मन की बात सिर्फ भारत का प्रधानमंत्री ही कर सकता है लेकिन उस बात में वह भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दों पर पूरी बहस नहीं चला पाता। किसानों के लिए बन रहे इस कानून के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि खुद किसानों से कोई राय नहीं ले रहा है। याने सरकार किसानों को भेड़-बकरी समझकर कुछ भी कानून उन पर थोप रही है। दुनिया भर की सर्वेक्षण संस्थाएं भारत में कार्यरत हैं लेकिन अभी तक एक भी सर्वेक्षण ऐसा देखने में नहीं आया, जो बताए कि भूमि अधिग्रहण पर किसानों की राय क्या है?
मेरी राय में तो जो विधेयक अभी लोकसभा में पारित किया है, उसमें 2013 के कानून के वे दोनों प्रावधान जोड़े जाने चाहिए, जिनमें जमीन लेते वक्त किसानों की सहमति और जमीन लेने के सामाजिक परिणामों का मूल्यांकन किया जाता है। मेरा सुझाव तो यह है कि बिना सहमति के किसी भी किसान से जमीन नही ली जानी चाहिए बल्कि उल्टा होना चाहिए। जमीन पर मिल्कियत हमेशा किसानों की बनी रहनी चाहिए और राज्य या उद्योगपतियों को यदि उनकी जमीन चाहिए तो उन्हें सदा उसका किराया देते रहना चाहिए। सरकार चाहे तो किसानों को बड़ा कर्ज भी दे सकती है और वे अपनी समिति बनाकर अपनी जमीन पर खुद कारखाने का भवन या सड़क या अस्पताल या स्कूल बनाकर उसे किराए पर उठा सकते हैं। जो किसान स्वेच्छा से अपनी जमीन बेचना चाहे, उसे वैसी छूट होनी चाहिए।
हमारे 80 प्रतिशत किसानों के पास डेढ़—दो एकड़ के छोटे—छोटे खेत हैं, जिनसे उनका गुजारा नहीं चलता। वे उन्हें सहर्ष बेचना चाहेंगे या किराए पर देना चाहेंगे। ऐसे में उनके साथ जोर—जबर्दस्ती करना उचित नहीं है। लोकतांत्रिक नहीं है। यदि सरकार अपनी बात पर अड़ी रही तो वह बदनाम तो हो ही जाएगी, वह भारत में एक भौंदू नेतृत्व के पुनरोदय के लिए भी जिम्मेदार होगी।