एक अनमोल ग्रंथ : ‘विश्व कवि रामधारी सिंह दिनकर’
‘ विश्व कवि रामधारी सिंह दिनकर’ – इस ग्रंथ के प्रधान संपादक साहित्य जगत के जाने-माने हस्ताक्षर और मां भारती के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के धनी हरिबल्लभ सिंह ‘ आरसी’ (विद्यासागर) हैं। इस अद्भुत ग्रंथ के माध्यम से श्री आरसी जी ने भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित एक कवि को ही अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित नहीं की है अपितु उन्होंने एक दिव्य स्मारक पर पुष्पांजलि अर्पित कर कृतज्ञ राष्ट्र की कृतज्ञता भी ज्ञापित की है। इस ग्रंथ में अद्भुत और अनोखी प्रतिभा के धनी रामधारी सिंह ‘ दिनकर’ जी के जीवन को उकेरती 48 लेखकों की लेखनी चली है। दिनकर जी के विषय में अनेक लेखकों के विचार आमंत्रित करने का उद्देश्य केवल एक ही रहा है कि उनके व्यक्तित्व और प्रतिभा का कोई क्षेत्र छूटने न पाए । कुल मिलाकर ग्रन्थ को समग्रता प्रदान करने का अभिनंदनीय प्रयास किया गया है।
श्री हरि बल्लभसिंह आरसी जी विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं। जिन्होंने साहित्य के क्षेत्र में मां भारती की अप्रतिम सेवा की है। उनका राष्ट्रवादी चिंतन अद्भुत है। राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के धनी श्री आरसी जी मां भारती की उस बलिदानी परंपरा के सिपाही और प्रतिनिधि पुरुष हैं, जिसके पवित्र बलिदानों से इस देश को आजादी मिली। उनके अपने साहित्य लेखन में भी राष्ट्रवाद का पुट स्पष्ट झलकता है। 16 जून 1931 को जन्मे आरसी जी आयु के इस पड़ाव पर भी भारत की बलिदानी पर्व परंपरा को साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों के माध्यम से मनाते हुए संगीत के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं।
अपने अलौकिक व्यक्तित्व और प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने इस ग्रंथ का संपादन किया है। ग्रंथ में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास जी के शुभकामना संदेश के साथ – साथ अन्य अनेक गणमान्य व्यक्तित्वों और प्रतिभाओं के शुभकामना संदेश समाविष्ट किए गए हैं। श्री आरसी जी कहते हैं कि रामधारी सिंह दिनकर को विश्व कवि कहने के पीछे हमारी हठधर्मिता नहीं है ,बल्कि दिनकर के विस्तृत साहित्य की संवेदना को हम विश्व संवेदना के रूप में देखना चाहते हैं । भारतीय संस्कृति विश्व मानव के बीच एकता ,प्रेम और बंधुत्व का भाव उत्पन्न करती है । वास्तव में भारत की वैदिक संस्कृति की इसी विशालता और महानता को स्थापित करना तथा उसके प्रति समर्पित होकर अपने लेखन के माध्यम से हम सबका मार्गदर्शन करने वाले दिनकर जी के जीवन का भी यही उद्देश्य था, इसलिए यह मानना पड़ेगा कि दिनकर जी के माध्यम से इस ग्रंथ में भारतीय संस्कृति का ही गुणगान किया गया है।
श्री आरसी जी का आदेश मिला तो मैंने स्वयं ने भी इस पुस्तक में एक लेख दिया । जिसमें मेरे द्वारा लिखा गया है कि क्रांतदर्शी होना कवि का स्वाभाविक गुण है। उसकी प्रकृति है, उसे नैसर्गिक रूप से मिला हुआ एक वरदान है। कहने का अभिप्राय है कि क्रांतदर्शिता के अभाव में कोई व्यक्ति कवि नहीं हो सकता। जैसे विधाता की रचना और सृष्टा की सृष्टि का होना तभी संभव है जब रचना और सृष्टि के विषय में वह सर्वज्ञ हो, वैसे ही कवि की कविता भी तभी फूटेगी जब वह कविता के विषय में सर्वज्ञ हो। दिनकर जी की कविता की यही विशेषता है, जो हमें उनके साहित्य में स्थान – स्थान पर दिखाई देती है।
ग्रंथ में डॉ नवलकिशोर प्रसाद श्रीवास्तव ने दिनकर जी के प्रति अपनी पुष्पांजलि अर्पित करते हुए कहा है कि द्वितीय महायुद्ध तक आते-आते दिनकर की अंतर्दृष्टि राष्ट्रीयता की सीमा से बढ़कर संपूर्ण एशिया का प्रतिनिधित्व करने लगी । अब कवि क्रमशः मानवतावाद और विश्ववाद की ओर बढ़ने लगा । उसने अनुभव किया कि समस्त एशिया के पददलित राष्ट्राें को एक सूत्र में बंध जाना है। ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले कवि को विश्व कवि नहीं तो और क्या कहेंगे ?
‘ दिनकर की विश्व दृष्टि’- नामक लेख के माध्यम से डॉक्टर विद्यासागर सिंह कहते हैं कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का उदय ऐसे युग और परिवेश में हुआ जब देश को उनकी परम आवश्यकता थी। राजा राममोहन राय से शुरू भारतीय नवजागरण का उन्नयन दिनकर जैसे विलक्षण शलाका पुरुष के रूप में हुआ। दिनकर का योगदान न केवल पराधीन भारत के प्राणों में पौरुष फूंकने वाले कवि के रूप में है ,बल्कि एक गंभीर गद्य लेखक और वैश्विक मानस के महान चिंतक के रूप में भी रहा है। उन्होंने अपने लेख में दिनकर जी की इन पंक्तियों को स्थान दिया है :–
एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है ,
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
या महान पाप यहां फूटा ,बन युद्ध है ।
डॉ सुशील कुमार पांडे साहित्येंदु जी दिनकर जी की भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धा को उनकी ही इन पंक्तियों में प्रकट करते हैं :-
जब साहित्य पढ़ो तब पहले पढ़ो ग्रंथ प्राचीन।
पढ़ना हो विज्ञान अगर तो पोथी पढ़ो नवीन।।
दिनेश्वर प्रसाद सिंह दिनेश दिनकर जी के विषय में अपने लेख लिखते हैं कि दिनकर जी की काव्य कला की मूल प्रेरणा युग धर्म है। एक ओर वे झोपड़ी का रुदन सुनते हैं तो दूसरी ओर प्रकृति सुंदरी के पायल की रुनझुन । युग धर्म की बात करने वाले कवि को हम अपने प्रदेश और देश की सीमा में बांधकर नहीं रख सकते। वह पूरी मानवता के लिए लिखता है । विश्व के लिए लिखता है। इसी प्रकार डॉ राकेश शुक्ल ने लिखा है कि राष्ट्रीय चेतना एवं जनवादी चेतना की दृष्टि से दिनकर की कविता ने आम आदमी के दिल में जगह बनाई। उनके समकालीन पूर्ववर्ती बड़े से बड़ा कवि यह जगह नहीं बना पाया। कारण उनके स्वर में राष्ट्र का स्पंदन है,…।
डॉ श्याम बिहारी तिवारी ने कहा है कि महाकवि दिनकर ऐसे साहित्यकार हैं जिनका संपूर्ण जीवन एवं चिंतन विश्व मानव के हितार्थ काव्य रचना में नियोजित रहा। सच्चा साहित्यकार तो वही होता है जिसकी दृष्टि देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर वैश्विक समस्याओं पर टिकी होती है और लेखनी तत्समाधानाय अपने चिंतन के नवनीत को काव्य एवं साहित्य की अन्यान्य विधाओं में सजा संवार कर प्रस्तुत करती रहती है।
डॉ दिनेश तिवारी दिनकर जी के विश्व मानस को इन पंक्तियों में टटोलते हैं :-
शांति नहीं तब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो।
नहीं किसी को बहुत अधिक हो नहीं किसी को कम हो।।
डॉक्टर पशुपति नाथ उपाध्याय कहते हैं कि वस्तुतः दिनकर की साहित्यिक अभिव्यक्ति ही राष्ट्रीय जीवन की अभिव्यक्ति है, जिसके मूल में मानवीय मूल्यों की असल पूंजी है।
डॉक्टर मदन मोहन पांडेय दिनकर जी की इन पंक्तियों को उद्धृत कर उन्हें अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं :-
भारत नहीं स्थान का वाचक गुणविशेष नर का है ,
एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है,
जहां कहीं एकता अखंडित जहां प्रेम का स्वर है,
देश देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है।
डॉ प्रदीप कुमार दुबे लिखते हैं कि रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रकवि जैसे सीमित घेरे से बाहर कर विश्व कवि की वरेण्य पंक्ति में ला खड़ा करने की कवायद जो विश्व कवि दिनकर सम्मान समिति करने जा रही है, इसके लिए मैं समस्त संपादक मंडल के सदस्यों को साधुवाद देना चाहूंगा। डॉक्टर लक्ष्मीकांत पांडेय कहते हैं कि यह दिनकर हैं, जिन्होंने संपूर्ण भारतीय इतिहास को आधुनिक संदर्भों से जोड़कर व्याख्यायित करने में सफलता प्राप्त की। डॉक्टर सत्येंद्र अरुण बड़े पते की बात कहते हैं जो राष्ट्र के विभिन्न अवयवों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता वह विश्व के विभिन्न देशों का प्रतिनिधित्व कैसे करेगा और भारत में जो भी राष्ट्रकवि होगा उसे विश्वकवि ही समझना चाहिए क्योंकि भारत छोटे पैमाने पर सारा संसार ही है।
डॉक्टर सिकंदर लाल ने दिनकर जी को उनके स्वयं के इन शब्दों में ही याद किया है कि परंपरा और विद्रोह.. जीवन में दोनों का स्थान है । परंपरा घेरा डालकर पानी को गहराई प्रदान करती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। परंपरा रोकती है। विद्रोह आगे बढ़ाता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही समाज की असली प्रगति है।’
डॉक्टर अंगद तिवारी दिनकर जी की इन पंक्तियों को प्रस्तुत कर उनका पावन स्मरण करते हैं :-
जब तक मनुज मनुज का सुभाग नहीं सम होगा ,
शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा।
गिरीश प्रसाद गुप्ता जी लिखते हैं कि दिनकर जी का संपूर्ण साहित्य उनके हृदय की सहज उपज है। जो चीजें हृदय की उपज होती हैं वह हृदयग्राह्य होती हैं। यही वजह है कि दिनकर जी कबीर की तरह जन-जन के कवि हैं। पूनम सिन्हा कहती हैं कि दिनकर जी अपनी कविताओं में क्रांति का आव्हान करते हैं। जिसमें मनुष्यत्व का स्पष्ट उद्घोष सुनाई पड़ता है। उन्होंने अपनी एक कविता में कृषक परिवार के शिशुओं की दुर्दशा एवं सामाजिक व्यवस्था की विद्रूपता पर कठोर व्यंग्य किया है तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्रांति का आह्वान किया है। जिससे कि शोषितों, पीडितों को जीने का अधिकार प्राप्त हो।
विश्व कवि के प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए डॉ श्याम लाल पांडे कहते हैं कि दिनकर की पद्यात्मक गद्यात्मक रचनाओं की संपूर्ण रचनात्मक प्रवृत्तियों का अवलोकन एवं विश्लेषण करने पर पता चलता है कि दिनकर जी की कवित्व शक्ति को मात्र राष्ट्रीयता की सीमा में नहीं बांधा जा सकता ।
ग्रंथ में यदि डॉक्टर केशुभाई देसाई वंचित, दलित साहित्यकारों के प्रेरणा स्रोत के रूप में दिनकर जी को अपनी भावांजलि अर्पित करते हैं तो मानवीय मूल्यों के अमर गायक के रूप में मनोहर सिंह राठौड़ भी दिनकर जी को अपनी भावांजलि अर्पित करते हैं। इसी प्रकार डॉ दिग्विजय शर्मा विश्व कवि दिनकर जी की ‘ उर्वशी’ में उनकी नारी के प्रति संवेदनशीलता को टटोलते हैं और नारी अभिव्यक्ति की व्यापकता को समझने वाले एक विश्व कवि के रूप में उन्हें सम्मान देते हैं। डॉ अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं कि दिनकर जी को कभी हम एक युग विधाता, युग निर्माता, युग प्रवर्तक, युग दृष्टा के रूप में पाते हैं तो कभी राष्ट्र की सुषुप्त शक्ति को जगाने , राजनीतिक पराधीनता और अंधविश्वासों की श्रंखला से मुक्त करने की प्रबल आकांक्षा से युक्त एक महान देशभक्त और समाज सुधारक की भूमिका निभाते देखते हैं।
डॉ पुष्पेंद्र दूबे दिनकर जी को चिंतन के प्रतिष्ठाता ऋषि के रूप में महिमामंडित करते हुए लिखते हैं कि छोटी सी देह में रहकर विश्व कल्याण की कामना कोई ऋषि ही कर सकता है। डॉक्टर प्रमिला अवस्थी ने अपनी भावांजलि के लिए इन शब्दों का चयन किया है ,- ‘ दिनकर का समूचा साहित्य अहम से वयं का साहित्य है। जिसने छायावादी कुहासे को मिटा मानवीय चेतना को स्फूर्त और पुन: जागृत किया है। डॉ रमेश कुमार विश्वकर्मा
ने दिनकर जी के जननी के प्रति दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जननी के प्रति दिनकर जी का दृष्टिकोण अत्यंत स्वस्थ, सात्विक एवं उदार मानवतावादी जीवन दर्शन से अभिषिक्त है। उनकी दृष्टि में जननी सृष्टि के विकास क्रम को सातत्य प्रदान करने वाली, संतति के माध्यम से विश्व को लोकोत्तर जगत से संबद्ध करने वाली, संतान के प्रति स्नेह, वात्सल्य, ममत्व और कल्याण कामना से ओतप्रोत त्याग और तपस्या की जीवंत प्रतिमा है। डॉ रंजीत ⁶टी ने दिनकर जी के साहित्य में अंतरराष्ट्रीय सामाजिक चेतना के स्वर खोजते हुए लिखा है कि उनकी सभी रचनाएं प्रेरणादाई सिद्ध हुई और विश्व मानव कल्याण की भावना को उद्घाटित करती हैं।
डॉक्टर उषा चौधरी ने बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी विश्व कवि के रूप में दिनकर जी को याद किया है। वे दिनकर जी की कविता की इन पंक्तियों को भी उद्धृत करती हैं :-
शाप का अधिकारी यह विश्व, किरीचों का जिसको अभिमान।
दीन दलितों के क्रंदन बीच, आज क्या डूब गए भगवान ?
डॉक्टर अजीत कुमार राय लिखते हैं कि दिनकर का संपूर्ण लेखन गंभीर दायित्व बोध से परिष्कृत है । उपनिवेशवाद के समस्त आशयों के विरुद्ध मुखर प्रतिरोध दर्ज करने वाले दिनकर का काव्य विवेक भविष्य की दृष्टि से नियोजित है और अतीत का अनुवाद भी वर्तमान को कंपित करता है। डॉ आशीष पांडेय लिखते हैं कि पूंजीवाद ,साम्राज्यवाद, सामंतवाद और तानाशाही व्यवस्था के अंत के लिए दिनकर क्रांति का आवाहन करते हैं। जिसकी क्रांति पिपासा इन आततायी शक्तियों के लहू से बुझे, इसके लिए वे पौरुष के महत्व को स्थापित करते हैं।
डॉक्टर कनुप्रिया प्रचंडिया विश्व कवि दिनकर की महत्ता को भूमंडलीकरण के आलोक में नापने तोलने का प्रयास करती हैं और उनकी इन पंक्तियों को उद्धत करती हैं :-
बड़ा है आदमी जो जिंदगी भर काम करता है,
बड़ी कविता वही है जो सृष्टि को सुंदर बनाती है।
डॉ सुनीता शाह कहती हैं कि दिनकर जी का विश्व प्रसिद्ध साहित्य ‘ संस्कृति के चार अध्याय’ में भारतीय संस्कृति, मानवतावाद , भारतीय जीवन दर्शन, सांस्कृतिक राष्ट्रीयता, वेदांत दर्शन एवं सनातन धर्म के बारे में ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणाप्रद जानकारियां भरी पड़ी है। डॉ अनीता गोस्वामी दिनकर जी की कविता की इन पंक्तियों को उद्धृत कर उन्हें अपनी भावांजलि अर्पित करती हैं :-
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक , ठिठुर जाड़ों में रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा बसन बेच। जब ब्याज चुकाए जाते हैं ,
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं।
डॉ रवि रंजन कहते हैं कि रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रीय जागरण की देन के साथ-साथ विकास करने वाले रचनाकार भी हैं। डॉक्टर राजेंद्र साह कहते हैं कि दिनकर ने स्वतंत्रता को सुख शांति का नहीं क्रांति का , विप्लव का तूर्यनाद माना है । कवि ने ‘हुंकार’, ‘हाहाकार’, ‘दिगंबरी’, ‘विपथगा’ आदि जीवंत कविताओं में क्रांति एवं विद्रोह का आह्वान किया है। दिनकर जी की इन पंक्तियों को भी वह लिखते हैं :-
मैं निस्तेजों का तेज, युगों के मूल मौन की बानी हूं,
दिलजले शासितों के दिल की मै जलती हुई कहानी हूं।
डॉ सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ जी दिनकर जी के विषय में लिखते हैं कि गंभीर लेखक, मूर्धन्य निबंधकार, सुविज्ञ दार्शनिक, विश्व विख्यात साहित्यकार, सत्ता और साहित्य के अभूतपूर्व सेतु, विद्रोही राष्ट्रीय कवि एवं अपने समय के सर्वश्रेष्ठ हिंदी वक्ता रामधारी सिंह दिनकर उन विरले साहित्यकारों में से हैं जिनका साहित्य उनके व्यक्तित्व के सर्वथा अनुरूप है अर्थात विभिन्न तत्वों का संगम। प्रदीप बहराइची लिखते हैं कि जन-जन को अपनी रचनाओं से जोड़ने की कला रखने वाले दिनकर जी की रचनाएं सिर्फ शब्द मात्र नहीं बल्कि विचारों की सदानीरा हैं। ….. दिनकर जी की कविताएं आज भी सड़क से लेकर संसद तक नजीर के रूप में पढ़ी जाती रही हैं और जब तक धरा पर मानवता का वास है तब तक दिनकर जी की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
डॉक्टर एस श्याम राव ‘उर्वशी’ काव्य में प्रेम के वैश्विक चिंतन पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि प्रेम मानव लोक की एक अमर निधि है। प्रेम वह दिव्यलोक की वस्तु नहीं अपितु मानव लोक की सहज संपत्ति है। प्रेम एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से बांधकर रखने का सबसे बड़ा साधन है। प्रेम मिट्टी को सोना कर देता है। मानवी देवी बन जाती है। सात कवच पहने हुए भी नारी पुरुष के चुंबन से पुलकित होती है। पुरुष अपने से सुरक्षित नारी को देखना चाहता है और उसे आश्वासन देना चाहता है कि उसकी सुरक्षा में नारी को कोई भय नहीं है। डॉ आदित्य कुमार गुप्ता विश्व कवि दिनकर की सामाजिक समरसता ‘रश्मिरथी’ पर अपना चिंतन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि वैसे तो दिनकर का समस्त साहित्य किसी न किसी रूप में सामाजिक मानवतावादी समरसता के चिंतन का स्रोत है, परंतु इस संदर्भ में ‘रश्मिरथी’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जिसमें सामाजिक समरसता मानवीय कल्याण की भावना का मार्ग प्रशस्त हुआ है। वह दिनकर जी की इन पंक्तियों को भी लिखते हैं :-
बड़े वंश से क्या होता है छोटे हों यदि काम ,
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है नहीं वंश धन धाम।
द्वारिका राय सुबोध ने अपनी पुष्पांजलि इन शब्दों में दी है – “दिनकर की काव्य चेतना व्यापक थी। ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘रश्मिरथी’ में वीर रस की प्रधानता है। जिसके कारण इन्हें युद्ध काव्य कहा जाता है। तथापि इनमें मानव मूल्यों की स्थापना का व्यापक प्रयास भी किया गया है। अनर्थ ,अन्याय और अधर्म का विनाश करने के लिए क्या करना उचित हो सकता है? इसे दिनकर ने प्रश्नवाचक में छोड़ दिया है।
पापी कौन ? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला ?
याकि न्याय खोजते विघ्न का शीश उड़ाने वाला ?
श्रीमती ऐश्वर्य आनंद मानवीय मूल्य और वैश्विक चेतना के उन्नायक कवि रामधारी सिंह दिनकर के लिए लिखती हैं कि :- रामधारी सिंह दिनकर बहुत बड़े चिंतक एवं विश्वमानवतावाद के पोषक थे। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को देखा था। उसके प्रभाव को समझा और अनुभव किया था। उसने मानस पटल को झकझोर दिया। जिसकी परिणति था ‘कुरुक्षेत्र’। यह कृति 1946 में प्रकाशित हुई। हमारा देश उस समय गुलामी की जंजीर से जकड़ा हुआ था। उनमें राष्ट्र चेतना की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी । राष्ट्र के साथ-साथ विश्वकल्याण का संकल्प लेकर अनेक कृतियां विश्व को दीं। जिसका प्रभाव संपूर्ण जगत में पड़ा और उनकी रचना विश्व भर में लोकप्रियता को प्राप्त हुई। इसी प्रकार अजीत कुमार सिंह लिखते हैं कि महाकवि दिनकर ने न केवल भारत बल्कि विश्व के साहित्यिक समाज में स्वयं को पहचान दी, फलस्वरूप दिनकर के साहित्य को विश्व जानता और मानता है। साथ ही काव्य को गुनगुनाता है। दिनकर ने राष्ट्रीय चेतना को मुखरित कर भारतीय संस्कृति को नव आयाम दिया। उन्होंने राष्ट्र और राष्ट्रवाद के संदर्भ में राष्ट्र को भाववाचक संज्ञा कहा।
अपनी भावांजलि प्रकट करते हुए जयराम सिंह ने दिनकर जी के विषय में लिखा है कि वह ऐसे युग के कवि हैं जब देश की मानवता गुलामी की जंजीरों में जकड़ी कराह रही थी। देश को गुलामी से मुक्त कराने का आंदोलन चल रहा था। दासत्व की त्रासदी से मानवता त्रसित थी। स्वाभिमान आहत था। कवि मन दासत्व के आघात से व्यथित था। हरिनारायण गुप्त जी दिनकर जी को क्रांतिधर्मी विश्वकवि के रूप में स्मरण करते हैं। गुप्त जी उनकी कविता के एक अंश को उद्धृत करते हैं : –
विवश देश की छाती पर ठोकर की एक निशानी,
दिल्ली पराधीन भारत की जलती हुई कहानी,
तथा ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो रहा हो हमारा उस पर दिया जला दे।
अनिल कुमार झा ने अपनी विनम्रता पूर्ण भावांजलि प्रकट करते हुए दिनकर जी की इन पंक्तियों को उद्धृत किया है :-
उस रोटी को धिक्कार जिससे बचे मनुज का मान नहीं,
खा जिसे गरुड़ की पांखों में रह जाती मुक्त उड़ान नहीं।
परमानंद प्रभाकर कहते हैं कि दिनकर के कवि का व्यक्तित्व राष्ट्रकवि से भी ऊपर है। उसे भौगोलिक सीमा की परिधि का कवि मानकर राष्ट्रकवि कहकर कवि के मूल्यांकन में या तो हमने कुछ भूल कर दी है या हमसे भावातिरेक में कहीं कुछ महत्वपूर्ण वस्तु छूट गई है और शायद दिनकर को अपने लिए ‘राष्ट्रकवि’ का प्रयोग अच्छा नहीं लगता था। अन्त में सुधा अग्रवाल जी दिनकर जी के व्यक्तित्व पर एक विहंगम दृष्टिपात करते हुए लिखती हैं कि वास्तव में रामधारी सिंह दिनकर भारतीय राजनीति और भारतीय कविता के सबसे अप्रतिम उदाहरण हैं। क्योंकि वह हिंदी काव्य में पौरुष के प्रतीक और राष्ट्र की आत्मा का गौरव नायक भी माने जाते हैं। जिनकी वाणी में ओज, लेखनी में तेज और भाषा में अबाध प्रवाह था।
इस प्रकार बहुआयामी प्रतिभा के धनी विश्व कवि रामधारी सिंह दिनकर के व्यक्तित्व को विभिन्न कोणों और दृष्टिकोणों से लेखकों ने अपनी – अपनी लेखनी से नए शब्द दिए हैं। जिसके लिए ग्रंथ के संपादक श्री हरि बल्लभ सिंह आरसी जी का प्रयास अभिनंदनीय बन पड़ा है। इस ग्रंथ की प्राप्ति के लिए श्री हरिबल्लभ सिंह आरसी, डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा संस्थान ओ0सी0 रोड बिस्टुपुर ,जमशेदपुर 831001, झारखंड, मोबाइल न 0 – 9431380710 पर संपर्क किया जा सकता है। ग्रन्थ के प्रकाशक बूस्टर पब्लिकेशन, दिल्ली 99, फ्लैट नंबर सी0 805, लोनी रोड, नियर कोयल एनक्लेव, भोपुरा गाजियाबाद, पिन 201102 हैं। पुस्तक का मूल्य ₹900 है। ग्रंथ की कुल पृष्ठ संख्या 484 है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत