“वैदिक धर्म की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं”

ओ३म्
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आर्यसमाज की शिरोमणि सभा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के लगभग चार दशक पूर्व मंत्री रहे श्री ओम्प्रकाश पुरुषार्थी जी ने एक लघु पुस्तक ‘आर्यसमाज और अस्पर्शयता निवारण’ (कार्य प्रणाली और सफलतायें) लिखी है। इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण का प्रकाशन सन् 1987 में हुआ था। पुस्तक की भूमिका सभा के तत्कालीन प्रधान श्री रामगोपाल शालवाले जी ने लिखी है। पुस्तक अपने नाम के अनुरूप है जिसमें महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन किया गया है। इस पुस्तक का एक अध्याय है ‘वैदिक धर्म की दृष्टि में सभी प्राणी समान हैं’। इसी अध्याय से कुछ सामग्री हम इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस पुस्तक का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिये जिससे वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लोगों को आर्यसमाज द्वारा अस्पर्शयता निवारण के लिये किए गए कार्यों का परिचय मिल सके। विद्वान लेखक स्व. श्री ओम्प्रकाश पुरुषार्थी जी पुस्तक में लिखते हैं:-

वैदिक धर्म वेदों पर आश्रित है जो मनुष्य मात्र के लिए है, न कि किसी खास जाति या देश के मनुष्यों के लिए, क्योंकि परमात्मा समान रूप से सब प्राणियों का पिता है इस बात को यजुर्वेद के 26.2 में इस प्रकार बताया गया हैः

‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।।‘

इस मंत्र में भगवान् ने उपदेश दिया है कि जिस प्रकार मैंने ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अति शूद्र आदि सब मनुष्यों के लिए इस कल्याणकारिणी वेदवाणी का उपदेश किया है इसी प्रकार सभी किया करो।

इसी वेदमंत्र के भाव को लेकर महर्षि वेद व्यास ने महाभारत में अपने शिष्यों को उपदेश किया था कि–

‘‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान्, कृत्वाः ब्राह्णमग्रतः।
वेदस्याध्ययन हीदं, तच्च पुण्यं महत्स्मृतम्
सर्वस्तरतु दुर्गाणि, सर्वो भद्राणि पश्यतु।”
शान्ति पर्व अध्याय 327, 48-49

अर्थात् सब मनुष्यों की भलाई के विचार को मन में रखते हुए विद्वानों को चाहिए कि वे सब लोगों के वर्णों को वेद का उपदेश करें क्योंकि वेदों का पढ़ना बड़े पुण्य का कार्य है।

सभी प्राणी परमात्मा के पुत्र हैं और इसलिए भाई हैं

वेदों की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि सब मनुष्य एक ही परमात्मा के पुत्र हैं और इसलिए भाई हैं।

सबको भाई और मित्र समझकर प्रेमपूर्वक वर्ताव करना चाहिए। जन्म से कोई छोटा और बड़ा नहीं है। इस बात का उपदेश वेदों में सैकड़ों स्थानों पर दिया गया है। उदाहरणार्थ ऋग्वेद 5.60.5 में कहा हैः-

‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः।’

इस मन्त्र का स्पष्ट अर्थ यह है कि सब मनुष्य (भ्रातरः) भाई हैं। इनमें जन्म से कोई ऊंचा या नीचा नहीं है। इस भाव को ही धारण करने से मनुष्य समाज की सच्ची उन्नति हो सकती है। न्यायकारी परमात्मा सब का पिता है और पृथ्वी सबकी माता है। इससे उत्तम समानता वा Equality और सार्वजनिक भ्रातृत्व या Universal Brotherhood of Man का क्या उपदेश हो सकता है। श्रृण्वस्नतु विश्वे अमृतस्य पुत्रः (यजुर्वेद 11) आदि मंत्रों में भी सब मनुष्यों को एक ही अविनाशी परमात्मा का पुत्र बताते हुए वेद के उपदेश को सुनने की आज्ञा दी गई है। यजुर्वेद अध्याय 36.18 में कहा है।

‘‘दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।”

इस मन्त्र में केवल मनुष्यों को ही नहीं वरन् सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखने का उपदेश दिया गया है।

यह उपदेश कितना महत्वपूर्ण है यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह समानता और मित्र दृष्टि ही वेद की सारी शिक्षाओं का निचोड़ है। इस बात को ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त 190 में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में बताया गया है।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।

समानोः मंत्रः समितिः समानीः समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मंत्रभभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।।

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

इन मन्त्रों का भावार्थ यह है कि हे मनुष्यो! तुम सब मिलकर प्रेम से धर्म पर चलो, मिलकर प्रेम से भाषण करो और अपने मन्त्रों को ज्ञान युक्त बनाओ। तुम्हारे लिए ये वेद मन्त्र समान रूप से दिए गए हैं। तुम्हारा मन और चित्त समानता या बराबर(Equality) के इन भावों से सदा भरा रहे। तुम्हारी सभाओं में प्रवेश का सब को समान अधिकार रहे। तुम्हारे मन के संकल्प भी एक जैसे पवित्र हों। मन और हृदय समान हों जिससे तुम मिलकर सब अच्छे कर्मों को कर सको।

कोई भी वेदों का निष्पक्ष विचारक इन मन्त्रों को पढ़ते हुए यह माने बिना नहीं रह सकता कि समानता की शिक्षा वेदों में कूटकूट कर भरी हुई है।

अथर्ववेद के 3.30 मन्त्र में भी इसी प्रकार के अत्यन्त उत्तम उपदेश हैं जिनमें से विस्तार के भय से प्रथम मन्त्र का उल्लेख ही काफी है, जिस में परमात्मा का मनुष्यों को उपदेश है।

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत, वत्सं तमिवाघ्न्या।।

अर्थात् हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे अन्दर सहृदयता (Concord) और प्रेम (Harmony) को स्थापित करता और तुम्हारे द्वेष के भाव को दूर भगाता हूं। तुम आपस में ऐसे प्रेम करो जैसे गौ नवजात बछड़े के साथ करती है। इससे बढ़कर सच्चे प्रेम और समानता का उपदेश और क्या हो सकता है?

हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों के ज्ञान में वृद्धि होगी। हम समझते हैं कि समाज में यदि वेद व वैदिक विचारों का प्रचार हो और लोग इन विचारों को अपनायें तो इससे समाज से असमानता, भेदभाव, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं जन्मना जातिवाद आदि समाप्त हो सकते हैं। ऐसा होने पर देश व विश्व का समाज श्रेष्ठ समाज बनेगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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