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आज का चिंतन

“हमारी जीवन यात्रा दीर्घजीवी व सुखद तब बनती है जब हम वेद के पथ पर चलते हैं: आचार्य डा. धनंजय आर्य”

ओ३म्
-हमारे 5 दशक पुराने मित्र के विवाह की स्वर्ण जयन्ती पर गुरुकुल में यज्ञ-


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आज हमारे मित्र एवं आर्यसमाज के अनुयायी श्री महीपाल शर्मा जी व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुन्ता शर्मा जी के विवाह की पचासवीं वर्षगांठ हैं। इस अवसर पर श्री शर्मा जी ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ देहरादून के आर्ष गुरुकुल पौंधा जाकर प्रातः 7.30 बजे से यज्ञ किया। यज्ञ का पौरोहित्य गुरुकुल के प्राचार्य आचार्य डा. धनंजय जी ने किया। यज्ञ बहुत ही गरिमा एवं उत्तम रूप में सम्पन्न हुआ। यज्ञ में श्री महीपाल शर्मा जी एवं श्रीमती कुन्ता शर्मा जी यजमान थे। उनके पुत्र मनु, पुत्रवधु, पौत्र भी यज्ञ में यजमान के आसनों पर उपस्थित हुए। गुरुकुल के ब्रह्मचारीगण भी यज्ञ में उपस्थित हुए। यज्ञ में विवाह प्रकरण एवं गृहस्थ आश्रम के कुछ प्रासंगिक मन्त्रों से आहुतियों सहित यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय से भी आहुतियां दी गईं। यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात गुरुकुल के प्राचार्य आचार्य डा. धनंजय जी ने सदुपदेश किया। उन्होंने कहा कि श्री महीपाल शर्मा जी का आयु के अनुसार यह चतुर्थाश्रम आरम्भ हो गया है। यह आश्रम उपासना करने व उसे सफलता पर पहुंचाने का आश्रम है। आचार्य जी ने कहा कि शर्मा जी के जीवन का वानप्रस्थ आश्रम का कालखण्ड आज पूरा हो गया है। उन्होंने कामना की कि शर्मा जी का उपासना का यह कालखण्ड उत्तमता से पूर्ण होवे। आचार्य जी ने यह भी कामना की कि यजमान महोदय का जीवन सूर्य व चन्द्र की भांति प्रकाशित व देदीप्यमान हो एवं आयु के अनुकूल कर्तव्य पथ का अनुसरण करते हुए वह आगे बढ़े। शर्मा जी का जीवन प्रकाश एवं सोम गुणों से युक्त हो, यह कामना भी आचार्य जी ने की। आचार्य जी ने कहा कि यजमान व उनके परिवार का जीवन एवं मन शुभ संकल्पों से युक्त हो। यज्ञ में मन को शिवसंकल्प से युक्त करने वाले 6 मन्त्रों से आहुतियां भी दी गईं। आचार्य जी ने कहा कि हम जो भी कार्य करें वह त्याग की भावना से करें, कर्मों में लिप्त होकर न करें। हमारा मन परमात्मा की भक्ति में लगे। परमात्मा से मित्रता व उसकी संगति करने में लगे। ईश्वर से ऐसी प्रार्थना व भावना बना कर कार्य करने की सलाह आचार्य जी ने श्री शर्मा जी व उनके परिवार के सदस्यों को दी। इस के बाद यज्ञ प्रार्थना की गई।

यज्ञ प्रार्थना के बाद आचार्य डा. धनंजय जी ने भारतीय संस्कृति के विषय में सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों की उन्नति में वहां के लोगों के संस्कारित जीवन से अधिक योगदान वहां के नागरिकों का शासन द्वारा निर्धारित नियमों एवं मर्यादाओं का निष्ठापूर्वक पालन करना ज्ञात होता है। आचार्य जी ने कहा कि हमारे देश के संन्यासी व साधु अपने हाथों में धर्मदण्ड लेकर चलते हैं। यह धर्मदण्ड ही हमें व समाज को अनुशासित रखता है। जब हम अपने जीवन को धर्म के नियमों का पालन करते हुए व्यतीत करते हैं तभी हमारा जीवन सुधरता व उच्च आदर्शों से युक्त होता है। आचार्य जी ने कहा कि कुछ लोग जीवन के भोगों को सुख मानते हैं। हमारी संस्कृति वासनाओं से रहित जीवन जीने व धर्म की मर्यादाओं का पालन करने को सुख मानती है। आचार्य जी ने वेद के आधार पर कहा कि पति और पत्नी के मन सदा एक समान एक जैसी भावनाओं से युक्त होने चाहिये। उनमें परस्पर किंचित भी विरोध नहीं होना चाहिये। यह विचार हमारी वैदिक संस्कृति की विशेषता हैं।

आचार्य जी ने कहा कि हमें गृहस्थ जीवन की इस स्थिति में पहुंच कर वैदिक सिद्धान्तों वा मूल्यों का चिन्तन मनन करते हुए शाश्वत सिद्धान्तों का पालन कर अपने जीवन को सफल करना है। गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिए आचार्य जी ने वैदिक परम्पराओं का पालन करने को कहा। आचार्य जी ने कहा कि हमारी जीवन यात्रा दीर्घजीवी व सुखद तब बनती है जब हम वेद के पथ पर चलते हैं। आचार्य जी ने यजमान दम्पति व उनके परिवार को द्वेष से रहित परिवार का निर्माण करने को कहा। ऐसा परिवार जिसका कोई सदस्य किसी सदस्य से कदापि द्वेष न करे। आचार्य जी ने कहा कि जैसे गाय अपने नवजात शिशु को प्रेम करती है, उसे स्नेह व ममता से चाटती है, ऐसा ही प्रेम परिवार के सब सदस्यों के बीच होना चाहिये। आचार्य जी ने पितृ यज्ञ एवं माता-पिता की सेवा के महत्व पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि परिवार में प्रेम व वात्सल्य स्थापित होना चाहिये।

परिवार के युवा सदस्यों को आचार्य जी ने कहा कि जैसे माता-पिता ने आपका निर्माण किया है उसी प्रकार आप सन्तानो को भी माता-पिता के लिये सुख का वातावरण प्रदान करना है। आचार्य जी ने कहा कि माता-पिता को कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये।

आचार्य धनंजय जी ने आदर्श गृहस्थ जीवन का चित्रण किया। उन्होंने कहा कि माता-पिता जीवन भर अपनी सन्तानों के सुख का ध्यान रखते हैं परन्तु आजकल कुछ सन्तानें अपने कर्तव्यों से विमुख हो रहे हैं। आचार्य जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी समझाई कि बच्चों को अपने माता, पिता व आचार्यों की निन्दा न तो करनी चाहिये और सुननी ही चाहिये। इस मान्यता के सभी पक्षों पर आचार्य जी ने इस विचार कर इनकी महत्ता को स्पष्ट किया। इन्हीं आशीर्वचनों के साथ आचार्य जी ने अपने विचारों को विराम दिया। इस आयोजन के बाद गुरुकुल की ओर से सभी यजमानों व उनके परिवारजनों को गुरुकुल की ओर से नाश्ता कराया गया। हम इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए। हमें यज्ञ में भाग लेकर तथा आचार्य जी के कल्याणीकारी विचार सुनकर बहुत अच्छा लगा। हमें लगता है कि सभी मित्रों व बन्धुओं को अपने जन्मदिवस व विवाह की वर्षगांठ आदि के आयोजन गुरुकुल व आर्यसमाज जैसी संस्थाओं में जाकर यज्ञ करके व आचार्यों का उपदेश श्रवण करके सम्पन्न करने व कराने चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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