1857 की क्रांति के बाद जब अंग्रेजों की प्रति- क्रांति हुई तो अपने कुछ स्थायी प्रभाव पैदा कर गई। कुछ लोगों की मान्यता है कि 1857 की क्रांति को हम हार गए थे या कहिए कि यह हमारी फूट के कारण असफल हो गई थी। इस पर हमारा मानना है कि ऐसा कुछ भी नहीं था। सच यह था कि 1857 की क्रांति के समय भारत ने अपने पराक्रम का परिचय देते हुए 1947 में मिलने वाली आजादी का बिगुल फूंक दिया था। 1857 की क्रांति के मुख्य सूत्रधार रहे आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद जी महाराज ने उस समय यह कह दिया था कि आजादी के लिए हमें 100 वर्ष तक भी लड़ना पड़ सकता है। इसका अभिप्राय था कि 1857 की क्रांति के क्रांतिकारी कल परसों में आजादी को लेने के लिए नहीं लड़ रहे थे। उन्होंने अपनी दीर्घकालिक योजना बना ली थी और यह मन बना लिया था कि हमें तो नींव के पत्थर बन जाना है और अपने आपको मिटा देना है।
अंग्रेजों ने जब प्रति क्रांति की तो उन्होंने भविष्य में क्रांति की सारी संभावनाओं को निरस्त करने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों के ही नहीं बल्कि क्रांतिकारियों को संभावित रूप से सहायता देने वाले लोगों के भी हथियार छीन लिए। अंग्रेजों के इस दमन चक्र का सबसे अधिक शिकार हिंदू समाज के लोग ही हुए थे। क्योंकि हिंदू ही इस देश को अपना देश मानकर क्रांति की योजनाओं में व्यस्त रहते थे। भारतवासियों से हथियार छीनने और फिर केवल उन लोगों को हथियार देने की योजना अंग्रेजों ने बनाई जो अंग्रेजों के शुभचिंतक थे या जिन्हें अंग्रेजों की सहायता करते हुए भारतवासियों से किसी प्रकार का खतरा था। 1857 से लेकर 1885 के काल में अंग्रेजों ने भारतीयों को पूर्णतया नि:शस्त्र कर दिया था।
भारत के लोगों की इसी नि:शस्त्रीकरण की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए कांग्रेस जैसी अपनी चाटुकार संस्था को स्वयं अंग्रेजों ने ही स्थापित करवाया। यही कारण रहा कि कांग्रेस ने अपने जन्म के पहले दिन से ही भारतवासियों के नि:शस्त्रीकरण की प्रक्रिया का समर्थन किया । उसने कभी भी यह मांग नहीं की कि भारतवासियों को अस्त्र शस्त्र दिए जाएं। हथियारों को लेने के लिए लाइसेंस की प्रक्रिया समाप्त की जाए। वे कौन लोग थे जो अंग्रेजों की दृष्टि में हथियार रखने के लिए अधिकृत नहीं हो सकते थे ? निश्चित रूप से वे भारत के क्रांतिकारी या वे ही लोग थे जो अंग्रेजों को भारत वर्ष में एक पल के लिए भी रहने देना नहीं चाहते थे। इस प्रकार क्रांतिकारियों या उनके समर्थकों को पूर्णतया नि:शस्त्र करके मारने की तैयारी करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने भारत में आर्म्स लाइसेंस जारी करने की प्रणाली लागू की। कांग्रेस अंग्रेजों की इस चाल को समझ कर भी उनका समर्थन करती रही। अंग्रेजों की इस प्रणाली को लागू करने से ही पता चल जाता है कि वह 1857 की क्रांति से कितने भयभीत हो गए थे ? कांग्रेस ने अंग्रेजों की इस नीति का समर्थन किया। इसलिए वह पापबोध से डरी रही। यही कारण रहा कि उसने भी अंग्रेजों की इसी प्रक्रिया को आजादी के बाद जारी रखा।
यदि भारतवर्ष में 1857 की क्रांति के पश्चात आर्म्स लाइसेंस की प्रक्रिया अंग्रेज लागू नहीं करते तो देश सशस्त्र क्रांति के माध्यम से बहुत पहले आजाद हो गया होता । इतना ही नहीं, तब क्रांतिकारियों के हाथों में आई सत्ता के चलते भारत क्रांतिकारी नेता के रूप में विश्व नेतृत्व कर रहा होता। क्योंकि उस समय भारत की शासन प्रशासन की सारी प्रक्रिया भारतीयता के बोध से लबालब भरी होती और कांग्रेस की छद्म नीतियों को कहीं दूर दूर तक भी प्रश्रय नहीं मिलता।
हमारी गुरुकुलीय शिक्षा को अंग्रेजों ने शिक्षा नहीं माना। इसलिए हमको संस्कृत का विद्वान होने के उपरांत भी हेय दृष्टि से देखा और ग्वाला या मूर्ख कहकर हमारा उपहास किया। कांग्रेस ने भी इसी परंपरा को आगे जारी रखा। उसका परिणाम यह निकला कि भारतीय संस्कारों में शिक्षित होने वाले लोग उपेक्षित दृष्टि से देखे जाने लगे। भारतीय शिक्षा संस्कारों के प्रति यही दृष्टिकोण आज भी जारी है। इसी दृष्टिकोण के चलते हमारी राष्ट्रभाषा और संस्कृत व संस्कृति सब उपेक्षित हो गए हैं।
यदि देशभक्तों को, देश , धर्म और संस्कृति के रक्षकों को देश का एक सिविल सिपाही मानकर हथियार रखने की खुली छूट भारत में दी गई होती तो आतंकवाद नाम की चिड़िया भारत में कभी जन्म भी नहीं लेती । भारत में आतंकवाद केवल इसलिए है कि यहां देशभक्तों को नि:शस्त्र रखा जाता है तथा देश के गद्दारों और देश विरोधी लोगों को हथियार बनाने की छूट दी जाती है।
भारत सरकार को इजराइल जैसे देश से शिक्षा लेनी चाहिए। जहां देश के गद्दारों और देश के शत्रुओं को पाठ पढ़ाने के लिए जनसाधारण को भी हथियार रखने की छूट दी जाती है। जैसे ही कहीं कोई देश विरोधी शक्ति या व्यक्ति खड़ा होने का प्रयास करता है उसे तुरंत कुचल दिया जाता है । जबकि हमारे देश में आतंकवादियों को दूध पिलाया जाता है, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए रात में न्यायालयों तक को खुलवा दिया जाता है। हमारे कानूनों में भी बहुत भारी दोष है । ये वही कानून हैं जो अंग्रेजों के पिट्ठुओं को देशभक्त करार देते थे और राष्ट्र भक्तों को फांसी चढ़ाया करते थे । उसी कुसंस्कार से भोजन पानी लेने वाले ये कानून आज भी आतंकवादियों और देश विरोधी लोगों के अधिकारों का संरक्षण करते हैं। जबकि उन्हें समाप्त करने वाले सुरक्षाबलों तक को दोषी मानते हैं। निश्चय ही इस दिशा में सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए। याद रहे, भारत वही देश है जिसमें चाणक्य जैसे महाज्ञानी का जन्म हुआ है। जिसने कहा था कि शत्रु को समूल नष्ट करने में ही लाभ है।
हमें भारत रत्न महामना मालवीय जी के इस अंतिम संदेश को भी समझना होगा कि – हिंदू अपने को संगठित करें। सब एक होकर काम करें। नि:स्वार्थ और देशभक्त कार्यकर्ताओं का एक दल निर्माण करें। जिनका एकमात्र उद्देश्य सेवा हो। जाति तथा वर्णगत भेदों को भुला दें और हिंदू जाति की रक्षा के लिए और अपने आदर्शों तथा संस्कृति को बचाने के लिए अधिक से अधिक त्याग करें। … हिंदुओं को भयमुक्त होकर बहादुर और मजबूत बनना चाहिए। सैनिक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। स्वयं सेवकों की संस्थाएं बनानी चाहिए और आत्मरक्षा के लिए एक केंद्रीय स्वयंसेवक सेना का निर्माण करना चाहिए। …. जो हिंदुओं को शांति के साथ नहीं रहने देना चाहते उनके प्रति किसी प्रकार की सहिष्णुता नहीं हो सकती। यदि धर्म की ही पुकार है तो अवश्य ही उसमें धार्मिक दृढ़ता की गूंज होनी चाहिए। रक्षा की अवस्था निश्चय ही इतनी प्रभावशाली हो कि आक्रमण निश्चित रूप से व्यर्थ हो जाए ।
हमें दोगले चरित्र वाले राजनीतिक दलों और नेताओं से भी सावधान रहने की आवश्यकता है, जो हिंदू को तोड़ने और फोड़ने के दृष्टिकोण से जातीय आधार पर जनगणना की मांग कर रहे हैं। ऐसे लोगों को हमें जयचंद की परंपरा के गद्दारों की श्रेणी में रखकर देखना चाहिए। हमें सामूहिक प्रयास करके सरकार पर यह दबाव बनाना चाहिए कि देशभक्तों की एक नागरिक सेना भी देश में होनी चाहिए। जिसका उद्देश्य आतंकवाद और देश के प्रति गद्दारी को समाप्त करना हो। देश के धर्म, संस्कृति और वैदिक परंपराओं की रक्षा करना जिसका मिशन हो। इसका प्रशिक्षण आजाद हिंद फौज की तर्ज पर होना चाहिए।
— डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत