पूनम नेगी
(बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष)
महात्मा बुद्ध की सरल, व्यावहारिक और मन को छू लेने वाली शिक्षाएं संशय से समाधान की ओर ले जाती हैं। बुद्ध का दर्शन किसी का अंध अनुगामी होना स्वीकार नहीं करता है। वह कहता है –‘’अप्प दीपो भव!’’ अर्थात अपना दीपक आप बनो। तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो। बुद्ध स्पष्ट कहते हैं, ‘समस्याओं से निदान का रास्ता, मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे स्वयं के पास है। सोचो, सोचो और उसे खोज निकालो! इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो। सिर्फ अपने विवेक की सुनो। करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को उचित लगे।’ सामान्यतया बाहरी तौर से देखने पर भगवान बुद्ध का चरित्र एक व्यक्ति विशेष की उपलब्धि मानी जा सकती है किन्तु तात्विक दृष्टि से इसे एक क्रांति कहना अधिक समीचीन होगा।
करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व इस युगपुरुष के अवतरण युग में समाज में अवांछनीयता का बोलबाला था। अंधविश्वास व रूढ़ियों को धर्म का पर्यायवाची माना जाने लगा था। जब राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने चारों ओर छाये इस अंधकार को देखा तो उनकी आत्मा छटपटा उठी और उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर अंधकार से लड़ने का बीड़ा उठा लिया तथा कठोर तपश्चर्या से “बुद्धत्व” प्राप्त करके वे युग की पुकार पर समाज को सत्पथ पर चलाने के जीवन लक्ष्य में जुट गये। विशाल लक्ष्य की पूर्ति के लिए सहयोगियों का विशेष महत्व होता है। इसलिए उन्होंने अनुयायी बनाये, जिन्हें परिपक्व पाया, उन्हें परिव्राजक बनाकर सद्ज्ञान का आलोक चहुंओर फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी। यही था बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन अभियान जो उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ से शुरू किया था। तब उनके शिष्यों की संख्या केवल पांच थी, मगर बुद्ध को इसकी चिंता न थी। वे भलीभांति जानते थे कि यदि आदर्श ऊंचे व संचालन दूरदर्शितापूर्ण तो सद्उद्देश्य सफल होते ही हैं। महात्मा बुद्ध मूलत: एक सुधारवादी धर्मगुरू थे। उनके द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग के अनुसरण का उपदेश देता है। उन्होंने अपने पहले उपदेश में कहा कि न तो जीवन में अत्यधिक भोग करो और न ही अति त्याग; बीच का मार्ग अपनाते हुए जीवनयापन करो। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भोग की अति से बचना जितना आवश्यक है उतना ही योग की अति अर्थात तपस्या की अति से भी। रहस्य से मुक्त बुद्ध का साधना पथ मानवीय संवेदनाओं को सीधे स्पर्श करता है।
बुद्ध का प्रतिपादन सार रूप में तीन सूत्रों में निहित है – बुद्धं शरणं गच्छामि ! संघं शरणं गच्छामि ! धम्मं शरणं गच्छामि। अर्थात हम बुद्धि व विवेक की शरण में जाते हैं। हम संघबद्ध होकर एकजुट रहने का व्रत लेते हैं। हम धर्म की नीति निष्ठा का वरण करते हैं। ये सूत्र बौद्ध धर्म के आधार माने जाते हैं। गौतम बुद्ध ने चार सूत्र दिये जो “चार आर्य सत्य” के नाम से जाने जाते हैं। पहला-दुःख है। दूसरा-दुःख का कारण है। तीसरा-दुःख का निदान है। चौथा- वह मार्ग है जिससे दुःख का निदान होता है। बुद्ध ने जीवन के दु:खों के कारणों और परिणामों के रहस्य का उद्घाटन किया। बुद्ध ने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों का निदान करते हुए कहा कि यदि बुद्धि को शुद्ध न किया गया तो परिणाम भयावह होंगे। उन्होंने चेताया कि बुद्धि के दो ही रूप संभव हैं- कुटिल और करुण। बुद्धि यदि कुसंस्कारों में लिपटी है, स्वार्थ के मोहपाश और अहं के उन्माद से पीड़ित है तो उससे केवल कुटिलता ही निकलेगी, परन्तु यदि इसे शुद्ध कर लिया गया तो उसमें करुणा के फूल खिल सकते हैं। बुद्धि अपनी अशुद्ध दशा में इंसान को शैतान बनाती है तो इसकी परम शुद्ध दशा में व्यक्ति “बुद्ध” बन सकता है, उसमें भगवत सत्ता अवतरित हो सकती है।
मानव बुद्धि को शुद्ध करने के लिए भगवान बुद्ध ने इसका विज्ञान विकसित किया। इसके लिए उन्होंने आठ बिंदु सुझाये जो बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग हैं। उनका यह आष्टांगिक मार्ग ज्ञान, संकल्प, वचन, कर्म, आजीव, व्यायाम, स्मृति और समाधि के संदर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है। इसी आठ चरणों वाली इस यात्रा का पहला चरण है- सम्यक दृष्टि अर्थात सबसे पहली जरूरत है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण सुधरे। हम समझें कि जीवन सृजन के लिए है न कि विनाश के लिए। दूसरा चरण है- सम्यक संकल्प। ऐसा होने पर ही निश्चय करने के योग्य बनते हैं। इसके बाद तीसरा चरण है – सम्यक वाणी यानि हम जो भी बोलें, उससे पूर्व विचार करें। चौथा चरण है – सम्यक कर्म। यदि मानव कुछ करने से पूर्व उसके आगे पीछे के परिणाम के बारे में भली भांति विचार कर ले तो वह दुष्कर्म के बंधन से सदैव मुक्त रहेगा। अगला चरण है-सम्यक आजीविका- यानि कमाई जो भी हो, जिस माध्यम से अर्जित की जाय, उसके रास्ते ईमानदारी के हों, किसी का अहित करके कमाया गया पैसा सदैव व्यक्ति व समाज के लिए कष्टकारी ही होता है। सम्यक व्यायाम – यह छठा चरण है। इसके तहत इस बात की शिक्षा दी गयी है कि शारीरिक श्रम व उचित आहार विहार के द्वारा शरीर को स्वस्थ रखा जाय क्योंकि अस्वस्थ शरीर से मनुष्य किसी भी लक्ष्य को सही ढंग से पूरा नहीं कर सकता। सातवां चरण है- सम्यक स्मृति। यानि बुद्धि की परिशुद्धि। व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक विकास का यह महत्वपूर्ण सोपान है। आठवां व अंतिम चरण है – सम्यक समाधि। इस अंतिम सोपान पर व्यक्ति बुधत्व की अवस्था प्राप्त कर सकता है। ये आठ चरण मनुष्य के बौद्धिक विकास के अत्यंत महत्वपूर्ण उपादान हैं।
बुद्ध की मान्यता थी कि मानवी बुद्धि अशुद्धता से जितनी मुक्त होती जाएगी, उतनी ही उसमें संवेदना पनपेगी और तभी मनुष्य के हृदय में चेतना के पुष्प खिलेंगे। यहीं संवेदना संजीवनी आज की महाऔषधि है जो मनुष्य के मुरझाये प्राणों में नवचेतना का संचार कर सकती है।