर को उजाड़ने और उसका इस्लामीकरण करने में ही प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष अपना सहयोग दिया था। उन्होंने कश्मीर के मौलिक स्वरूप को उजाड़ कर नई कश्मीरियत को जन्म दिया। जिसे आज स्थायी कश्मीरियत के नाम से समझाने का प्रयास किया जा रहा है।
मुगलों की इस तथाकथित नीति ने अपने इतिहासकारों के मन मस्तिष्क को इनकी कश्मीरियत तक ही बांध दिया। जिसका परिणाम यह हुआ है कि हमने अपनी वैदिक संस्कृति के काल में फूलने – फलने वाले कश्मीर की कल्पना तक करना छोड़ दिया है और यह मान लिया है कि कश्मीर जो कुछ भी है वह मुगलों और मुसलमान सुल्तानों के कारण है। कश्मीर के संदर्भ में हमारी इस प्रकार की सोच व चिंतन ने कश्मीर के वैदिक इतिहास को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया है।

वैदिक ऋषियों का कश्मीर

भोगलिप्सा से दूर और भौतिकवाद से पीठ फेरे हुए कश्मीर के शांत और एकांत वातावरण में जब हमारे वैदिक ऋषि अपना उत्कृष्ट चिंतन प्रस्तुत किया करते थे तो वह आत्मा – परमात्मा के योग की साक्षात मूर्ति हो जाया करते थे । तब कश्मीर की संस्कृति संसार को अप्रतिम संदेश देती हुई अनुभव हुआ करती थी। यह स्थिति आज की उस कश्मीरियत से सर्वथा भिन्न थी जो भोगलिप्सा और भौतिकवाद में लिप्त होकर कश्मीर की योगभूमि को ही भोगभूमि बना चुकी है। मुगलिया सांस्कृतिक विरासत ने कश्मीर को आतंकवादियों का गढ़ बना दिया है। जिसके चलते कश्मीर में सर्वत्र हिंसा और कामवासना अर्थात बलात्कार का प्राबल्य हो गया है। जबकि वैदिक संस्कृति के ऋषियों की पवित्र भूमि रही कश्मीर संसार से आतंकवाद को मिटाकर शांति का साम्राज्य स्थापित करने की संदेशवाहिका हुआ करती थी। उस समय का कश्मीर हिंसा और कामवासना के विषय में सोच भी नहीं सकता था। वास्तव में वैदिक ऋषियों का वही कश्मीर धरती का स्वर्ग होता था।

औरंगजेब की कश्मीर नीति और गुरु तेग बहादुर

मुगल वंश के सर्वाधिक क्रूर बादशाह रहे औरंगजेब ने कश्मीर में रही सही हिंदू विरासत को नष्ट करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। उसने कश्मीर से सीधा संबंध और संवाद स्थापित किया और इसके हिन्दू स्वरूप को मिटाने के लिए एक से बढ़कर एक योजना बनाई । उसने अपने शासनकाल के 49 वर्षों में 14 सूबेदारों को कश्मीर में अपने इस प्रकार के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नियुक्त किया था। इफ्तार खान नाम के सूबेदार ने 1671 से 1675 ई0 के बीच के अपने कार्यकाल में कश्मीर के हिंदुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए और कितने ही हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया।
औरंगजेब की निर्दयता और अत्याचारपूर्ण नीति से उत्पीड़ित और दु:खी होकर ही कश्मीर के पंडित लोग गुरु तेग बहादुर से जाकर मिले थे और उनसे अपने धर्म की रक्षा की गुहार लगाई थी। गुरु तेग बहादुर उस समय हिंदुओं के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए कश्मीर के पंडितों को वचन दिया । उसके पश्चात गुरु जी ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया।
उस समय के कश्मीर के पंडितों की करुणगाथा गुरुजी के समक्ष पंडित कृपाराम दत्त ने व्यक्त की थी। जिसे ज्ञानी ज्ञान सिंह ने अपनी पुस्तक ‘श्री गुरु ग्रंथ प्रकाश’ में उल्लेखित किया है। सितंबर 1991 में इसे ‘पाञ्चजन्य’ में प्रकाशित किया गया था।
‘ चुगताई वंश का मुगल यह जो औरंगजेब है ,यह अति कुपात्र है। यह मदमत्त होकर दिल्ली के शासन पर बैठा है । यह गैर मुसलमानों के विषय में प्रभु की सत्ता को नहीं मानता। इस अत्याचारी ने कुकर्म करने की ठान ली है। वह भारतवर्ष की सारी धरती को अपने दीन के रंग में रंग कर मुसलमानी बना देना चाहता है । इस अभिमानी ने देवी देवताओं के सभी मंदिर बिना देर लगाए गिरवा दिए हैं। यह निगम – आगम की प्राचीन रीति और सुकृतनीति का लोप कर देना चाहता है। देवों- पितरों, ईश्वर का भजन और साधु संगत को रहने नहीं देता। पौराणिक कथाओं का प्रचार, तीर्थों का माहात्म्य और देवों की अर्चना सब लुप्त हो गई है। दूसरी ओर मस्जिदों का निर्माण और कुरान का प्रचार प्रसार भारतवर्ष में बहुत बढ़ गया है, न जाने आगे क्या क्या होगा ?
कुछ लोभ दिखाकर और अत्याचार की सहायता से इसने बहुत से हिंदुओं को मुसलमान बना लिया है। बहुत से हिंदुओं के यज्ञोपवीत उतरवाकर और तिलक चटवा कर तुरकपति ने उन्हें अत्यंत संतप्त किया है । इस प्रकार भारतवर्ष में हिंदुओं पर महान आपदा आ पड़ी है। यह अनगिनत दुख देता है। इसके अत्याचारों की कोई तुलना नहीं । यह नित्य ही सवा मन यज्ञोपवीत उतरवा देता है। इन मुसलमानों ने जोर जबरदस्ती करके किसी की लोक लाज नहीं छोड़ी। इस दुष्ट शासक ने हिंदुओं की बहुत सारी बेटियां बलपूर्वक छीन ली हैं और दुष्टजनों की भेंट चढ़ा दी हैं । इन सभी विपत्तियों के निवारण के लिए हम सबने मिलकर विचार किया है और सब धर्म की रक्षा के लिए आप की शरण ली है, अब आप ही हमें बचाएं।’

औरंगजेब से गुरु जी का संवाद

गुरु तेग बहादुर ने धर्म के भाई कश्मीरी पंडितों का साथ देने का निर्णय लिया। वे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए औरंगजेब के दरबार के लिए प्रस्थान करते हैं। जब गुरु तेग बहादुर औरंगजेब के दरबार में पहुंचे तो वहां औरंगजेब ने उन्हें इस बात के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया कि वह हिंदुओं की सहायता ना करें, क्योंकि हिन्दू सिखों से अलग होते हैं। लेकिन औरंगजेब की इस प्रकार की विभेदकारी नीति का गुरु तेग बहादुर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने अपने तर्कों से उल्टे औरंगजेब को ही निरुत्तर कर दिया। हमने अपनी पुस्तक ‘हिंदूराष्ट्र स्वप्नद्रष्टा : बंदा वीर बैरागी’ में इस संवाद पर विशेष प्रकाश डाला है। औरंगजेब के इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते हुए गुरु तेग बहादुर ने उसे वेदों, उपनिषदों के माध्यम से बहुत ही गहराई से समझाना आरंभ किया। गुरु तेग बहादुर इन सारे शास्त्रों का बहुत ही गंभीर ज्ञान रखते थे । उन्होंने मानवता को परम धर्म सिद्ध किया और औरंगजेब पर उल्टा इस बात के लिए दबाव बनाया कि वह अपनी हिंदू प्रजा के साथ भी न्यायपूर्ण व्यवहार करे। गुरुजी ने औरंगजेब को समझाया कि परमपिता परमेश्वर की न्याय व्यवस्था में सभी प्राणी समान हैं। ऐसा नहीं है कि वह मुसलमानों के लिए कुछ अलग व्यवस्था करता है और हिंदुओं के लिए कोई दूसरी व्यवस्था करता है । वह मनुष्य मनुष्य के बीच किसी प्रकार का विभेद नहीं करता। इसी प्रकार के कार्य को प्रभु के सच्चे भक्तों को अपनाना चाहिए।
गुरु तेगबहादुर ने वैदिक धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करते हुए कश्मीरी पंडितों पर आई इस महान विपदा को राष्ट्र की विपदा माना और उसके निवारण के लिए अपने आपको सहर्ष प्रस्तुत कर दिया। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अनेकों कष्ट सहे । उनके साथ भाई सती दास और भाई मती दास एवम उन जैसे अन्य कई हिंदू वीरों ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग किया। उनका यह महान कार्य कश्मीर के इतिहास का एक ऐसा स्वर्णिम पृष्ठ है जिस पर हम और आगे आने वाली पीढ़ियां गर्व करती रहेंगी। गुरु तेग बहादुर जी और उनके वीर बलिदानी शिष्यों के बलिदान की कहानी के बिना कश्मीर का इतिहास अधूरा रह जाता है।
आज जो लोग गुरु तेग बहादुर के शिष्य होकर भी मुसलमानों के हाथों में खेल रहे हैं और मां भारती के टुकड़े करने की साजिशों में अपनी सहभागिता निभा रहे हैं उन्हें गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बलिदानी महापुरुषों के जीवन को अवश्य समझना चाहिए। उन्हें अपनी अंतरात्मा से पूछना चाहिए कि हिंदुत्व की रक्षा के लिए गुरु तेग बहादुर और उन जैसे बलिदानियों के बलिदान के साथ वह कितना न्याय कर रहे हैं ?
कुल मिलाकर मुगल काल में कश्मीर ने अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे। शासकों की छद्म नीतियों की छद्मछाया के नीचे उन्हें कभी – कभी कुछ सुख की अनुभूति तो हुई परंतु उनके घाव हरे बने रहे। क्योंकि किसी भी मुगल शासक ने वीरान पड़े मंदिरों को फिर से निर्मित कराने की अनुमति किसी हिंदू को नहीं दी। वह गुलाम की भान्ति कश्मीर में रह सकते थे परंतु अपने धार्मिक क्रियाकलापों को पूर्ण करने और अपने धर्म स्थलों के निर्माण की अनुमति उन्हें किसी भी मुगल बादशाह के काल में नहीं रही।
क्रमश:

डॉ राकेश कुमार आर्य

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