कब तक इंतजार करना पड़ेगा समान नागरिक संहिता के लिए ?

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अवधेश कुमार

यह निश्चित मानिए कि देश में नए सिरे से समान नागरिक संहिता की वैधानिक शुरुआत हो जाएगी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की समान नागरिक संहिता के लिए समिति बनाने की घोषणा कर ही चुके हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि वह राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करेंगे। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की ओर से भी बयान आ चुका है। कुछ दिन पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा था कि अब समान नागरिक संहिता की बारी है। शाह ने यह भी कहा कि समान नागरिक संहिता को लेकर 70 हजार से ज्यादा सुझाव आए हैं। इन सबके बाद भी अगर कोई किंतु-परंतु कर रहा हो तो यह उसकी समस्या है।
पीछे नहीं हटेंगे
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारों का अपने मूल मुद्दों से जुड़े मामलों में बयानों से पीछे हटने का रेकॉर्ड नहीं है। तीन तलाक खत्म करने का सरकार ने निर्णय किया और तमाम विरोध के बावजूद संसद में उसे पारित करा लिया। संविधान के अंदर चारों ओर उपबंधों से जकड़े अनुच्छेद 370 को निकाल कर फेंक दिया जाएगा इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। वह भी कर दिया। गौ हत्या निषेध कानून की ओर केंद्र ने पहल की और जब लगा कि इसे अभी राष्ट्रीय स्तर पर पारित करना कठिन है तो अपनी राज्य सरकारों द्वारा इसे लागू करा दिया। लव जिहाद के मामले में भी ऐसा ही हुआ।

समान नागरिक संहिता लाने की घोषणा के साथ ही उसका विरोध शुरू हो गया है। विरोध में सारे तर्क वही हैं, जो हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में इसे संविधान विरोधी बताया है। संविधान में जिस विषय का उल्लेख हो, उसे संविधान विरोधी बताने पर क्या कहा जा सकता है? ध्यान रहे, अगर समान नागरिक संहिता लागू हो गई तो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे कई संगठनों की भूमिका पूरी तरह खत्म हो जाएगी। जब कोई पर्सनल लॉ रहेगा नहीं तो पर्सनल लॉ बोर्ड की भला क्या जरूरत होगी? जाहिर है, कई संस्थाएं महज अपने अस्तित्व का ध्यान रखते हुए इसका विरोध कर रही हैं।
लंबे समय से इस्लाम के नाम पर जारी अनेक निजी, पारिवारिक और संपत्ति आदि से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करने से सरकारें बचती रही हैं। इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति का दबाव है। बीजेपी सरकारों ने अनेक मामलों में इस सोच को ध्वस्त किया है। वैसे समान आचार संहिता भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के अजेंडे में रही है। समाजवादियों की कई धाराओं, जिनमें राम मनोहर लोहिया की धारा प्रमुख है, उसमें
भी समान आचार संहिता का समर्थन रहा है, लेकिन समाजवाद के नाम पर चलने वाली आज की पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं।
गौर करने की बात है कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में यह भावना व्यक्त कर दी थी कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनना चाहिए। इसमें सरकार से अपेक्षा की गई कि वह पंथ, जाति, क्षेत्र, भाषा जैसे विभाजनकारी आधारों की चिंता किए बगैर सभी के लिए समान कानून बनाएगी। यह हमारे देश की विडंबना है कि ऐसे मामलों को भी विवादास्पद बना दिया गया और जब-जब इसकी बात हुई ऐसी तस्वीर पेश की गई, मानो समान नागरिक संहिता ऐसी वैधानिक व्यवस्था होगी जिसमें अल्पसंख्यकों के मजहबी अधिकार अतिक्रमित हो जाएंगे।
याद रखना चाहिए कि कोई भी कानून किसी मजहब के विरुद्ध हो जाए तो वह कानून नहीं हो सकता। ऐसा कानून बनाया भी गया तो सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर देगा। कल्पना करिए कोई निस्संतान दंपति बच्चा गोद लेना चाहती है जिससे उसकी वंश परंपरा चले, उसे उत्तराधिकारी मिले, बुढ़ापे में उसकी देखभाल का इंतजाम हो सके तो यह किसी मजहब, पूजा पद्धति, संप्रदाय आदि के विरुद्ध कैसे हो गया? किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिले, तलाक के बाद पति से गुजारा भत्ता मिलने की गारंटी हो तो इसमें कोई मजहब आड़े कैसे आ सकता है? ये सब तो मानवीय गरिमा और महिलाओं की समानता से जुड़े विषय हैं। पारंपरिक हिंदू कानून में भी समानता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए कई परिवर्तन किए गए हैं। लेकिन मुसलमानों के संदर्भ में ऐसा नहीं हो सका। क्यों? सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट अगर बार-बार समान नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं तो उसके पीछे सोच यही है कि प्रगतिशीलता का लाभ समाज के एक ही समुदाय या वर्ग तक सीमित नहीं रहना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्यों की जिम्मेदारी तय की गई थी, लेकिन व्यवहार में उसे मृत बना दिया गया। इस संबंध में सबसे बड़ा धक्का साबित हुआ 1985 का शाहबानो मामला, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। मुस्लिम नेताओं ने इसे पूरी कौम के अस्तित्व पर खतरा बता दिया। राजीव गांधी उस समय आजादी के बाद सबसे ज्यादा बहुमत वाली सरकार के प्रमुख थे, लेकिन मुस्लिम समुदाय के विरोध को देखते हुए उन्होंने संसद में कानून बनवा दिया कि मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार नहीं है। उसके बाद से माहौल ऐसा बन गया कि अगर कोई सरकार समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ाएगी तो मुस्लिम समाज इसी प्रकार तीखा विरोध करेगा।
मिथक टूटेगा
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने ऐसे कई मिथकों को तोड़ा है। दोनों के अब तक के आचरण से यह साफ लगता है कि वे उन सारे मूल मुद्दों को इसी कार्यकाल में निपटाने का निश्चय कर चुके हैं, जिनके आधार पर भारतीय जनसंघ और बीजेपी लंबे समय से राजनीति करती रही है। तय मानिए, समान आचार संहिता का मसौदा आएगा, कानून के रूप में लागू होगा और देश में शांति बनी रहेगी। समस्या उन कट्टरपंथी नेताओं के लिए पैदा हो सकती है, जो समाज में इसे लेकर झूठा भय पैदा करते रहे हैं।

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