बिखरे मोती-भाग 96
गतांक से आगे….
जीवन में हो पवित्रता,
रखना हमेशा ध्यान।
पवित्रता से होत है,
आत्मा का कल्याण ।। 922 ।।
व्याख्या :-
चित्त की निर्मलता अथवा पवित्रता ही धर्म है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिपल विशेष ध्यान रखें। हमारे ऋषियों ने इसलिए मन, वचन, कर्म की पवित्रता पर विशेष बल दिया है। महात्मा बुद्घ ने आत्मकल्याण के लिए अष्ट सिद्घांतों का प्रतिपादन किया था, जिनमें सम्यकता अर्थात पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया गया है। धन तो हमें सुख सुविधा प्रदान कर सकता है, जबकि चित्त की पवित्रता से ही आत्मा का कल्याण संभव है। अर्थात संसार के आवागमन से मुक्ति संभव है। अत: हमें अपने जीवन में पवित्रता का हमेशा बड़ी सजगता से ध्यान रखना चाहिए।
श्रद्घा से मिले ज्ञान तो,
विनम्रता से मान।
योग्यता से प्राप्त हो,
व्यक्ति को स्थान ।। 923 ।।
व्याख्या :
इस संसार में श्रद्घा से व्यक्ति को ज्ञान मिलता है, विनम्रता से सम्मान मिलता है जबकि योग्यतानुसार पद अथवा हैसियत प्राप्त होती है। अत: मनुष्य को इन तीनों के प्रति सर्वदा सजग रहना चाहिए।
सिमरन सेवा ज्ञान में,
जिसका जीवन जाय।
प्राप्त होय देवत्व को,
महापुरूष कहलाय ।। 924।।
व्याख्या :
इस संसार में बिरले ही लोग ऐसे हैं जिनका जीवन सिमरन, साधना अर्थात प्रभु भक्ति में ज्ञान साधना अर्थात विद्याभ्यास में तथा सेवा साधना अर्थात प्राणीमात्र की निष्काम भाव से सहायता करने में व्यतीत होता है। ऐसे व्यक्ति ही मनुष्यत्व से देवत्व को प्राप्त होते हैं और महापुरूष कहलाते हैं। अत: महापुरूषों के जीवन का हमें अनुसरण करना चाहिए, प्रेरणा लेनी चाहिए।
सुख में दुख नही दीखते,
तो समझो यात्रा अनंत।
जिनको सुख में दुख दिखे,
हुआ यात्रा का अंत ।। 925 ।।
व्याख्या :
इस नश्वर संसार में जो आसक्ति अथवा तृष्णा के वशीभूत होकर जीवन जीते हैं वे समझो खुजली के रोगी हैं। जैसे खुजली का रोगी अपनी त्वचा को खुजलाते खुजलाते लहू लुहान हो जाता है और कहता है खुजली में मजा आ रहा है।
ठीक इसी प्रकार जो तृष्णावश अशुभ (पाप) कार्य करते रहते हैं, बेशक पाप कर्म करने के बाद अपने मन की संतुष्टि के लिए यह कहते हैं-मजा आ गया। वास्तव में यह मजा नही है अपितु यह तो अपने आपको सजा के लिए तैयार रखना है, आत्म प्रवंचना में रखना है। ऐसे लोग चौरासी लाख योनियों में न जाने कहां-कहां भटकते हैं और उनकी आवागमन की यात्रा अनंत काल तक चलती रहती है, किंतु संसार में ऐसे लोग बिरले ही होते हैं, जिन्हें सांसारिक सुखों में भी दुख की अनुभूति होती है, जैसे महात्मा बुद्घ ने संसार को दुखों का घर कहा और राजमहल की सुख सुविधाओं को त्याग कर जीवन मुक्त हो गये, संसार के आवागमन से छूट गये।
क्रमश: