भारत-पाक-अफगान बनाए साझा मोर्चा

presiden india and afgan presid.अभी कराची में शिया इस्माइलियों के कत्ल की स्याही सूखी भी नहीं थी कि काबुल के एक गेस्ट हाउस में फिर बेकसूर संगीतप्रेमियों का खून बहा दिया गया। काबुल में जिन लोगों को मौत के घाट उतारा गया, उनमें कुछ पाकिस्तानी तो हैं ही, चार हिंदुस्तानी नागरिक भी हैं। 14 लोग मारे गए। उनमें एक-एक अमेरिकी, इतालवी और ब्रिटिश भी हैं।

इन सब लोगों का अपराध क्या था? क्या ये वे फौजी थे, जो तालिबान से मुठभेड़ के लिए नियुक्त किए जाते हैं? क्या ये वे लोग थे, जो तालिबान के खिलाफ कोई मुहिम चला रहे थे? इन लोगों का अफगान राजनीति से कोई लेना देना नहीं था। ये लोग न तो अफगान राजनेता थे और न ही अफगान सरकारी कर्मचारी! ये लोग तो अपने काम से काम रखने वाले साधारण नागरिक थे। ये लोग काबुल शहर के बीचों बीच बनी पार्क होटल में प्रसिद्ध गायक अल्ताफ हुसैन का संगीत सुनने के लिए गए हुए थे। इन्हें मारकर तालिबान को क्या मिला? उन्होंने क्या सिद्ध किया?

उन्होंने यही संकेत दिया कि अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद अराजकता फैलने वाली है। अर्थात अमेरिका और अफगानिस्तान के पड़ौसी देशों को अब डटकर कमर कसनी होगी। राष्ट्रपति अशरफ गनी तालिबान से जो बातचीत कर रहे हैं, वह बेकार है। नवाज़ शरीफ की काबुल- यात्रा के एक दिन बाद इस घटना का होना भी यह साबित करता है कि तालिबान पर पाकिस्तान का भी कोई नियंत्रण नहीं है।

नवाज़ मियां गत साल मई में जब भारत आए थे, तब भी तालिबान ने हेरात में भारतीय दूतावास पर हमला बोला था। ये लोग अशरफ गनी के राष्ट्रपति बन जाने के बावजूद हिंसा में कोई कमी नहीं कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पाक-अफजल अब पश्चिम एशिया के ‘दाएस’ लड़ाकुओं के साथ हाथ मिला लें और दक्षिण एशिया में कोहराम मचा दें।

तो अब क्या किया जाए? अब तो एक ही रास्ता बचा है। भारत अफगानिस्तान और पाकिस्तान अपने सभी आपसी मतभेदों को कुछ समय के लिए भुला दें और एकजुट हो जाएं। तीनों देश संयुक्त रणनीति बनाएं और उसमें चीन, अमेरिका, रुस और ईरान को भी जोड़ें। यदि तालिबान लोकतांत्रिक और अहिंसक तरीके से लड़ना चाहें तो उनकी बात पर भी ध्यान दें। वरना अच्छे और बुरे तथा अपने और पराये का भेद न करके सारे आतंकवादियों के विरुद्ध खुले युद्ध की घोषणा करें।

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