मृत्युंजय दीक्षित
निराशाजनक वातावरण के युग में पूरे समाज में षांति, भाईचारे, प्रेम व एकता का संदेष देने वाले भगवान बुद्ध को समर्पित हैं बुद्ध पूर्णिमा का पर्व। यह पर्व कई मायनोें में बेहद ऐतिहासिक पलोें को भी संजोये है।
बुद्ध पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध का जन्म , ज्ञान प्राप्ति और महानिर्वाण की प्राप्ति भी हुई थी। वैषाख मास की पूर्णिमा का भारतीय संस्कृति व बौद्ध समाज में बेहद अद्वितीय स्थान है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले व समाज के सभी वर्गो के लोगों का यह एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। मान्यता है कि इस पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण भी मनाया जाता है। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज पूरे विष्व में लगभग 80 करोड़ से भी अधिक लोग बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं। हिंदू धर्म के लिए वह विष्णु के नवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह एक पवित्र दिन है।
यह पर्व भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया,मलेषिया श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेषिया, पाकिस्तान व अफगानिस्तान सहित उन सभी स्थानों पर मनाया जाता है जहां बौद्ध मतावलम्बी भारी तादादा में या फिर अल्पसंख्यक वर्ग के अंतर्गत भी रहते हैं। तिब्बत में भी बौद्ध मतावलम्बी काफी संख्या में रहते हैं लेकिन वहां पर चीन द्वारा तिब्बतियों की संस्कृति का हनन किया जा रहा है।
भारत के बिहार स्थित बोधगया नामक स्थल बेहद पवित्र स्थान है। चूंकि भगवान बुद्ध को वैषाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी इसलिए इस अवसर पर कुषीनगर में एक माह का मेला भी लगता है।
कुशीनगर स्थित महापरिनिर्वाण मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफा से प्रेरित है। इस मंदिर में भगवान बुद्ध की लेटी हुई 6.1 मीटर लम्बी मूर्ति है। यह लाल बलुई मिटटी की बनी है। यह मूर्ति भी इसी स्थान से निकाली गयी थी। मंदिर के पूर्वी हिस्से में एक स्तूप है कहा जाता है कि यहां पर भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था।
श्रीलंका व अन्य दक्षिण पूर्व एषियाई देषों में इस दिन को वेसाक उत्सव के रूप मंे मनाया जाता है। पूर्णिमा के दिन बौद्ध अनुयायी अपने घरों में दीपक जलाते हैं। फूलों से घरों को सजाते हैं। बौद्ध धर्म के सभी अनुयायी बौद्ध ग्रंथों का पाठ करते हैं। बोधगया सहित भगवान बुद्ध से सम्बंधित सभी तीर्थस्थलों स्तूपों व महत्व के स्थलों को सजाया जाता है। कई जगह मेले भी लगते हैं। भारत के बोधगया में लोग काफी संख्या में एकत्र होते हैं। मंदिरों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाते हैं। दीपक जलाकर विधिवत पूजा करते हैं तथा इस दिन पवित्र बोधिवृ़क्ष की भी पूजा की जाती है।
बौद्ध धर्म की मान्यता है कि वैशाख की पूर्णिमा के दिन किये गये कर्मो के शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं।
ज्ञातव्य है कि भगवान बुद्ध का जन्म शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुुुंबिनी, नेपाल में हुआ था। बुद्ध की माता महामाया देवी और पिता का नाम षुद्धोधन था। दुर्भाग्यवष बुद्ध की माता महामाया देवी का उनके जन्म के सातवें दिन ही निधन हो गया। उनका पालन पोषण दूसरी महारानी महाप्रज्ञावती ने किया। महाराजा षुद्धोधन ने अपने बालक का नामकरण करने और उसका भविष्य पढ़ने के लिए 8 ब्राहमणों को आमंत्रित किया। सभी ब्राहमणों ने एकमत से विचार व्यक्त किया कि यह बालक या तो एक महान राजा बनेगा या फिर महान संत। बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। लेकिन महाराजा ब्राहमणों की बातें सुनकर ंिचंता मंे पढ़ गये। अब वे अपने पुत्र का विषेष ध्यान रखने लग गये।
सिद्धार्थ ने वेद, उपनिषद व अन्य ग्रंथों का अध्ययन गुरू विष्वामित्र के यहां किया। कुष्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान चलाने, रथ हांकने में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता था। 16 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह षाक्य राजकुमारी यषोधरा के साथ हुआ। महाराज षुद्धोधन को यह चिंता सता रही थी कि कहींे उनका पुत्र संत न बन जाये इसलिए उसके भोग विलास के सभी संषाधन उपलब्ध कराते थे। उन्होनें इसलिए तीन और महल भी बनवा दिये। लेकिन ब्राहमणों की बात धीरे- धीरे सही साबित हो रही थी। उनके जीवन में कई ऐसी घटनाएं घटीं जिसके कारण उनके मन में विरक्ति का भाव पैदा होने लग गया । अंततः एक दिन उन्होनें अपनी सुंदर पत्नी यषोधरा और पुत्र राहुल तथा सेवक- सेविकाओं को त्यागकर निकल गये। अर्थात घर का त्याग कर दिया। वे राजगृह होते हुए उरूवेला पहुंचे तथा वहींे पर तपस्या प्रारम्भ कर दी। उन्होनंे वहां पर घोर तप किया।
वैषाखी पूर्णिमा के दिन वे वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गांव की स्त्री सुुजाता को पुत्र की प्राप्ति हुई। उसने अपने बेटे के लिए वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी होने के बाद सोने के थाल मेें गाय के दूध की खीर भरकर पहुंची। सिद्धार्थ ध्यानस्थ थे। उसे लगा कि मानो वृ़क्ष देवता ही पूजा करने के लिएष्षरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर खिलायी और कहाकि जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई है उसी प्रकार आपकी भी मनोकामना पूरी हो।
उसी रात सिद्धार्थ को सच्चा ज्ञानबोध प्राप्त हुआ। तभी से वे बुद्ध कहलाये। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृ़क्ष कहलाया।
जबकि समीपवर्ती स्थान बोधगया । ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद बेहद सरल पाली भाषा में धर्म का प्रचार करते रहे। उनके धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। काषी के पास मृगदांव वर्तमान के सारनाथ पहुंचे। वहीं पर उन्होनेें सबसे पहला अपना धर्मोपदेष दिया।
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेष दिया। उन्होनें दुख कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। अहिंसा पर जोर दिया। यज्ञ व पषुबलि की निंदा की। बुद्ध केअनुसार जीवन की पवित्रता, जीवन में पूर्णता,निर्वाण, तृष्णा और यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना उनके प्रमुख धाम हैं।बौद्ध धर्म सभी जातियों एवं पंथों के लिए खुला है। हिंदू ग्रंथों का कहना है कि बुद्ध भगवान विष्णु के नवें अवतार हैं।
भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम भोजन कुंडा नामक एक लोहार से भेंटकर प्राप्त किया था। जिसके कारण वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये थे। बुद्ध ने अपने षिष्य आनंद को निर्देष दिया कि वह कुंडा को समझाये कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होनें कहाकि यह भोजन अतुल्य है। प्राचीन इतिहास केे अनुसार सम्राट अषोक ने भी बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और उसका प्रचार- प्रसार किया। जगह- जगह स्तूप बनवाये व दीवारों पर धर्मोपदेष लिखवाये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत रत्न बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने बौद्धधर्म को अंगीकार किया था।
भारत में बुद्ध पूर्णिमा का दिन एक और घटना के लिए याद किया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी केष्षासनकाल मेें तत्कालीन एनडीए सरकार ने परमाणु विस्फोट करके पूरी दुनिया को चकित कर दिया था। इन परमाणु विस्फोटों के बाद भारत को परमाणु षक्ति संपन्न देष कहा जाने लगा। इस प्रकार बुद्ध पूर्णिमा का अपना अलग ही महत्व है। भारत व पड़ोसी देषों में भगवान बुद्ध की प्रतिमायें व तीर्थस्थल स्थित हैं जो कि पर्यटन का भी बहुत बड़ा केंद्रबिंदु हैं। इन स्थलों पर हजारों की संख्या में पर्यटक पहुचते हैं।