चाबीभरे गुड्डे का नाच
पहले भूमि—अधिग्रहण विधेयक और अब अचल संपत्ति विधेयक पर आपत्ति उठाकर राहुल गांधी ने अपनी खोई जमीन फिर से पानी शुरु कर दी है। राहुल ने पहले विधेयक को पूंजीपतियों और दूसरे विधेयक को बिल्डरों के हितों की रक्षा करनेवाला बताया है। एक विधेयक को किसान—विरोधी और दूसरे को मध्यम—वर्ग विरोधी बताया है। यह स्पष्ट है कि राहुल को अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कहना नहीं आता। इसके बावजूद उसकी बात का असर हो रहा है। यदि कांग्रेस के पास सचमुच आज कोई नेता होता तो वह मोदी सरकार की नाक में दम कर देता। इन दोनों विधेयकों को वह राज्यसभा में तो अटका ही देता, जनमत पर भी इतना जबर्दस्त प्रभाव डालता कि सरकार को लेने के देने पड़ जाते। ऐसा करने के लिए किसी पार्टी के पास लोकसभा में दो—ढाई सौ सदस्य हों, यह जरुरी नहीं है। डॉ. राममनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के पास 1962 से 1967 के बीच संसद में 10 सदस्य भी नहीं थे लेकिन उन्होंने नेहरुजी, शास्त्रीजी और इंदिराजी की सरकार का दम फुला रखा था। उनके पास मधु लिमए, किशन पटनायक, मनीराम बागड़ी, रामसेवक यादव और रविराय जैसे प्रखर सांसद थे। जाहिर है कि कांग्रेस में दरबारियों का जमघट है। यदि वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने लगे तो मां—बेटे की कुर्सी हिलने लगेगी। वे यदि खुद किसानों के पास जाने लगें और फ्लैट खरीदनेवालों की आवाज़ बुलंद करें तो देश में तहलका मच जाए। सरकार को घुटने टेकने पड़ जाएं।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार पूंजीपतियों और बिल्डरों की सरकार है। वह इन तबकों की हित—रक्षा के लिए अपने करोड़ों मतदाताओं की नाराजी मोल नहीं ले सकती। उसे पता है कि चार साल बाद उसे इन्हीं बेजुबान मतदाताओं की चरण—वंदना करना है। लेकिन मोदी सरकार को ऐसे लोग नहीं चला रहे हैं, जो जनता के दुख—दर्दों से सीधे जुड़े रहे हों। खुद मोदी और उनके सबसे प्रमुख सिपहसालार भारत की राजनीति में उपर से टपके हुए आम हैं। उनमें और राहुल गांधी में ज्यादा फर्क नहीं है। जो फर्क है, वह इतना ही है कि वे खुद को सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान समझते हैं जबकि राहुल को अपनी कमजोरियों का पता है। राहुल उस भोले—भाले गुड्डे की तरह है, जिसमें कई अनुभवी और बुद्धिमान लोग जितनी चाबी भर देते हैं, वह उतना नाच दिखा देता है। जबकि मोदी सरकार ‘सर्वज्ञ’ है, वह सिर्फ जी—हुजूर नौकरशाहों की सलाह का अंधानुकरण करती है। इसीलिए वह नीचे लुढ़कती जा रही है और चाबीभरे गुड्डे का नाच लोगों को अच्छा लग रहा है। लुढ़कती हुई भीमकाय मूर्ति के मुकाबले नाचता हुआ गुड्डा क्या ज्यादा अच्छा नहीं लगता?