बीच बहस में भूकंप के सामने तमाशबीन देश
प्रक़ति के बीच के तालमेल को लेकर चल रही बहस की भारत में गुंजाइश तक ना होने का रोना रोया जा रहा है । गजब के नजरिये से भारत को देखने समझने की गुंजाइश न्यूज चैनलों के स्क्रीन से लेकर जेएनयू और आईआईटी के गेट पर युवाओ के जमावडों के बीच पैदा हो चली है ।पहले बेमौसम बारिश , फिर ओलावृष्टि, उसके बाद तूफानी हवा और अब भूंकप । क्या यह सब सिर्फ प्राकृतिक विपदा या प्रकृति के बदलाव के संकेत है या प्रकृति के साथ मनुष्य के खिलवाड का नतीजा । हो जो भी लेकिन प्रकृति को समझने या प्रकृति को उसके मुताबिक ना चलने देने की बहस तो पैदा हुई ही है । और वही लोग प्रकृति के साथ विकास के नाम पर खिलवाड को लेकर परेशान हो चले है जो विकास की चकाचौंध में सुविधाओं से लैस होने के लिये मचल रहे हैं । कमाल यह है कि दो दिनो में दो बार भूंकप के झटके ने दो तरह से लोगों को सोचने के लिये मजबूर कर दिया है । पहला जमीन पर तकनीक का बोझ ना डाले और दूसरा तकनीक के आसरे प्राकृतिक आपदा से बचने के उपाय खोज लिये जायें । यह अलग मसला है कि कि दोनों ही क्षेत्र में कोई काम सरकारों ने किया नहीं । जनता ने रुचि दिखायी नहीं । और बडे बुजुर्गों का यही ककहरा हर किसी को याद रह गया कि प्रकृति के सामने तो विज्ञान भी नहीं टिक पायेगा या जब धरती डोलेगी तो मानव की कोई भी ताकत उसे रोक ना पायेगी । लेकिन झटके में अब हर किसी को स्मार्ट सिटी नहीं स्मार्ट गांव याद आने लगे हैं । पेड़ पौधो के साथ खेत फसल से लेकर गाय को बचाने तक के शिगूफे चल पड़े हैं । तो दूसरी तरफ जापान की तर्ज पर हर इमारत को भूंकपरोधी बनाने की दिशा में नियम-कायदो का जिक्र हो चला है । डिजास्टर मैनेजमेंट के रेवेन्यू मंत्रालय के अधीन होने पर सरकार की सोच पर हंसा जा रहा है और दुनिया के तमाम देशों में विकास और
वैसे भूंकप के बाद उठते सवाल शनिवार-रविवार की बहस का हिस्सा बनेंगे ही नहीं बल्कि देश के आर्थिक सुधार पर अंगुली उठा देगी यह तो कभी नई पीढी के युवाओं के बीच खड़े होकर
जाना समझा नहीं । लेकिन भूंकप ने विकास को लेकर उठते सवालों को जितना आयाम दिया वह संभवत भू-वैज्ञानिकों के इस मत पर भारी पड जाये कि भूकंप की वजह टोक्टोनिक प्लेट का टकराना मात्र है । या फिर भारतीय टोक्टोनिक प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकरा कर नीचे दबते चले जाने की प्रक्रिया अभी भी जारी है । यानी हिमालय क्षेत्र में जमीन के हिलने की वजह भारतीय प्लेट के उपर हिमालय के बढते बोझ से फाल्ट के पैदा होने और उस गैप को भरने की प्रक्रिया भर है । तो वैज्ञानिक जो बताये लेकिन दिल्ली की बहस के बीच यह सवाल कही ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है कि हिमालय के साथ खिलवाड़ । हिमालय रेंज में निर्माण भूकंप के लिये रास्ते बना रहा है । और टाइटोनिक प्लेट भी अगर टकरा रही है तो उसकी बडी वजह खनिज संपदा से लेकर जमीन पर प्रकृति का खुला दोहन ही सच है । लेकिन दोहन को लेकर नजरिया सिर्फ पेडों के काटने या परमाणु संयत्र के लगाने भर का नहीं है । और ना ही तकनीक पर टिकी जिन्दगी को ही विकास मानना है । बल्कि अर्से बाद भूकंप ने उन सवालों को जन्म दिया है जो सवाल नई पीढी के रोजगार के रास्ते बाधक है । मसलन खेती के जरिये देश की जीडीपी बढ नहीं सकती । लेकिन जीडीपी के बढने से देश का पेट भी नहीं भरता । ज्यादा से ज्यादा शहर बनाने की वकालत के बाद स्मार्ट सिटी का मतलब होगा क्या । जब भारत की नई पहचान दुनिया के सबसे ज्यादा बेरोजगार और गरीब शहरी के तौर पर होने लगी है तो फिर गांव को और बेहतर
गांव बनाने से आगे शहर में तब्दिल करना करने का फैसला कहा तक सही है । जितनी बडी तादाद में खेती की जमीन पर उघोग बने उतनी बडी तादाद में रोजगार क्यों नहीं मिले । खेती पर टिके लोगों की जिन्दगी अगर सिर्फ दो जून की रोटी ही उपलब्ध करा पाती है तो उद्योगों के भरोसे खेती पर टिके लोगो के रोजगार छिनने की एवज में सिर्फ तीन फिसदी लोगो को ही रोजगार मिलता है ।
इसी तरह जितनी खनिज संपदा उड़ीसा और झारखंड से लेकर बेल्लारी तक निकाल कर दुनिया के बाजारों में बेची गई उसके एवज में देश की चौबिस कंपनियों के टर्न ओवर में तो दो हजार फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ लेकिन जिस जमीन को खोखला किया गया वहा से ग्रामीण आदिवासियों के पलायन के साथ साथ बंजर जमीन का भी जन्म हुआ । राजस्थान, कर्नाटक, झारखंड , उड़ीसा और तेलगांना में ही सिर्फ बीस लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन नंगी पड़ी है । यानी वहां ना तो रिहाइश है और ना ही जमीन के नीचे पानी को बांधने वाले जमीन के उपर कोई हालात है । कमाल तो यह है कि दिल्ली आईआईटी के ही एक छात्र ने चर्चा में यह भी जानकारी दी कि देश में लग अलग वजहो से चाहे ग्रामीण आदिवासियों का पलायन होता रहा हो लेकिन सभी किसी सरकार ने यह नही बताया कि पानी की वजह से भी देश में लाखों लोगों का अपना पुश्तैनी घर-जमीन सबकुछ चोड कर जाना पड़ा । यानी सिर्फ डैम या पावर प्लाट की वजह से नहीं बल्कि देश में ऐसी जगहें हैं जहां जमीन के नीचे पानी बचा नहीं है । या फिर कुंओं के जरीये पानी निकालना मुश्किल है । या फिर पीने लायक पानी ही उपलब्ध नहीं है । इस तरह की जमीनों से आजादी के बाद से 2011 करीब 76 लाख लोग घरबार छोड़ चुके हैं । जबकि सरकारी योजना के दायरे में उघोगों की वजह से करीब 20 लाख लोगों का ही पलायन हुआ है । और खनन या खादान के वजहों से चौदह लाख लोग विस्थापित हो गये । यानी देश में आजादी के बाद अगर सरकारी कड़े साढे छह करोड़ लोगों को विस्थापित बताते हैं तो उसके भीतर का सच यह है कि इनमें से एक करोड लोग पानी और पर्यावरण की वजह से विस्थापित हुये हैं। यानी देश में विकास को लेकर जो भी अविरल धारा नेहरु के दौर से खिंचने का प्रयास हुआ है और मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री मोदी खिंचना चाह रहे है , संयोग से उसी पढने-लिखने वाली युवा पीढी को उनकी नीतियां संतुष्ट कर नहीं पा रही हैं , जिन्हें आधुनिक मेक इन इंडिया से जोडने का खवाब भी संजोया जा रहा है । तो कया सरकार की सोच और आईआईटी-जेएनयू के छात्रो से लेकर भूकंप को जानने समझने वाले विशेषज्ञों की नजर में भारत को आगे बढ़ाने के रास्ते अलग हैं । रास्ते अलग नहीं है लेकिन विकास किसके लिये और विकास की किमत के बदले खोने वालों की हथेली पर बचता क्या है इसका कोई ब्लूं प्रिट अगर किसी सरकार के पास नहीं है तो फिर भूकंप से मरने वालों की तादाद कितनी भी बडी क्यों ना हो वह कम लगेगी । क्योंकि न्यूज चैनलों पर किसानो के संकट के वक्त लगातार तल रहा था कि बीत बीस बरस में तीन लाख बीस हजार किसानों ने खुदकुशी कर ली । आर्थिक सुधार के बाद से यानी 1991 से लेकर 2011 तक 85 लाख किसानों ने किसानी छोड़ दी ।
इसी दौर में देश में खेतीहर मजदूरों की तादाद में तीन करोड़ से ज्यादा का इजाफा हो गया । और इसी दौर में देश के टॉप दस कारपोरेट के टर्नओवर खेती की उस जबट के बराबर हो गया जिसपर देश के अस्सी करोड़ लोग टिके हैं । इसी दौर में देश में इतना निर्माण हुआ जितना 1947 से लेकर 1995 तक हुआ था । यानी सड़क से लेकर रिहाइशी घर और उघोगो से लेकर बांध और सड़क तक जितना भी निर्माण हुआ है उसने बीते पांच दशकों के निर्माण की बराबरी कर ली है । यानी जो भूकंप 1934 में आया था और जिसने हिमालय से लेकर बिहार के मुंगेर तक एसी तबाही मचायी थी कि लाखो लोग बेधर हो गये थे । करीब आठ हजार लोगो की मौत बिहार में हुई थी । अगर उस तरह का भूकंप दोबोरा आये तो मौक के आंकडों के सामने गिनती छोटी पड़ जायेगी क्योंकि सारी मौतों की वजह निर्माणधीन इमारतें ही रही है । जेएनयू के छात्रो के बीच चर्चा में राजनीतिक घोल तो आयेगा तो फिर आंकडें भी खुल कर सामने आ गये कि सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के दौर में भी देश की 25 कंपनियों-कारपोरेट को जो जमीन दी गई उसमें 70 पिसदी से ज्यादा तो खेती की जमीन ही थी । दिल्ली
से सटे गुडगाव में रिलायंस को 10117 हेक्टेयर जमीन दी गई । जहां ज्वार, बाजरा, धान, गेहू सब होता था । 49 गांव बर्बाद हो गये । इसी तरह महाराष्ट्र के रायगढ में तो 14 हजार हेक्टेयर जमीन पर रिलायंस इंडस्ठ्री
खड़ी हुई । यहा तो समूची जमीन ही खेती की थी । 47 गांव बर्बाद हुये लेकिन फिक्र किसे है । जो अब कांग्रेस मोदी को कारपोरेट की बताते हैं और मोदी भी अंबानी अडानी को नहीं कहकर सभी को खुश कर देते है । तो फिर अगला सवाल भूस्खलन का होगा । क्योंकि भूस्खलन ना हो इसके लिये प्रकृति के सारे रास्ते विकास के नाम पर ही खत्म कर दिये गये है । सरकार का नजरिये किस हद तक प्रकृति के खिलाफ है या पर्यावरण उसकी किताब से बाहर की चीज है यह जेएनयू के छात्र के इस तर्क से ही उभर आया कि देश में एसईजेड के नाम पर सिर्फ पांच राज्य महाराष्ट्र,आध्र प्रदेश, यूपी, राजस्थान और गुजरात में जो जमीन ली गई उसमें से 45 फिसदी जमीन ना तो किसी के हवाले की गई ना ही जमीन पर किसान या स्थानीय ग्रमीणो को कोई उपज उपजाने की इजाजत दी गई । आसम यह है कि देश में एसाईजेड की दो लाख पचपन हजार हेक्टेयर जमीन पडी पडी बंजर हो गई । और करीब पौने दो लाख जमीन उधोगो के हवाले कर भी बिना काम पड़ी है क्योकि उसपर निर्माणाधीन उघोगों को कुछ और जमीन चाहिये लेकिन अब उसे ले कैसे यह सियासी आंदोलन के सौदेबाजी में जा फंसा है । यानी सवाल सिर्फ एसी , फ्रिज और सडको पर दौडती तीस करोड से ज्यादा दौड़ती गाडियों भर का नहीं है । बल्कि भूकंप के हालात पैदा कर भूंकप के लिये सबसे अनुकुल जमीन पर रिहाइश की इजाजत देने की भी है । और भूंकप आने पर बचा कैसे जाये इस दिशा में आंख मूंद लेना भी है । क्योंकि दिल्ली ही सिस्मिक जोन नं 4 पर है । उसमें यमुना की जमीन पर खडी इमारतों की कतार के साथ साथ सरकारी इमारतें भी मौजूद हैं । लेकिन दिल्ली में कभी किसी स्तर पर इस सच को परखने की कोशिश की ही नहीं गई कम से कम यमुना की जमीन पर निर्माण होने वाली इमारतों को भूकंपरोधी बनाना जरुरी कर दिया जाये । आलम तो यह है कि कामनवेल्थ गेम्स के दौर में बनी इमारते भी पूरी तरह भूंकपरोधी नहीं है । जबकि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले बरस तो दिल्ली एनसीआर को लेकर चिंता जताते हुये हुये निर्माणाधीन इमारत को भूकंपरोधी बनाने की दिशा में कदम उठाने को कहा । विशेषज्ञों की मानें तो भूकंपरोधी तकनीक अपनाते हुये निर्माण करने में बीस से पच्चीस फिसदी खर्च ज्यादा लगता है । लेकिन दिल्ली में रिहाइश तो दूर माल और सिनेमाहाल तक भूकंपरोधी नहीं है । यानी प्रकृति के सामने कोई कुछ कर नहीं सकता यह सोच कर कर ही विकास की लकीर खिंच कर उसे जिन्दगी जीने के लिये जब सरकारी स्तर पर जरुरी बनाया जा रहा है तो फिर बचाने के लिये डिजास्टर मैनेटमेंट की सोच भी क्या कर लेगी । जिसके लिये अलग मंत्रालय नहीं है कोई अलग से मंत्री नहीं है । राजस्व मंत्रालय संभालने वाले मंत्री को ही भूकंप से प्रभावितों को बचाने के लिये उपाय खोजने हैं । है ना कमाल की सोच । जबकि इन सब के बीच भूगर्भ वैज्ञानिक जेके बंसल का मानना है कि नेपाल से 32 गुना अधिक शक्तिशाली भूकंप के आने की आशंका अभी हिमालय और उसके आसपास के इलाकों में बनी हुई है।