कर्माशय से ही मिलें, आयु योनि भोग
बिखरे मोती-भाग 94
गतांक से आगे….
बंूद एक ही इत्र की,
फोहे को महकाय।
दिव्य गुण की प्रधानता,
मनुज से देव बनाय ।। 917 ।।
व्याख्या :
दिव्य गुण अर्थात ईश्वरीय गुण। ये आत्मिक ऐश्वर्य के मूलतत्व भी कहलाते हैं। इन्हीं के कारण व्यक्ति के तेज और यश में वृद्घि होती है। ये ईश्वरीय गुण अग्रलिखित हैं जैसे-ज्ञान (विवेक अथवा आत्मप्रज्ञा) प्रेम, प्रसन्नता (आनंद मस्ती) धैर्य (साहस, हिम्मत होंसला) सौहाद्र, शांति, संतोष, शुचिता, (पवित्रता) उदारता (दानशीलता) करूणा (दया) ऋजुता (सरलता अथवा कुटिलता रहित होना) अहिंसा इत्यादि। ध्यान रहे, जब हम शांति शब्द का प्रयोग करते हैं तो इस शांति नामक शब्द में क्षमा और सहनशीलता स्वत: ही समाहित होते हैं।
जिस प्रकार इत्र की एक बूंद अपने से कई गुणना बड़े रूई के फोहे को सुगंधित कर देती है, ठीक इसी प्रकार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में यदि एक भी दिव्य गुण का प्रकटीकरण प्रमुखता से होने लगता है, तो मनुष्य मनुष्यत्व से देवत्व को प्राप्त हो जाता है। जैसे, ज्ञान के कारण यशोदानंदन, भगवान कृष्ण कहलाए। दानशीलता अथवा उदारता के कारण महर्षि दधीचि तत्कालीन ऋषियों में भी वंदनीय कहलाए। करूणा अथवा दयान के कारण महर्षि दयानंद देव दयानंद कहलाए। अहिंसा के कारण महात्मा गौतम बुद्घ भगवान गौतमबुद्घ कहलाए। ऋजुता के कारण महावीर स्वामी भगवान महावीर स्वामी कहलाए। अपनी मस्ती (आनंद) में चूर दत्ताश्रेय भगवान दत्तात्रेय कहलाए। कहने का आशय यह है कि कोई एक दिव्य गुण ही मनुष्य को महान बना देता है। अत: जितना हो सके अपने आचरण में दिव्य गुणों को अर्जित कीजिए।
सृष्टि क्रम के मूल में,
प्रकृति पुरूष संयोग।
कर्माशय से ही मिलें,
आयु योनि भोग ।। 918 ।।
व्याख्या :
सृष्टि क्रम के मूल में प्रकृति पुरूष का संयोग कैसे है? इसके विश्लेषण से पूर्व यह बताना आवश्यक होगा कि इस बाह्य जगत, अर्थात ब्रह्मांड के दो रूप हैं-एक दृश्य जो दीख रहा है, इसे व्यक्त कहते हैं, ‘महत’ कहते हैं, विकृति कहते हैं, दूसरा अदृश्य जो दृश्य से पहले था, जिसमें रज तम सत्व साम्यावस्था में थे, इसे अव्यक्त कहते हैं, प्रकृति कहते हैं। बाह्य-जगत से महत अर्थात व्यक्त (विकृति) परे है, और व्यक्त की अपेक्षा अव्यक्त (प्रकृति) परे है, और अव्यक्त की अपेक्षा पुरूष अर्थात परमात्मा और भी परे है, यानि कि छिपा हुआ है।
पुरूष से परे फिर कुछ नही है। अत: स्पष्ट हो गया कि प्रकृति के नियमों में परमात्मा छिपा हुआ है। यह प्रकृति परमात्मा की शक्ति है जिसे उसके नियम गतिशील और क्रियाशील रखते हैं। जैसे-बीज का अंकुरण होना, तने का आकाश की ओर आना और जड़ का भूमि की तरफ जाना। ऐसा प्रकृति और पुरूष के संयोग से ही होता है।
ध्यान रहे, संसार को थामने वाली भौतिक शक्ति क्षत्र है, आत्मिक शक्ति ब्रह्म है। पिंड आत्मा का शरीर है, जबकि ब्रह्मांड ब्रह्म का शरीर है। शरीर पंचमहाभूतों से बनता है, जो इन पंचमहाभूतों का संयोजन करके इन्हें गतिशील रखता है, उसे आत्मा कहते हैं तथा जो पंचमहाभूतों और आत्मा का संयोजन करके इन्हें गतिशील रखता है, उसे परमात्मा अथवा पुरूष कहते हैं। यद्यपि जीव, बृह्म, प्रकृति ये तीनों अनादि हैं, किंतु इनका अधिष्ठाता ब्रह्म है। इस ब्रह्म की इच्छा से ही प्रकृति कार्यरूप में परिणत होती है और यह सृष्टि क्रम चल रहा है।
कर्म की आत्मा भाव होता है। इसी के आधार पर प्रारब्ध बनता है और प्रारब्ध के आधार पर सब जीवों को आयु, योनि तथा भोग अर्थात साधन मिला करते हैं। अत: जितना हो सके मनुष्य को कर्म की पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
क्रमश: