माना यह जा रहा है कि गनी ने भारत की उपेक्षा कर दी। उपेक्षा का यह भाव उनकी यात्रा के दौरान भी दिखाई पड़ा। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई की तरह भारत से न तो शस्त्रों की मांग की, न सैन्य प्रशिक्षण की और न ही किसी सामरिक सहकार की! 2011 में संपन्न हुआ द्विपक्षीय सामरिक समझौते का पिटारा बंद ही पड़ा रहा। जबकि पाकिस्तान-यात्रा के दौरान गनी ने सारी कूटनीतिक मर्यादा एक तरफ रखकर पाकिस्तान के सेनापति राहिल शरीफ से रावलपिंडी जाकर मुलाकात की। पाकिस्तान की काकुल फौजी अकादमी में अफगान सैनिकों का प्रशिक्षण शुरू हो गया है। अब अफगानिस्तान और पाकिस्तान की फौजें संयुक्त सैन्यअभ्यास करेंगी। यह इतिहास में पहली बार होगा। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच जितना इस्लामी भाईचारा रहा है, उससे कहीं ज्यादा तनाव, संदेह और दुश्मनी रही है। दोनों देशों के बीच तीन बार तो युद्ध होते-होते बचा और परचमी-खल्की, मुजाहिद्दीन और तालिबान सरकारों के दौरान भी खींचतान चलती रही। हामिद करजई के 12 वर्ष के शासनकाल में भी दोनों देशों के संबंध जैसे रहे हैं, उन्हें घनिष्ट या सुमधुर नहीं कह सकते।
गनी अब पाकिस्तान के इतने करीब दिखाई पड़ रहे हैं कि मानो भारत गिनती में ही नहीं है। भारत ने अफगानिस्तान में अपने 12 हजार करोड़ रुपए खपा दिए हैं। उसने स्कूल, अस्पताल, बिजलीघर, बांध, सड़कें और अफगान संसद भवन का निर्माण किया है। उसके दर्जनों नागरिकों ने अफगान जनता की सेवा में प्राण न्योछावर किए हैं। यदि अफगान आम जनता के बीच सबसे लोकप्रिय कोई देश है तो वह भारत है, लेकिन बदकिस्मती है कि भारत की मोदी सरकार ने अफगानिस्तान पर उतना ध्यान नहीं दिया। अगर मैं डाॅ. लोहिया का मुहावरा इस्तेमाल करूं तो कह सकता हूं कि हमारी सरकार विश्व-यारी की चकाचौंध में फंसी रही। भारत का प्रधानमंत्री हजारों किमी दूर स्थित देशों में जाकर तो बिजली चमकाता रहा, लेकिन पड़ोस के अफगानिस्तान में दीया भी नहीं जला सका। शायद उसे यह इतिहास-बोध नहीं कि सदियों से अफगानिस्तान की सुरक्षा भारत की सुरक्षा रही है। जिस आतंकवाद से भारत आज परेशान है, उसकी जड़ें कहां हैं? अफगानिस्तान में! यदि भारत को यूरोप, मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के राष्ट्रों से थल-मार्ग से जुड़ना हो तो वह कहां से जाएगा? अफगानिस्तान से!
यह रहस्य चीन बहुत अच्छी तरह समझता है। इसीलिए चीनी राष्ट्रपति शी चिन पिंग ने पाकिस्तान में 46 बिलियन डाॅलर के विनियोग की घोषणा की है। इसका फायदा अफगानिस्तान को मिलेगा। अब नया ‘रेशम पथ’ बीजिंग से स्पेन तक अफगानिस्तान से होता हुआ जाएगा। चीन ने अफगानिस्तान में करोड़ों डाॅलर खर्च करके तांबे की खदानें खरीदी हैं। उसने चीन-पाक-अफगान त्रिपक्षीय वार्ताएं भी चलाई हैं। वह अपने शिनच्यांग प्रांत के उइगर मुसलमानों में फैले आतंकवाद को भी काबू करेगा, लेकिन इन सब बड़ी रणनीतियों में भारत कहां है?
दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी शक्ति होने का दावा करने वाला भारत खुद को दरकिनार कर रहा है। अफगानी राजनीति के विविध प्रभावशाली तत्वों से प्रगाढ़ संबंध तो दूर की बात है, काबुल की भारत प्रेमी सरकार से भी निकटता के लाले पड़े हैं। यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैली तो पाकिस्तान उस पर काबू नहीं कर पाएगा। उस दौर में भारत की भूमिका क्या होगी, यह हमारे नेताओं को पता नहीं। अब तक जो रचनात्मक और शांतिपूर्ण भूमिका भारत की रही है, वह चीन की हो गई तो उसका लाभ पाकिस्तान को अवश्य मिलेगा। पाकिस्तान यदि अपनी पुरानी चाल पर चलता रहा यानी उसने यदि अफगानिस्तान को अपना पांचवां प्रांत बनाने की कोशिश की तो स्वाभिमानी अफगानी उसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। फिर भी गनी ने दिल्ली आकर एक काम बहुत अच्छा किया। वह यह कि उन्होंने भारत-अफगान व्यापार के लिए पाकिस्तान को रास्ता देने के लिए डटकर कहा। उन्होंने 2011 में हुए पाक-अफगान पारगमन और व्यापार समझौते का हवाला देकर कहा कि माल से लदे हुए अफगान ट्रक सिर्फ वाघा पर ही क्यों रोक दिए जाते हैं? वे भारत में अटारी तक क्यों नहीं जाते? यदि पाकिस्तान का यह बंद रास्ता खुल जाए तो सारे दक्षिण एशिया का उद्धार हो जाएगा। यह अशरफ गनी की भारत-यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। गनी पठान हैं। वे तालिबान को बस में कर सकते हैं। लेकिन भारतीयों को खुश करने के लिए उन्होंने दिल्ली में कह दिया कि वे अच्छे और बुरे तालिबान में भेद नहीं करते। वे आतंकवाद को जड़-मूल से उखाड़ना चाहते हैं लेकिन क्या पाकिस्तान उन्हें यह करने देगा?
गनी ने भारत के उद्योगपतियों को अफगानिस्तान आमंत्रित किया है। अमेरिकी शैली के लालच भी दिए हैं लेकिन वे गनी से ज्यादा चतुर हैं। वे अपना पैसा वहां तभी फंसाएंगे, जब अफगानिस्तान में शांति होगी। क्या ही अच्छा होता कि गनी का दौरा अफगानिस्तान, भारत और पाकिस्तान को जोड़ने की कड़ी बनता, लेकिन लगता है इस बड़े काम की कुव्वत दोनों देशों के नौसिखिए नेताआें में कम से कम अभी नहीं है। यदि अगले तीन-चार साल में यह पैदा हो जाए तो संपूर्ण दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल जाएगा।