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आतंकवाद

आतंकवाद राजनीतिक नहीं बल्कि सिर्फ दिमाग़ से जुड़ी प्रोब्लम है

राजीव चौधरी

नाम था शारी बलोच, उम्र भी यही कोई 30 साल थी। अनपढ़ नहीं थी, बल्कि साल 2014 में पाकिस्तान की अल्लामा इक़बाल ओपन यूनिवर्सिटी से बी.एड और 2015 में बलूचिस्तान यूनिवर्सिटी से ज़ूलॉजी में एमएससी की थी। लेकिन हाल ही कराची यूनिवर्सिटी के परिसर में चाइनीज़ लैंग्वेज सेंटर के पास एक आत्मघाती हमले में खुद को उड़ा लिया। इस आत्मघाती हमले में कई चाइनीज टीचर्स की मौत हो गई कुछ घायल भी हुए।
शारी बलोच के इस आत्मघाती हमले ने, दो दशकों बाद एक सवाल को फिर से जिन्दा कर दिया कि आतंकवादी कौन है? एक आम इन्सान कैसे आतंकवादी बन जाता है? आखिर ऐसे क्या कारण होते है जो खुद को ही बम से उड़ा देते है?
असल में इन सवालों पर कई शोध हुए। यहाँ तक कि अनेकों बड़े मनोचिकित्सक आतंकवादियो के बीच भी रहे। साल 2001 से पहले पूरी दुनिया में यही माना जाता था कि अशिक्षा, गरीबी आम मुसलमान को आतंकवादी बना देती है। इसके अलावा चेचन्या में साल दो हजार तक इस्लामी चरमपंथी संगठनों द्वारा रूसी सैनिकों के ख़िलाफ़ महिला आत्मघाती हमलावरों का इस्तेमाल किया गया था। इन आत्मघाती बम धमाकों में शामिल होने वाली ज़्यादातर महिलाएं वो थीं जिनके पति, भाई या पिता को रूसी सैनिकों ने मारा हो। इसलिए उनके लिए ब्लेक विडो यानि काली विधवाएँ जो हमला कर रही शब्द का प्रयोग किया गया।
लेकिन जब अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ तो ये विषय पलट गया और इस पर शोध आरम्भ हुआ। कारण हमला करने वाले सभी आतंकी डॉक्टर इंजीनियर और उच्च शिक्षा की डिग्री लिए छात्र थे। दुनिया भर के तमाम विश्लेषक इस सवाल की पड़ताल में जुट गये, वो जानना चाहते थे कि किसी मुसलमान में ऐसी क्या बात होती है कि वह जिहादी बन जाता है।
इस शोध में सबसे आगे आये ब्रिटेन में अपराध शास्त्र के प्रोफ़ेसर “एंड्रूयू सिल्क” उनका अध्यन शुरू हुआ। किन्तु इस मामले में शोध कर रहे मनोचिकित्सकों के पास भी जानकारियाँ बहुत कम थी और वे आतंकवादियों की आत्मकथाओं और मीडिया में आए उनके इंटरव्यू से काम चला रहे थे। अंत में एंड्रयू ने लिखते हुए कहा, “आतंकवाद बनने की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है, बस इतना कहा जा सकता है कि किसी अनजान व्यक्ति की जान लेने के लिए आपके अंदर पागलपन होना चाहिए” यानि शोध का अंत ये था कि सभी आतंकवादी पागल है। ये राजनीतिक नहीं बल्कि सिर्फ दिमाग़ से जुड़ी प्रोब्लम है।
इस शोध पर सवाल खड़े होने लगे। साथ ही कुछ विशेषज्ञ ऐसे सबूत लेकर आये कि सारे जिहादी मनोरोगी नहीं हैं। इसके बाद सामने आये आंतकवाद से जुड़े मामलों में विशेषज्ञता को लेकर दुनिया भर में मशहूर मनोचिकित्सक “मार्क सेजमैन” ये वो मनोचिकित्सक थे, जिन्होंने 1980 में अफगानिस्तान में हिंसा में शामिल रहे “जिहादियों” के साथ वक़्त बिताया था।
मार्क सेजमैन ने लिखा- इस हमले के बाद पूरा देश एक नई स्थिति के लिए तैयार होने लगा था। इस दौरान सरकार जानकारों को इस दुश्मन को बेहतर तरीक़े से समझने के काम में लगाना चाहती थी। हर किसी के लिए ये समझना मुश्किल था! आखिर क्यों कुछ लोग अपनी जान देकर तीन हज़ार लोगों को मौत की नींद सुला गये।
सेजमैन ने ये भी कहा कि इस काम में अमेरिका ने रकम तो ख़ूब झोंकी गई, लेकिन नतीजे ठोस नहीं मिले। इसके बाद साल 2003 में अमेरिकी सरकार ने आतंकवाद से जुड़े मामलों के विशेषज्ञों की एक आंतरिक टीम तैयार करने का फ़ैसला किया। शोध के लिए नए लोगों को सीधे यूनिवर्सिटी स्तर से भर्ती किया गया।
इसमें भी हुआ ये कि जो विद्वान इस काम में जुटे थे, उनके पास सबकुछ समझने का तरीक़ा और काबिलियत थी, लेकिन दुर्भाग्य से उनके पास कोई तथ्य यानी जानकारी नहीं थी। यानि साल गुजरते गये। आतंकी हमले होते रहे, लेकिन ठोस परिणाम सामने नहीं आ रहे थे।
इसी बीच एक विशेषज्ञ ने नाम बदलकर मुसलमान बनकर खुद को नफ़ीस बताते हुए सीरिया में जंग लड़ रहे अल नुसरा और इस्लामिक स्टेट के आतंकियों से स्काइप और दूसरे मैसेजिंग ऐप के ज़रिए बात की। जब उनका इंटरव्यू किया, तो उन्होंने कहा, “वो पूरी दुनिया में शरिया लागू करना चाहते हैं”
मामला काफी सुलझ चूका था। किन्तु अभी भी एक सवाल बाकी था। वो यह कि इतने बड़े स्तर पर लोग कैसे एक जुट होते है? उनके पास हथियार कहाँ से आते है? क्या सिर्फ यह मान लिया जाये कि इस्लामिक स्टेट और अल कायदा में क्या लोग सिर्फ नौकरी के लिए जुड़ रहे है? अगर ऐसा है, तो आत्मघाती हमलावर खुद को उड़ा देना, सामने वाले की गर्दन इस कारण रेत देना कि वह काफ़िर है? या मजहब का नाम लेकर मासूम बच्चियों का बलात्कार करना जैसे कारणों की तलाश तेज हुई।
अचानक टेररिस्ट साइकॉलजी को कुछ ऐसे सबूत मिले, जिन्होंने इस मामले को सुलझा दिया। उन्होंने बताया कि सभी मुसलमान एक ही उम्माह के हिस्से हैं, तो एक खिलाफत भी होनी चाहिए, जिसमें सभी अंतरराष्ट्रीय सीमाएं खत्म होती हों और एक शरीयत लागू हो।
इसके बाद शोध हुए घटनाओं को जोड़ा गया और निष्कर्ष के तौर पर ब्रिटेन में तैयार “रैडिक्लांइजेशन ऑफ मुस्लिम” इस टाइटल वाले डॉक्यू्मेंट्स में कहा गया कि आज करीब 62 प्रतिशत आतंकी ऐसे हैं जिनके पास अच्छी-खासी क्वायलिफिकेशन है। जिनका फैमिली बै‍कग्राउंड भी काफी अच्छा है। जब इन घरों के बच्चें बगदादी ओसामा जैसे पढ़े-लिखे आतंकियों के बारे में सुनते है या उनकी स्पीच सुनते है तो उनका अपने आप झुकाव होने लगता है।
इसमें भी कई चीजें सामने आई। एक तो यह कि इन पढ़े लिखे युवाओं के पास तकनीकी दक्षता होती है। दूसरा इन्हें जॉब ऑफर की जाती है। तीसरा इनका माइंड ये कहकर वाश किया जाता है कि तुम पढ़ लिखकर मजहब के लिए क्या कर रहे हो। इसी कारण 21 वर्ष की उम्र में ये लोग आतंकी सोच की ओर आकर्षित होने लगते है।
अब बचा गरीब मुसलमान? लेकिन ये फिदायीन तैयार करने का तरीका नया नहीं है। इसमें फिदाईन तैयार करने वाले, पहले किशोर या जवानों को ढूंढा जाता है। फिर इनसे सवाल किये जाते हैं आपने दीन के लिए क्या किया, या क्या कर रहे हैं ? आखिरत के बाद जब तुम्हारा हिसाब किताब होगा तब अल्लाह को क्या जबाब दोगे?
इसके बाद इन युवाओं को विश्व में कहीं भी कोई घटना होती है, उसके चित्र मजलूमों पर होने वाले “जुल्म” यह कह कर दिखाए जाते हैं कि देखों! “मुसलमानों पर कितने जुल्म हो रहे हैं, क्या तुम इसे सह लोगे?”
तब उनका उत्तेजना से भरा उत्तर होता है नहीं! अब मौलाना आवाज और तेज करते जातें हैं। कच्चे दिमाग के पूरी तरह ट्रांस में आ जाने बाद उन्हें छांट कर अलग कर लिया जाता है। अब छांटे गये युवकों के दिमाग में ख़ास आवाज में जनून कुछ कर गुजरने का भाव भरा जाता है। इन्हीं में आँखों में सुर्खी देख कर फिदायीन छांट लिया जाता है।
अब यहाँ से उनको जन्नत का ख़्वाब दिखाया जाता है। क्या तुम जन्नत जाना चाहते हो? तुम्हें आखिरत तक कब्र में इंतजार करना पड़ेगा? लेकिन दीन के नाम पर कुर्बानी देने वाले शहीदों के लिए जन्नत के दरवाजे सदैव खुले रहते हैं।
अगर कोई यहाँ भी पूरा तैयार नहीं होता, तब मौलाना समझाते हैं कि तुम आम औरतों को देखते हो जन्नत में गजब की खूबसूरत हूरें हैं। वह सत्तर तरह के लिवास बदलती हैं। अश्लीलता से भरी उनके जिस्म की नुमाइश कर कहा जाता है, तुम्हे बहत्तर हूरे मिलेंगीं, जेहाद करो फिदायीन बनों, शहीद के लिए जन्नत का रास्ता खुला है। कच्चा दिमाग सोचता है, इतना शुभ अवसर हैं जन्नत पाने का लम्बा इंतजार क्यों किया जाएँ? दीन के नाम पर शहादत और जन्नत का शौर्ट कट, सभी सवाल दब जाते है और कोई भी आम मुसलमान जिहादी बन जाता है।
अब मानसिक रूप से तैयार हो जाने के बाद उन्हें सबसे अलग कर पूरी तरह जनूनी बनाने के लिए लगातार टेप सुनाये जाते हैं। दूसरी तरफ मौका मिलने के बाद फिदायीन पर कुर्बानी का रंग चढ़ा कर बाहर लाया जाता है। वह मरने के लिए इतना उत्तेजित होता है। उसे यह संसार, सभी रिश्तेनाते बेमानी लगते हैं। अक्सर गाड़ी में खतरनाक ज्यादातर आरडीएक्स भर कर शरीर पर भी टाईम बम लगा कर छोड़ देते हैं। जाओ! निर्दाषों को मारो, जन्नत में तुम्हारा इंतजार हो रहा! इस लालच में एक मुसलमान जिहादी बन जाता है। लेकिन वह मरने से पहले कभी मौलाना से सवाल नहीं करता कि अगर इतना कुछ है तो वह मौलाना या उसके बच्चें कभी जिहादी क्यों नहीं बनते?

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