कहा जाता है कि कोई देश जब अपना अतीत भूल जाता है, तब वह धीरे धीरे पतन
की ओर कदम बढ़ाने की अग्रसर होता है। ऐसा उन्हीं देशों में होता है जहां
निजत्व का गौरव नहीं होता। ऐसे देश प्राय: अपने स्वर्णिम और सुखद भविष्य
की बुनियाद नहीं रख पाते। भारत देश के बारे में ऐसा कतई नहीं माना जा
सकता। भारत के पास अतीत की ऐसी सुंदर परिकल्पना है जो केवल भारत का ही
नहीं, अपितु पूरे विश्व का दिशादर्शन करने का सामथ्र्य रखती है, लेकिन
समस्या इस बात की है कि वर्तमान में भारत के लोग अपनी सनातन संस्कृति से
विमुख होते जा रहे हैं। फिर भी भारत की शाश्वत संस्कृति पर कुठाराघात
करने वाले कथित बुद्धिजीवी अपने मंसूबों को बार बार सफल करने का सपना
देखते रहते हैं।
अपनी बात प्रारंभ करने से पहले मुझे एक कहानी याद आती है, कहानी का भाव
यह है कि अपने पास सब कुछ होते हुए भी आज हमें इस बात का ज्ञान नहीं है
कि हमको जाना कहां हैं। हमारे देश के कुछ लोग आज ऐसे रास्तों में भटकाव
की स्थिति में जाते जा रहे हैं, जहां भूलभुलैया के अलावा कुछ भी नहीं है।
कहा जाता है कि हमारा देश जब पूरी तरह से भारत था, तब वैश्विक ज्ञान की
अतुलनीय धारा का प्रवाह पूरे विश्व को आलोकित करता हुआ दिखाई देता था।
अगर हम भारत के इतिहास का अध्ययन करेंगे तो यह बातें स्वत: ही प्रमाणित
हो जाएंगी। आज हम जिस इतिहास का अध्ययन कर रहे हैं, वह वास्तव में भारत
का इतिहास है ही नहीं, वह तो गुलामी का इतिहास है। वर्तमान में हमको जो
इतिहास पढ़ाया जा रहा है, वह अंगे्रजों या मुगलों के शासन काल का है। इस
काल के इतिहास में में भारत कमजोर ही दिखाई देगा। लेकिन अगर इससे पूर्व
का इतिहास पढऩे को मिले तो सारी सच्चाई सामने आ जाएगी। भारत को जो इंडिया
नाम दिया गया, वह अंग्रेजों की कूटनीतिक देन थी। उन्होंने भारत के नाम को
ही नहीं पूरी भारतीयता को ही नष्ट करने का प्रयास किया, जिसके चिन्ह आज
भी हमें दिखाई दे जाते हैं। वास्तव में देखा जाए तो भारत में आज भी विश्व
गुरू के सामथ्र्य वाली धमक और झलक है। अगर भारत अपने पुराने मार्ग पर
चलना प्रारंभ करदे तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भारत पुन: विश्व को
मार्गदर्शन देने की मुद्रा में आ जाएगा।
भारत के एक सामाजिक कार्यकर्ता की याचिका पर हाल ही में सर्वोच्च
न्यायपालिका ने केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों
की सरकारों को सूचना पत्र जारी कर पूछा है कि इंडिया को भारत और इंडियंस
को भारतीय कहा या लिखा जाना चाहिए। क्या भारत और भारतीय शब्दों का उपयोग
(संंवैधानिक एवं शासकीय कामकाज, आदेश निर्देश एवं दस्तावेजों में भी)
आधिकारिक रूप से होना चाहिए। इंडिया का नाम भारत किए जाने संबंधी याचिका
पर उच्चतम न्यायालय की यह पहल निश्चित ही भारतीयों के स्वाभिमान को
अपमानित होने से बचाने का एक सुअवसर है। हर भारतीय चाहता है कि आजादी के
68 साल बाद ही सही लेकिन हिन्दुस्तान को दो सौ वर्षों तक गुलाम रखने वाले
अंग्रेजों की अंग्रेजियत का अब भारत से नामो निशान मिट जाना चाहिए।
दुनिया हमारे देश को भारत या हिन्दुस्तान के नाम से जाने न कि अंग्रेजों
द्वारा दिए गए नाम से। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद वोट बैंक
की राजनीति करने वालों और हिन्दुस्तान की संस्कृति और संस्कारों को खंडित
करने में जुटी ताकतों के पेट में मरोड़ हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के
सूचना पत्र पर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से सकारात्मक
प्रतिक्रिया की आशा करना बेमानी होगी। क्योंकि यह ताकतें चाहती हैं कि
भारतीय अपनी मूल जड़ों से हमेशा कटे रहें, जिससे अगली एक दो पीढ़ी तक देश
विरोधी ताकतें अपना काम आसानी से सम्पन्न कर सकें।
याचिकाकर्ता सामाजिक कार्यकर्ता निरंजन भटवाल ने अपनी याचिका में यह
स्पष्ट किया है कि संविधान में इंडिया शब्द का उपयोग केवल संदर्भ के रूप
में ही हुआ है। याचिका में सभी गैर सरकारी संगठनों एवं निगम मण्डलों आदि
को आधिकारिक एवं गैर आधिकारिक कामों के लिए भारत शब्द का प्रयोग करने के
निर्देश देने हेतु अनुरोध न्यायपालिका से किया गया है। न्यायालय ने
याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत किए गए सभी तथ्यों को अध्ययन करने के बाद ही
केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सूचना पत्र जारी किए हैं। अधिकांश राज्य
सरकारें और केन्द्र सरकार इस निर्णय के पक्ष में ही होंगे कि भारत के
शासकीय एवं अशासकीय दस्तावेजी प्रणाली से इंडिया शब्द को मिटाकर उसके
स्थान पर भारत को स्थापित किया जाए। भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था
का संचालन करने वाले जनप्रतिनिधि संसद के दोनों सदनों, विधानसभाओं और
नगरीय परिषद सभाओं में भी हिन्दी और अंग्रेजी में प्रश्न पूछते समय और
उत्तर देते समय देश और देशवासियों को अपमानित कर देने वाले शब्द इंडिया
और इंडियन का नहीं बल्कि हमें गर्वित कर देने वाले भारत शब्द से हमारे
देश को संबोधित करें। इसी प्रकार अंग्रेजी और हिन्दी में देश के अंदर और
विदेशों में दिए जाने वाले अपने भाषणों और संबोधनों में भी भारत शब्द का
उपयोग करें। पूरी दुनिया अभी हिन्दुस्तान को इंडिया नाम से संबोधित करती
है। हमें गर्व उस समय होगा जब पूरा विश्व हिन्दुस्तान को इंडिया नहीं
बल्कि भारत के नाम से संबोधित करेगा। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने
चूंकि सरकारों से ही अभिमत मांगा इस कारण इंडिया को भारत शब्द किए जाने
के संबंध में केवल सरकारों को ही अपना पक्ष न्यायालय में प्रस्तुत करना
है। अगर न्यायालय देश की जनता से इस संबंध में अभिमत चाहता तो स्थिति
अकल्पनीय होती। पूरा देश एक मत से खड़ा होकर सिर्फ यही जवाब देता कि बहुत
हुआ अब और नहीं झेलेंगे अंग्रेजों की गुलामी। अब हिन्दुस्तान गुलामी की
जंजीरें तोड़कर न केवल अपने पैरों पर खड़ा है बल्कि पूरे विश्व को अपने
साथ लेकर प्रगति पथ पर दौड़ाने की नेतृत्व क्षमता भी रखता है। इस कारण अब
अंग्रेजियत की हर वह निशानी मिटानी होगी जो हमें गुलामी की याद दिलाकर
निराशा के अंधेरे कुंए में धकेलने का काम करती है।
इसके अलावा अगर भारत देश के बारे में आध्यात्मिक भाव से अध्ययन किया जाए
तो केवल यही कहा जा सकता है कि भारत में आध्यात्म ही एक ऐसा क्षेत्र है
जिसका मुकाबला विश्व का कोई भी देश नहीं कर सकता। हम जानते हैं कि भारत
में जो भी धार्मिक नगरी हैं वहां कई अंगे्रज ऐसे मिल जाते हैं जो अपने
देश से केवल घूमने के उद्देश्य से आते हैं, लेकिन भारत की सांस्कृतिक
धारा में इस प्रकार रम जाते हैं कि फिर यहीं के होकर रह जाते हैं फिर
अपने देश में जाने का नाम भी नहीं लेते। क्या भारतीय संस्कृति का यह
उदाहरण वैश्विक सर्वग्राह्यता का प्रतीक नहीं है। इतना ही नहीं वर्तमान
में पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति के प्रति लोगों का झुकाव निरंतर
बढ़ता ही जा रहा है। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया जाए तो वह
भी भारत नाम को ही उच्चारित करते हैं, इंडिया नाम तो नहीं है। तभी तो कहा
गया है कि हिमालयं समारभ्य यावदिंदुसरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं
हिंदुस्थानं प्रचक्ष्यते। हमारे देश को देव निर्मित माना जाता है। इसी
प्रकार उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम
भारती यत्र संतति:। इस श्लोक में भारत वर्ष में निवास करने वाली संतति के
बारे में बताया है कि यहां की जनता भारतीय है, इंडियन नहीं।
भारत नाम के बारे में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जिस प्रकार से सरकारों
से पूछा है उससे यह तो लगने लगा है कि अब देश को आहत करने वाले से नामों
से बहुत जल्दी छुटकारा मिल जाएगा और जिस भारत की कल्पना हमारे मनीषियों
ने की थी, फिर से वैसा ही सांस्कृतिक भारत उदित होगा।