डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
देश के अनेक जैन मंदिरों की श्रंखला में राजस्थान के रणकपुर जैन मन्दिर को धर्म और आस्था के साथ शिल्प का चमत्कार कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भारत में आश्चर्यों की कमी नहीं है। दुनिया में अद्भुत मंदिरों, गुफाओं और खूबसूरत विरासतों के लिए पहचान बनाने वाला हमारा देश बहुत सी चीजों के लिए खास है। खास विरासतों में से एक है संगमरमर का रणकपुर जैन मंदिर जो अपनी स्थापत्य कला के साथ नक्काशी और विशेष रूप से 1444 खंभों पर टिके होने के कारण पूरी दुनिया के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
रणकपुर के मन्दिर अरावली पर्वत श्रंखलाओं के मध्य उदयपुर से 96 किमी. दूरी पर पत्थरों के अनगढ़ सौन्दर्य और प्रकृति की भव्य हरीतिमा के बीच भारतीय शिल्प का अनूठा उदाहरण हैं। अपनी अद्भुत वास्तुकला और जैन संस्कृति के आध्यात्मिक वैभव के साथ मुखर हैं। यह मन्दिर निकटतम रेलवे स्टेशन फालना से 33 किमी. दूर पाली जिले में स्थित है।
प्राचीन जैन ग्रंथों में ‘‘नलिनी गुल्म’’ नामक देव विमान का उल्लेख मिलता है। रणकपुर के निकटवर्ति नान्दिया ग्राम के जैन श्रावक धरणशाह पोरवाल ने इस विमान की संरचना को स्वप्न में देखा था। उसने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को समर्पित ‘‘नलिनी गुल्म विमान’’ के सदृश्य एक भव्य मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया। संवत् 1446 में उस समय के प्रसिद्ध शिल्पकार देपा के निर्देशन में मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया गया। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने न केवल मन्दिर निर्माण के लिए भूमि उपलब्ध कराई वरन् वहां एक नगर भी बसाया और इसी परिक्षेत्र में सूर्य मन्दिर का निर्माण भी कराया।
रणकपुर के कलात्मक मन्दिर का निर्माण करीब 50 वर्ष तक चला। इस मन्दिर के निर्माण पर उस समय करीब 99 लाख रूपये व्यय किये गये। रणकपुर में मंदिर की प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1496 में की गई थी। सोम सोभाग्य काव्य से पता चलता है कि रणकपुर के जैन मंदिर प्रतिष्ठान में धरणाशाह की कुमकुम पत्रियां पाकर करीब 52 संघ और 500 साधु आये थे। मंदिर के मध्य भाग में चतुर्मुख देव कुलिका है। जिसकी जंघा पर बनी मूर्तियां बडी मनोरम है। स्त्री मूर्तियां प्रायः नृत्यमय एव कानों में कुंडल व हाथों में कंगन पहिने हैं। हाथ वाली भैरव की मूर्ति के साथ साथ यहां नयनदेवी प्रतिमाएं और श्रृंगाररत नर्तकियों के रूप भी देखे जा सकते हैं। देवकुलिका के चारो तरफ रंग मंडपों में बांसुरी बजाती, घूंघरू बजाती, नृत्य करती आठ पुतलियां और 16 नर्तकियां है। स्तंभों पर हाथी, सिंह, घोडे और फूल बूटे अंकित है। तथा इस त्रैलोक्य दीपक मंदिर के पूर्विकोण में धर्मोनुरागी धरणाशाह की हाथ में माला सिर पर पग और गले में उत्तरीय पहिने मूर्ति है।
चार कलात्मक प्रवेश द्वार मन्दिर की शोभा में चार चांद लगाते हैं। संगमरमर से बने इस खूबसूरत मन्दिर में 29 विशाल कमरे हैं, जहां 1444 स्तंभ लगे हैं। ये स्तम्भ मन्दिर को खास महत्व प्रदान करते हैं। प्रत्येक स्तंभ पर शिल्प कला का नया रूप न केवल अकल्पनीय है वरन अच्मभीत भी करता है। हर स्तंभ अपने आप में शिल्प का नया आयाम है। कितनी भी दूर से किसी भी कोण से खड़े हों, भगवान के दर्शन में कोई स्तंभ बाधक नहीं बनता। अनेक गुम्बज और छतें हैं। प्रत्येक छत पर एक कल्पवल्ली-कल्पतरू की कलात्मक लता बनी हुई है। मन्दिर का निर्माण सुस्पष्ट ज्यामितीय तरीके से किया गया है।
मन्दिर के मूल गर्भगृह में भगवान आदिनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान हैं। यह प्रतिमा लगभग 5 फीट ऊंची है एवं चार अलग-अलग दिशाओं की ओर उन्मुख हैं। संभवतः इसी कारण से इस मन्दिर का उपनाम ‘‘चतुर्मुख जिन प्रसाद’ भी है। सामने दो विशाल घंटे हैं। यहीं सहस्त्रफणी नागराज के साथ भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। इसके अलावा मन्दिर में 76 छोटे गुम्बदनुमा पवित्र स्थल, चार बड़े प्रार्थना कक्ष तथा चार बड़े पूजन कक्ष हैं। मन्दिर के चारों ओर 80 छोटी एवं चार बड़ी देवकुलिकाएं शिखरबंद गुम्बदों में बनी हैं।
मुख्य मन्दिर 220 * 220 फीट वर्गाकार है। मन्दिर परिसर का विस्तार 48,400 वर्गफुट जमीन पर किया गया है। नागर शैली से अलंकृत ऊंची पीठ पर अवस्थित तथा सोनाणा और सेवाडी के पत्थर से निर्मित इन मंदिरों में गर्भग्रह, सभामंडप, अर्धमंडप, प्रदक्षिणा पथ एवं आमलक शिखर की प्रधानता है। मन्दिर के पास गलियारे में बने मण्डपों में सभी 24 तीर्थंकरों की छवियां ऊंकेरी गई हैं।
मन्दिर की मुख्य देहरी में श्यामवर्ण की भगवान नेमीनाथ की भव्य मूर्ती लगी है। अन्य मूर्तियों में सहस्त्रकूट, भैरव, हरिहर, सहस्त्रफणी, धरणीशाह और देपाक की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। यहां 47 पंक्तियों का लेख चौमुखा मन्दिर के एक स्तम्भ में उत्कीर्ण है जो संवत् 1496 का है। इस लेख में संस्कृत तथा नागरी दोनों लिपियों का प्रयोग किया गया है। लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के बहुत से शासकों का वर्णन है। लेख में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। फरग्यूसन एवं कर्नल टॉड ने भी इसे भव्य प्रसादों में माना और इसकी शिल्कला को अद्वितीय बताया। मन्दिर के बारे में मान्यता है कि यहां प्रवेश करने से मनुष्य जीवन की 84 योनियों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
मंदिर के निर्माताओं ने जहाँ कलात्मक दो मंजिला भवन का निर्माण किया है, वहीं भविष्य में किसी संकट का अनुमान लगाते हुए कई तहखाने भी बनाए हैं। इन तहखानों में पवित्र मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सकता है। ये तहखाने मंदिर के निर्माताओं की निर्माण संबंधी दूरदर्शिता का परिचय देते हैं। पहाड़ियों के बीच स्थित मन्दिर की शोभा देखते ही बनती है। यह स्वेता म्बर जैन धर्मावलंबियों का देश के प्रमुख धार्मिक मंदिरों मै से एक है।
मंदिर परिसर में नेमीनाथ और पारसनाथ को समर्पित दो मंदिर हैं जिनकी नक्काशी खजुराहो की याद दिलाती है। मुख्य मंदिर से कुछ ही दूरी पर 8 वीं सदी में निर्मित प्रसिद्ध सूर्य मंदिर भी दर्शनीय है। जिसमें सर्वत्र सूर्य को घोडों पर सवार दर्शाया गया है। मन्दिर की बाह्य दीवारों पर सूर्यदेव के अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, महेश और गणेश जी की मूर्तियों के साथ – साथ युद्धरत हाथी समूह, घोड़े और मिथुन मूर्तियां भी उंकरी गई हैं। इस मन्दिर जा निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित माना जाता है। मुख्य मंदिर से लगभग एक किमी की दूरी पर अंबा माता मंदिर है।
मन्दिर परिसर में ही पर्यटकों के आवास एवम भोजन के लिए एक आरामदायक धर्मशाला बनी है। यहां पहुंचने के लिए निकटतम हवाईअड्डा और रेलवे स्टेशन उदयपुर में है। दिल्ली, मुंबई,अहमदाबाद आदि से नियमित विमान सेवा उदयपुर के लिए उपलब्ध है। रणकपुर के लिए सभी प्रमुख शहरों से रेलगाड़ियां उपलब्ध हैं। उदयपुर देश के प्रमुख शहरों से बस सेेेवाा के जरिए जुड़ा हुआ है। उदयपुर से यहां के लिए प्राइवेट बसें तथा टैक्सियां उपलब्ध रहती हैं। आप यहां अपने निजी वाहन से भी जा सकते हैं।