अजय कुमार
बात लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीला की कि जाए तो अब ‘लक्ष्मण टीला’ का नाम इतिहास के पन्नों में सिमट चुका है। यह स्थान अब ‘टीले वाली मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि लखनऊ की संस्कृति पर यह जबरदस्ती थोपा गया है।
आजादी के बाद कांग्रेस ने कई दशक तक देश पर राज किया, लेकिन उसने इस बात की कभी कोशिश नहीं की कि हिन्दुओं के तीन सबसे बड़े धार्मिक स्थलों- अयोध्या में प्रभु श्रीराम और मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और वाराणसी में बाबा भोलेनाथ के शिवलिंग स्थान को लेकर मुगलकाल से चले आ रहे विवाद को सुलझा दिया जाए। हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक इन तीनों धार्मिक स्थलों के बड़े भाग पर मुगलकाल में कब्जा कर वहां मस्जिद बना दी गई थी। इसके अलावा आगरा में ताजमहल और जौनपुर में अटाला मस्जिद एवं लखनऊ में लक्ष्मण टीले पर मस्जिद बनाए जाने का विवाद भी सदियों से सुर्खियां बटोर रहा है। जौनपुर में अटाला मस्जिद को लेकर इतिहासकार बताते हैं कि यहां अटल देवी की मंदिर को तोड़कर अटाला मस्जिद बना दी गई है। नगर के सिपाह मोहल्ले में गोमती किनारे स्थित यह मस्जिद पूरे भारतभर में अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। वहीं लखनऊ के लक्ष्मण टीला पर भी मुगलकाल में औरंगजेब ने कब्जा करके वहां मस्जिद बनवा दी थी।
हिन्दुओं को अपने देवी-देवताओं की जन्मस्थली और धार्मिक स्थलों पर कब्जा पाने के लिए क्यों सदियों तक भटकना पड़ा, यहां तक की देश के आजाद होने के बाद भी हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ किया जाता रहा तो इसकी जड़ में तुष्टिकरण की सियासत और उस समय की कांग्रेस के नेतृत्व का मुसलमानों के प्रति मोह था। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तो यहां तक कहा करते थे, “मैं शिक्षा से अंग्रेज, संस्कृति से मुस्लिम और जन्म से हिंदू हूँ”। हालांकि इस बयान की प्रमाणिकता को लेकर अक्सर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। इसी तरह से कांग्रेस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान को कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। कांग्रेस के एक और प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने तो एक मुस्लिम महिला को उसके पति से मुआवजा दिलाए जाने के सुपीम कोर्ट आदेश को कठमुल्लाओं को खुश करने के लिए कानून बनाकर पलट दिया था। कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी आतंकवादियों के मारे जाने पर रोने लगती थीं, तो गांधी परिवार के एक ‘चिराग’ राहुल गांधी तो विदेश में जाकर कहते फिरते थे कि भारत को आतंकवादियों से नहीं हिन्दुओं से खतरा है।
हिन्दुओं पर तमाम हुकूमतों ने इसलिए अत्याचार किया क्योंकि उन्हें धर्म-जाति के नाम पर बांट दिया गया था। वहीं मुसलमानों को वोट बैंक की सियासत के चलते एकजुट रखा गया था। कांग्रेस जब कमजोर पड़ने लगी तो मुलायम और लालू यादव जैसे नेता मुसलमानों के पैरोकार बन गए। उनकी हर सही-गलत बात मानते रहे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सरकार द्वारा अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाना और फिर उसका ढिंढोरा पीटना, बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा मुसलमान वोटरों को खुश करने के लिए बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को तब रोकना जब 25 सितंबर 1990 को आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर में पूजा कर अपनी रथयात्रा की शुरुआत की थी। इस रथयात्रा का मकसद राम मंदिर निर्माण के लिए समर्थन जुटाना था। लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से रथ यात्रा लेकर अयोध्या के लिए निकले। इस रथ यात्रा को राम भक्तों का भरपूर जन समर्थन मिल रहा था। हालांकि, यह रथ यात्रा पूरी नहीं हो पाई। बिहार में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसी प्रकार बीजेपी नेता प्रेम शुक्ला का आरोप है कि 2004 में मुसलमानों को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के तहत मुलायम सरकार ने श्रृंगार गौरी मंदिर में पूजा को रोकने का काम किया गया था, जिसे बहाल करने की मांग लगातार हिंदू पक्ष कर रहा है। उन्होंने कहा कि 1992 में बाबरी विध्वंस के दौरान भी मंदिर में पूजा नहीं रुकी थी। बीजेपी नेता प्रेम शुक्ला ने कहा, “1996 में महाशिवरात्री के दिन मैंने खुद श्रृंगार गौरी मंदिर में अभिषेक किया था और तब वहां 365 दिन अभिषेक होता था। उन्होंने कहा कि यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार ने प्लेस आफ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन किया था। मुलायम राज में ही लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीले का नाम बदल कर वहां बनी एक मस्जिद के नाम पर टीले वाली मस्जिद कर दिया गया।
इसी तरह के तमाम सियासी षड़यंत्र अब धीरे-धीरे बेपर्दा हो रहे है। भले ही कोई इसे उकसावे की राजनीति समझे, हकीकत यही है कि यदि हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर किसी धर्म विशेष के लोगों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया था, उसको यदि हिन्दू पक्ष वापस हासिल करना चाहता है, वह भी बलपूर्वक नहीं, न्यायिक प्रक्रिया से तो, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि किसी को लगता है कि हिन्दुओं को उनका हक दिलाने की किसी कोशिश से देश में वैमनस्यता और नफरत फैल रही है तो यह उसकी अपनी सोच हो सकती है। बल्कि इसके उलट वैमनस्यता और नफरत तो वह फैला रहे हैं जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार द्वारा बनाए गए कानून और अदालत के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, जो कोर्ट की अवमानना तो है ही देश विरोधी कृत्य भी है। आश्चर्य होता है कि दो समुदायों (हिन्दू-मुसलमानों) के बीच सदियों से लड़ाई-झगड़े की वजह रहे अयोध्या के रामजन्म भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो या फिर कोर्ट के आदेश पर वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे अथवा मुस्लिम महिलाओं के हितों से जुड़ा तीन तलाक, हिजाब, तलाकशुदा महिलाओं को मुआवजा देने का मामला हो, अदालत के प्रत्येक फैसले पर मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा हायतौबा मचाने लगता है। यह वह धड़ा है जो एक तरफ हिन्दुओं के खिलाफ उग्र रहता है तो दूसरी ओर इस्लाम का लबादा ओढ़कर कुरान के पैगाम से अधिक शरीयत को महत्व देता है। मुसलमानों को कुरान की शिक्षा देने वाले मुल्ला-मौलवी अपनी कौम को यह नहीं बताते हैं कि किसी विवादित जगह पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह को कबूल नहीं होती है।
सबसे अधिक आश्चर्य तब होता है जब एक तरफ ज्ञानवापी मस्जिद के पैरोकार यह कहते हैं कि किसी मंदिर को तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद नहीं बनाई गई है तो दूसरे ही पल यह लोग कहने लगते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद पर हिन्दुओं की दावेदारी प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन है। बताते चलें कि यह एक्ट 1991 में कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा की ओर से लाया गया था। उस दौरान देश में राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन चरम पर था, जिस कारण देश में सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ गया था। हालांकि इस अधिनियम से रामजन्म भूमि विवाद को अलग रखा गया था जिसकी सुनवाई कोर्ट में चल रही थी। खैर, प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा की चर्चा 1991 में वर्शिप अधिनियम लाने से अधिक इस बात पर होती है कि उन्होंने 1992 में जब कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया था, तब तत्कालीन उन्होंने इस पर दुख जताते हुए यहां तक घोषणा कर दी थी कि उनकी सरकार दोबारा से बाबरी मस्जिद बनवाएगी, जबकि कारेसेवकों ने जिस ढांचे को तोड़ा था उसे एक पक्षकार मस्जिद मानता ही नहीं था।
आश्चर्य होता है कि एक तरफ ओवैसी जैसे कट्टरपंथी नेता अदालतों के फैसलों पर संशय का माहौल बनाते हैं, वहीं जब उन्हीं की नाक के नीचे हैदराबाद में एक दलित युवक को इस लिए मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि उसने एक मुस्लिम से शादी की थी, तब वह कहने लगते हैं कि हिन्दू लड़के की मुस्लिम लड़के से शादी इस्लाम के खिलाफ है। इस्लाम ऐसी शादियों को मान्यता नहीं देता है, लेकिन जब बात लव जेहाद की आती है तो इसे वह मुसलमानों को बदनाम करने की साजिश करार दे देते हैं और कहते हैं प्यार में धर्म आड़े नहीं आना चाहिए। इसी तरह से ओवैसी ताजमहल पर भी मुसलमानों की दावेदारी रखते हैं, लेकिन किसी को यह नहीं बताते हैं कि ताजमहल जैसी नायाब इमारत बनाने वालों के हाथ मुगल शासक ने सिर्फ इसलिए कटवा दिए थे कि वह कारीगर ताजमहल जैसी दूसरी इमारत नहीं बना सकें।
बहरहाल, अयोध्या का विवाद सुलझ चुका है और ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्रीकृष्ण भगवान की जन्मस्थली का विवाद कोर्ट में है। ताजमहल का विवाद भी कोर्ट में गया था, लेकिन उसे कोर्ट ने सुनने से ही इंकार कर दिया। वहीं जौनपुर में अटल देवी मंदिर जिस पर कब्जा करके वहां अटाला मस्जिद बना दी गई है और लखनऊ का लक्ष्मण टीला, जिसे टीले वाली मस्जिद का नाम दे दिया गया, उसकी लड़ाई भी अभी बाकी बताई जाती है। जौनपुर के अटाला मस्जिद विवाद की तह में जाने पर पता चलता है कि नगर के सिपाह मोहल्ले में गोमती किनारे स्थित यह मस्जिद कभी पूरे भारत में अटल देवी मंदिर की सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थी। जौनपुर जिले की इतिहास पर लिखी त्रिपुरारि भास्कर की पुस्तक जौनपुर का इतिहास में अटाला मस्जिद के बारे में भी लिखा गया है। अटाला मस्जिद के संबंध पर बताया जाता है कि यहां पहले अटल देवी का मंदिर था। अभी जौनपुर के मोहल्ला सिपाह के पास गोमती नदी किनारे अटल देवी का विशाल घाट है। इस मंदिर का निर्माण कन्नौज के राजा विजयचंद्र ने कराया था और इसकी देखरेख जफराबाद के गहरवार लोग किया करते थे। कहा जाता है कि इस मंदिर को पहली बार गिरा देने का हुक्म फिरोज शाह ने दिया था, परंतु हिंदुओं ने बहादुरी से इसका विरोध किया, जिसके कारण समझौता होने पर उसे उसी प्रकार रहने दिया गया था। बाद में 1364 ई. में ख्वाजा कमाल खां ने इसे मस्जिद का रूप देना प्रारंभ किया और 1408 में इसे इब्राहिम शाह ने पूरा किया। इसके विशाल लेखों से पता चलता है कि इसके पत्थर काटने वाले राजगीर हिंदू थे जिन्होंने इस पर हिंदू शैली के नमूने तराशे हैं। कहीं-कहीं पर कमल का पुष्प उत्कीर्ण है। यह कथित मस्जिद जौनपुर की शिल्पकला का एक अति सुंदर नमूना है। इसके मध्य के कमरे का घेरा करीब 30 फीट है यह एक विशाल गुंबद से घिरी है जिसकी कला, सजावट और बनावट मिस्र शैली के मंदिरों की भांति है।
बात लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीला की कि जाए तो अब ‘लक्ष्मण टीला’ का नाम इतिहास के पन्नों में सिमट चुका है। यह स्थान अब ‘टीले वाली मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि लखनऊ की संस्कृति पर यह जबरदस्ती थोपा गया है। यह दावा लखनऊ का इतिहास लिखने वाले तमाम इतिहासकार करते रहे हैं। पूर्व बीजेपी सांसद लालजी टंडन (अब दिवंगत) ने अपनी किताब ‘अनकहा लखनऊ’ में भी इसका जिक्र किया है। लक्ष्मण टीले पर मुगल शासकों की नजर हमेशा टेढ़ी रही। इसीलिए कई मुगल शासकों द्वारा बार-बार लक्ष्मण टीला ध्वस्त करने की कार्रवाई की गई। बाद में सिर्फ लक्ष्मण टीला नाम ही बचा रह गया था। कहते हैं बाद में औरंगजेब ने यहां पर मस्जिद बनवा दी, जबकि 1857 के पहले के लखनऊ के एक भी नक्शे में इस मस्जिद का कोई जिक्र नहीं मिलता है। कहा तो यह भी जाता है कि 1857 की क्रांति के बाद यहां बनी ‘गुलाबी मस्जिद’ पर अंग्रेज अफसर घोड़े बांधने लगे। बाद में राजा जंहागीराबाद की गुहार पर अंग्रेजों ने मस्जिद को खाली किया, लेकिन हर दौर में इसका नाम लक्ष्मण टीला बना रहा। टंडन जी का आरोप था कि समाजवादी पार्टी की मुलायम सरकार में गुलाबी मस्जिद का नाम बदलकर टीले वाली मस्जिद करके लक्ष्मण टीला के वजूद को ही नकार दिया गया। इतिहासकार स्वर्गीय योगेश प्रवीन ने तो यहां तक कहा था कि लक्ष्मण टीले का मामला भी ठीक बाबरी मस्जिद जैसा ही है, अधिकतर मुगलकालीन इमारतें या मस्जिदें पुरानी इमारतों को तोड़कर ही बनाए गए हैं, लेकिन इस सबके बीच लक्ष्मण टीले पर गुफा की कहानी बिल्कुल गायब हो गई।
वैसे टंडन जी अकेले ऐसे नहीं थे, कई इतिहासकार यहां तक कि आम जनता भी इस बात से इत्तेफाक रखती है। लखनऊ की संस्कृति के साथ यह जबरदस्ती की गई है। लखनऊ के पौराणिक इतिहास को नकार कर नवाबी कल्चर में ढालने के लिए ऐसा किया गया है। लक्ष्मण टीले पर शेष गुफा थी, जहां बड़ा मेला लगता था। टीले पर लक्ष्मण जी का एक छोटा-सा मंदिर भी था। खिलजी के वक्त यह गुफा ध्वस्त की गई और उसके बाद यह जगह टीले में तब्दील कर दी गई। औरंगजेब ने बाद में यहां एक मस्जिद बनवा दी, जिसे टीले वाली मस्जिद के नाम से जाना जाने लगा। तब हिन्दू पक्ष ने इसका बेहद जोरदार तरीके से विरोध भी किया था, लेकिन मुगल शासन के दौरान उनकी एक नहीं सुनी गई और उनकी आवाज जोर-जुल्म से दबा दी गई थी। यह सब इतिहास में दर्ज है, लेकिन यहां भी कठमुल्ले इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
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