हम भूकंप से क्या सबक लें?
नेपाल, उत्तरी भारत और तिब्बत में आए भूकंप ने पूरे दक्षिण एशिया को हिलाकर रख दिया। हजारों लोग मारे गए, लाखों बेघर हो गए और अरबों—खरबों का नुकसान हो गया। नेपाल की अर्थव्यवस्था पहले से ही दयनीय अवस्था में थी। अब उसे अपने पांव पर खड़े होने में कई वर्ष लग जाएंगे। इस संकट की घड़ी में नेपाल की जो सहायता भारत कर रहा है, उसे नेपाली कभी भूल नहीं सकते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के अफसरों ने असाधारण मुस्तैदी दिखाई है। ज्यों ही भूकंप आया, कुछ नेपाली नेताओं को मैंने यह कहते सुना कि चीन और भारत दोनों हमारे पड़ौसी हैं। दोनों हमारी मदद करेंगे लेकिन भारत की मदद का मुकाबला कौन कर सकता है?
मोदी ने क्या खूब कहा कि हम नेपाल को पराया नहीं समझते। नेपाली लोग हमारे अपने हैं। हम कोई कसर उठा नहीं रखेंगे। चीन के मुकाबले तो आस्ट्रेलिया, अमेरिका और पाकिस्तान ने ज्यादा मदद का एलान कर दिया है। इस मदद का स्वागत है लेकिन इस प्रश्न पर बहस चलाना भी जरुरी है कि इस भूकंप से हम क्या सबक लें?
भूकंप को तो आना ही होता है। दुनिया में कोई वैज्ञानिक आज तक ऐसा नहीं हुआ है, जो यह दावा कर सके कि उसके पास भूकंप को रोकने का कोई पक्का गुर नहीं है। लगभग हर पचास साल में दुनिया के कुछ क्षेत्रों में भूकंप इसीलिए आता है कि पृथ्वी के अंदर के बड़े-बड़े धरातल एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरकते रहते हैं। उन्हें रोकने की कोई विधि मनुष्य जाति के पास नहीं है। तो हम क्या करें? हम यही कर सकते हैं कि भूकंप से होने वाली हानि को रोकें याने अपने मकान, दुकान, सड़कें, रेलें ऐसी बनाएं कि वे भूकंप के धक्कों को बर्दाश्त कर सकें। या तो लकड़ी के एक-दो मंजिल के ही मकान बनाएं या पक्के मकानों को भूकंपरोधी बनाएं। पांच साल पहले ताइवान की 101 वीं मंजिल में बैठे हम लोगों ने भयंकर भूकंप का अनुभव किया था। वह भवन खिलौने की तरह हिलने लगा लेकिन उसकी एक ईंट भी नहीं गिरी, क्योंकि उसके निर्माण के समय सारी सावधानियां बरती गई थीं। यही काम पूरे दक्षिण एशिया में हम क्यों नहीं कर सकते?
हम मनुष्यों से तो पशु ही अच्छे हैं, जिन्हें भूकंप या बाढ़ या दावानल की खबर पहले से ही हो जाती है। हमें भी हो सकती है, बशर्ते कि हम विज्ञान का लाभ उठाएं। हम जमीन पर बड़े-बड़े भवन बनाने के लिए तो पूरी तरह विज्ञान का सहारा लेते हैं लेकिन जमीन के नीचे याने भूगर्भ में चल रही हलचल से बेखबर रहते हैं। यह हमारे प्रकृति से दूर हो जाने का प्रमाण है जबकि पशु-पक्षी प्राकृतिक संकेतों को तुरंत समझ लेते हैं। क्या हम इस भूकंप से कुछ सबक लेंगे?