ज्ञानवापी को लेकर चला विवाद अधिकार छीनने की नहीं अधिकार पाने की लड़ाई का नाम है

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नीरज बधवार

साल 2020 में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने हागिया सोफिया नाम के एक म्यूजियम को मस्जिद में बदल दिया। म्यूज़ियम की यह इमारत 1700 साल पुरानी थी। जो सदियों तक कभी चर्च रही और कभी मस्जिद और अभी कुछ दशकों से म्यूज़ियम थी लेकिन साल 2020 में तुर्की के राष्ट्रपति एदोर्गन ने इस्लामिक अतीत का हवाला देते हुए इस म्यूजियम को मस्जिद में कन्वर्ट कर दिया। इसी के एक महीने बाद 22 अगस्त 2020 को उन्होंने एक और बीजान्टिन चर्च को भी मस्जिद में बदल दिया गया।
हम ये नहीं कह रहे कि ऐसा करना गलत था या सही, लेकिन ये समझने की ज़रूरत है कि हर देश का अपना सांस्कृतिक और धार्मिक अतीत होता है जिसमें वो अपनी पहचान देखता है। तुर्की को हागिया सोफिया म्यूजियम में लगा, बीजान्टिन चर्च में लगा, कुछ को यरूशलेम में लगता है तो उसी तरह लाखों-करोड़ों लोगों को मथुरा और काशी को लेकर लगता है। सिर्फ लगता नहीं, उसके प्रमाणित दस्तावेज़ भी है।

मगर सवाल ये है कि जब मुस्लिम दुनिया हागिया सोफिया म्यूज़ियम को मस्जिद में कंवर्ट करने का गर्व कर सकती है। उसे उसके पुराने स्वरूप में पाने पर अभिभूत हो सकती है तो यही बात ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर क्यों नहीं समझी जा सकती? समझना तो दूर एक वर्ग ज्ञानवापी के सर्वे के वक्त से बुरी तरह भड़का हुआ है। सर्वे के ज़रिए सच और झूठ सामने आने का इंतज़ार करने के बजाए वो तथ्यों की छानबीन करने पर ही आग बबूला हो रहा है।
उसका कहना है कि इस तरह के पुराने मामले कुरेदने से समाज में नफरत बढ़ेगी। कुछ की दलील है कि 1991 के Places of worship एक्ट के तहत ऐसे सर्वे किए ही नहीं जा सकते। कुछ लोग सर्वे में मिले शिवलिंग का मज़ाक उड़ा रहे हैं, तो कुछ लोग खुलेआम धमकी दे रहे हैं कि अगर मस्जिद के साथ छेड़खानी की गई तो लाखों-करोड़ों मुसलमान सड़कों पर आ जाएंगे। आइए हम एक-एक करके इन तमाम आपत्तियों का जवाब देने की कोशिश करते हैं।
पहली बात तो ये है कि जब भी हम न्याय की बात करते हैं तो ये बात तो कोई मायने नहीं रखती कि ज़ुल्म कितने साल पहले हुआ था। इज़राइल और यूरोपीय देशों ने दूसरे विश्व युद्ध के अपराधियों को पचास पचास साल बाद तक दुनिया के कोने-कोने से ढूंढ कर सज़ा दी। जिस हागिया सोफिया का जिक्र किया वो इमारत 1700 साल पुरानी थी। कितने ही मामलों में हत्या और रेप के आरोपियों को साठ साठ बाद तक गिरफ्तार कर सज़ाएं दी जाती हैं। कुछ दिन पहले ही बिहार में एक ज़मीन विवाद में अदालत ने 105 साल बाद फैसला सुनाया। आज भी मुस्लिम समाज यरूशलेम से लेकर आर्मेनिया के कॉकेशस तक ऐसी लड़ाइयां लड़ रहा है, तो फिर मथुरा, काशी या भोजशाला पर ऐसी आपत्तियां क्यों?
और जिन घटनाओं का हम ज़िक्र कर रहे हैं वो किसी काल्पनिक उपन्यास में नहीं, बल्कि प्रमाणित दस्तावेजों में लिखी हैं। ऐसे दस्तावेज़ जिसे हर तरह की विचारधारा वाला, हर ‘विंग’ वाला व्यक्ति मानता है। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान आज भी कोलकात्ता की एशियाटिक लाइब्रेरी में सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहाँ विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। नंदी प्रतिमा का मुख उल्टा होने का रहस्य यही है कि पहले मंदिर जहाँ थी, वहाँ मस्जिद बना ली गई।
और जैसा मैंने ऊपर कहा ये सब बातें कल्पना में नहीं, प्रमाणित इतिहास में दर्ज हैं। मगर बजाए उन ज़्यादतियों को दुरुस्त करने की बात करने के, आत्ममंथन करने के, हम आहत भावनाओं की दुहाई देकर सब कुछ एक सांस में रफा-दफा कर देते हैं।
अब दिक्कत ये है कि इंसान की खुद की औसत उम्र चूंकि आज भी 70 साल के आसपास है इसलिए जब भी वो चार-पांच सौ साल पुराने के जुल्म की बात सुनता है तो उसे लगता है कि ये मामला तो बहुत पुराना है। लेकिन जिस मानव जाति का अतीत लाखों साल पुराना है उसमें चार-पांच सौ साल पुरानी बातें तो ‘कल-परसों’ की बात की तरह हैं। इतिहास की किताब में ये कुछ सौ साल तो चंद पन्नों में सिमट जाते हैं। इसलिए मामले के पुराने होने की बात तो रहने दीजिए। मुगलकाल या किसी भी वक्त में अगर धार्मिक स्थलों के साथ कोई भी ज़्यादती हुई और आज हमारे पास उस ज़्यादती को साबित करने के पुख्ता सबूत हैं तो उसे हर हाल में दुरूस्त करना चाहिए। ज्ञानवापी मस्जिद ही नही…खिलजी का नालंदा विश्वविद्यालय को जलाना। अहमदशाह का भद्रकाली मंदिर तोड़कर वहां मस्जिद बनवाना या रूद्र महल तोड़कर जामा मस्जिद बनवाना। और ऐसे कोई दो-चार नहीं, सैकड़ों मामले हैं। इसलिए इस बात के कोई मायने नहीं रह जाते कि ये मामले कितना पुराने हैं। और ये किसने कह दिया कि गलतियों या ज़ुल्म के ज़्यादा पुराने हो जाने पर उन्हें भुला देने चाहिए। अगर ऐसा है तो लड़ाइयां पीड़ितों की ज़िंदादिली का नहीं उनकी मूर्खता का प्रमाण बन जाएंगी।
अगर आपके 6 महीने के बच्चे को कोई उठाकर ले जाए और जब वो 30 बरस का हो और आपको उसका पता लगे तो आप उसे घर लाने की कानूनी लड़ाई लड़ेंगे या ये सोचकर चुप रह जाएँगे कि ये तो काफी पुराना मामला है। वो आपका बच्चा है और आप उसके लिए किसी भी हद तक जाकर लड़ाई लडेंगे। हिंदू परंपरा मेंं देवताओं को भी नाबालिग माना जाता है और उनकी उसी तरह देखभाल की जाती है जिस तरह एक बच्चे की। ऐसे में ये कैसे संभव है कि किसी शिवलिंग का पता लगने पर उनके भक्त आंखें मूंद लें और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें।
दूसरी दलील ये दी जा रही है कि 1991 के Places of Worship एक्ट के तहत 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल के प्रारूप में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। ओवैसी जैसे लोग जब भी ज्ञानवापी मामले पर बोलते हैं तो वो हमेशा इसी एक्ट का हवाला देते हैं। बदलाव क्यों होना चाहिए उसकी दलील तो मैं दे ही चुका हूं लेकिन औवेसी या उनके जैसे बाकी मुस्लिम स्कॉलर ये बात करते हैं तो हंसी आती है। अरे भाई, आप लोग कब से कानून की परवाह करने लगे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो शाहबानो केस है। जो लोग नहीं जानते उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि शाहबानो एक मुस्लिम महिला हैं जिसका 1985 में अपने शौहर से तलाक हुआ। तब अदालत ने उनके पति को आदेश दिया कि इन्हें हर महीने गुज़ारा भत्ता दें मगर इस बात से कट्टरपंथी मुस्लिम भड़क गए।
उन्होंने इसे अपनी मज़हबी व्यवस्था के खिलाफ बताया और इन्हीं कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए राजीव गांधी सरकार संसद में कानून लेकर आई और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया। मतलब जब चीज़ें कानून के मुताबिक हों लेकिन आपको पसंद न आए, तो आप मज़हबी रवायत की दुहाई देने लगें और सामने वाला अपनी आस्था की बात करे तो आप कानून की दुहाई देने लगें। इसलिए जो ओवैसी जैसे जो मुस्लिम स्कॉलर 1991 के एक्टर की बात न ही करें तो बेहतर है। औवेसी साहब आपको कानून और अदालतों की इतनी परवाह होती तो आप कानून द्वारा Instant ट्रिपल तलाक ख़त्म करने का स्वागत करते। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राम मंदिर बनाने के आदेश को भी खुले दिल से स्वीकार करते। लेकिन उस मामले में आपकी क्या राय है ये सबको पता है।
और तीसरी और सबसे बड़ी बात…बहुत से मुस्लिम नेता, मौलवी खुलेआम ये धमकी दे रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की गई तो खून की नदियां दी जाएगी। मुझे लगता है कि इन बातों में भी कोई दम नहीं है। पिछले कुछ सालों में ये समझ आ गया है कि इस देश का मुसलमान इन घटनाओं पर वैसे रिएक्ट नहीं करता जैसे इनके तथाकथित नेता चाहते हैं।
अय़ोध्या विवाद के वक्त भी यही मुस्लिम नेता धमकी देते थे कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला दिया तो मुसलमान सड़कों पर आ जाएगा मगर कुछ हुआ नहीं। कश्मीर में सेक्शन 370 हटाने की बात पर कश्मीर के नेता अक्सर धमकी देते थे कि अगर 370 हटाई गई तो पता नहीं क्या आफत आ जाएगी मगर कुछ हुआ नहीं। ऐसे ही धमकी Instant ट्रिपल तलाक के वक्त भी दी गई मगर उसके खातमे के बाद भी कोई भूचाल नहीं आया।
मतलब साफ है…चाहे अयोध्या हो या काशी अगर कोई जगह हिंदुओं के लिए इतने धार्मिक महत्व की है और अतीत में वहां कुछ गलत हुआ है तो उसे इस देश का मुसलमान भी समझता है…इन जगहों को वापिस पाने का ये मतलब नहीं कि आज के मुसलमानों के साथ कोई ज़ुल्म हो रहा है। अगर ट्रिपल तलाक ख़त्म हुआ तो इससे मुस्लिम महिलाओं को ही फायदा हुआ। अगर 370 हटने के बाद कश्मीर में हालात सामान्य हुए, टूरिज़म कई दशकों बाद इतना बेहतर हुआ, तो सबसे ज़्यादा फायदा वहां के कश्मीरियों को ही हुआ। इसलिए मुस्लिम नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वो आम मुसलमान के सड़क पर आने की धमकी देने के बजाए बिना पूर्वाग्रह के हिंदुओं की भावनाओं को भी समझे। ये लड़ाई किसी से उसका हिस्सा छीनने की नहीं, अपना हक पाने की है।

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