पिछले दिनों कराची में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने एक बस रोक कर उसमें सवार लोगों की निर्मम हत्या कर दी । उनका दोष केवल इतना था कि वे शिया सम्प्रदाय को मानने वाले लोग थे । बस में बैठे बच्चों तक को नहीं बख़्शा गया । पाकिस्तान में यह अपने क़िस्म की पहली घटना नहीं है । इससे पहले भी वहाँ का शिया समाज मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमलों का शिकार होता रहा है । यहाँ तक की इबादतखाने में नमाज़ पढ़ रहे शिया लोग तक आक्रमणों का शिकार बने । लेकिन शिया समाज केवल पाकिस्तान में ही मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमलों का शिकार हो रहा हो , ऐसा नहीं है । ये आक्रमण उसे लगभग हर उस देश में झेलने पड़ रहे हैं , जिसने आधिकारिक तौर पर अपने आप को इस्लामी देश घोषित कर रखा है । इराक़ में इस्लामी कट्टरपंथियों के हमलों का सबसे ज़्यादा दंश शिया समाज को ही झेलना पड़ रहा है । इस्लामिक स्टेट या आई एस आई एस के क़ब्ज़े वाले इलाक़े में तो मुख्य निशाना ही शिया समाज है । बोको हरम का सबसे ज़्यादा क़हर शिया समाज पर ही टूट रहा है । मध्य एशिया , जहाँ इस्लामी कट्टरपंथी सक्रिय हैं , वहाँ निशाने पर शिया समाज ही है ।
यह केवल इस्लामी देशों में ही नहीं हो रहा , बल्कि हिन्दुस्तान में भी कट्टरपंथियों के निशाने पर शिया समाज के लोग भी रहते हैं । कश्मीर घाटी में तो कई सालों से ताजिया निकालने की अनुमति नहीं दी जाती । कट्टरपंथी मुसलमान इसे मूर्ति पूजा मानते हैं और उनके लिहाज़ से मूर्ति पूजा कुफ़्र है ।
आख़िर शिया समाज का क्या क़सूर है कि वे मुस्लिम कट्टरपंथियों की कोप दृष्टि का शिकार हो रहे हैं ? दरअसल शिया समाज के लोग हज़रत मोहम्मद के बाद भी मार्गदर्शन के लिये इमाम परम्परा का सहारा लेते हैं । इतना ही नहीं , वे तेरहवें इमाम की अभी तक प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे प्रकट होंगे , और उनके समाज का नेतृत्व करेंगे । इरान ने तो अपने संविधान में ही यह व्यवस्था कर रखी है कि वर्तमान सरकार अस्थायी व्यवस्था है । जब तेरहवें इमाम प्रकट हो जायेंगे तो देश की शासन व्यवस्था उनको सौंप दी जायेगी । यह कुछ कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था है जो राम चन्द्र के बनवास में चले जाने के बाद अयोध्या का शासन चलाने के लिये भरत ने की थी । वे रामचन्द्र की खड़ाऊँ के सहारे राजकाज चलाते रहे । शिया समाज की एक दूसरी परम्परा है जो मुस्लिम कट्टरपंथियों की आँख की किरकिरी बनी हुई है ।
कई शताब्दी पहले कर्बला के मैदानों में अरब के मुसलमानों की सेना ने हुसैन को , उसके नज़दीक़ी शिष्यों और पारिवारिक सदस्यों सहित बहुत ही जालिमाना ढंग से मौत के घाट उतार दिया था । हुसैन और उसके साथियों की संख्या बहुत कम थी और इस्लामी सैनिकों की संख्या बहुत ज़्यादा थी । लेकिन बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि न्याय एवं स्वतंत्र चिंतन हेतु लड़ी जा रही उस लड़ाई में भारतीयों ने इन योद्धाओं का साथ दिया था और अरब की इस्लामी सेना से लड़ते हुये भारतीयों ने शहादत भी प्राप्त की थी । दरअसल यह भारतीयों और हुसैन के साथियों की अरब की इस्लामी सेना के साथ स्वतंत्र चिंतन और अपने अधिकारों के लिये लड़ी गई साँझी लड़ाई थी जिसमें दोनों का रक्त कर्बला के रेगिस्तान में बहा था ।
इस्लाम में मूर्ति पूजा की अनुमति नहीं है । लेकिन शिया समाज के लोग हुसैन की इस शहादत को , याद ही नहीं करते बल्कि उसका प्रतीक ताजिया बना कर नगर भर में घूमते भी हैं । इतना ही नहीं अपने शरीर को नाना प्रकार से कष्ट भी देते हैं , ताकि उन कष्टों का , जो हुसैन और उनके साथियों ने अरब की इस्लामी सेना के हाथों तपती दोपहरियों में सहे थे , थोड़ा सा भी अनुमान लगा लिया जाये । यहीं बस नहीं वे ताजिया निकालते समय उन भारतीयों का स्मरण भी करते हैं , जिन्होंने इनके साथ उस समय खड़े होने का साहस किया जब उनके अपने नज़दीक़ी छोड़ कर भाग रहे थे । कर्बला के मैदानों में न्याय के पक्ष में लड़ने बाले इन भारतीयों की यह अद्वितीय शहादत इतनी लासानी थी कि इतिहास में वे भारतीय, हुसैनी ब्राह्मण के नाम से ही जाने जाने लगे । लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिये यह सारी कथा प्रकारान्तर से मूर्ति पूजा का ही दूसरा तरीक़ा है जिसकी मुज्जमत की जानी चाहिये । यदि मुज्जमत करने से भी काम नहीं बनता तो ऐसा दुस्साहस करने वाले शिया समाज को उचित दंड भी दिया जाना चाहिये । कराची में बस रोककर बच्चों सहित चालीस से भी ज़्यादा शिया समाज के लोगों को मौत के घाट उतार देना उसी दंड देने की प्रक्रिया का एक हिस्सा मात्र कहा जा सकता है । शिया समाज को दंड देने का यह उत्तरदायित्व कट्टरपंथी मुसलमानों ने स्वयं ही संभाल लिया है और अब वे दुनिया भर में इस उत्तरदायित्व का अपने अपने तरीक़े से क्रियान्वयन कर रहे हैं । लेकिन दंड देने के उनके ये तरीक़े पूरी मानवता को शर्मसार कर रहे हैं । हिटलर ने यहूदी समाज को जिस प्रकार से दंडित किया था , उसी दिशा में शिया समाज को दंडित करने का सिलसिला चलता दिखाई दे रहा है । अन्तर केवल इतना ही है कि हिटलर ने केन केन प्रकारेण एक राज्य के पूरे सिस्टम पर क़ब्ज़ा कर लिया था , लेकिन शिया समाज को मूर्ति पूजा के नाम पर दंडित करने का उत्तरदायित्व स्वयं ही अपने कंधों पर लेकर घूम रहे कट्टरपंथी मुसलमानों का अभी किसी राज्य के सिस्टम पर क़ब्ज़ा नहीं हुआ है । जिस इलाक़े आई एस आई एस में उन्होंने कुछ सीमा तक आधिपत्य जमा लिया है , वहाँ शिया समाज की क्या दशा हो रही है , यह किसी से छिपा नहीं है ।
एक ख़तरा और भी है । कट्टरपंथी मुसलमानों का शिया समाज के ख़िलाफ़ यह हिंसक आन्दोलन भारत में भी फैलेगा । कश्मीर घाटी में इसके संकेत मिलने भी शुरु हो गये हैं । घाटी में से हिन्दू-सिक्खों को बाहर निकाल देने के बाद अब वहाँ की कट्टरपंथी मुसलमानों ताक़तें शिया समाज को भी बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारियाँ कर रही हैं । सरकार को अभी से इसके ख़िलाफ़ रणनीति बना लेनी चाहिये ।