भारत के पराधीनता के काल का संक्षिप्त इतिहास

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14 फरवरी 1483 को बाबर का जन्म हुआ। जो दिनांक 17 नवंबर 1525 ई0 को पांचवीं बार सिंध के रास्ते से भारत आया था। जिसने 27 अप्रैल 1526 को दिल्ली की बादशाहत कायम की। 29 जनवरी 1528 को राणा सांगा से चंदेरी का किला जीत लिया।
लेकिन 4 वर्ष पश्चात ही दिनांक 30 दिसंबर 1530 को धौलपुर में बाबर की मृत्यु हो गई। महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसंबर 1600 ई0 को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वीकृति दी।
2 जनवरी 1757 को नवाब सिराजुद्दौला से ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता छीन लिया । 9 फरवरी 1757 को संधि हुई । जिसमें काफी रियासत अंग्रेजों को दी गई। लेकिन 13 फरवरी 1757 को लखनऊ सहित अवध पर कब्जा कर लिया।
23 जून 1757 को प्लासी का युद्ध लॉर्ड क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना,और मुगल सेना के बीच हुआ जिसमें विशाल मुगल सेना का सेनापति मीर जाफर लॉर्ड क्लाइव से दुरभिसन्धि करके षड्यंत्र के तहत जानबूझकर हार गया।
20 दिसंबर 1757 को लॉर्ड क्लाइव बंगाल का गवर्नर बना। 30 दिसंबर 1803 को दिल्ली के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं कई अन्य शहरों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का आधिपत्य हो गया। 26 फरवरी 1857 को पश्चिम बंगाल के बुरहानपुर में आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई। जिसमें मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को खड़कपुर की बैरक में फांसी दे दी गई।
हमें क्रांतिवीर मंगल पांडे के विषय में यह जान लेना चाहिए कि बैरकपुर में कोई जल्‍लाद नहीं मिलने पर ब्रिटिश अधिकारियों ने कलकत्‍ता से चार जल्‍लाद इस महान प्रथम क्रांतिकारी को फांसी देने के लिए बुलवाए थे। जिन्होंने उन्हें फांसी देने से मना कर दिया था। इस समाचार के मिलते ही कई छावनियों में ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध असंतोष भड़क उठा । इसे देखते हुए उन्‍हें 8 अप्रैल 1857 की सुबह ही फांसी पर लटका दिया गया । इतिहासकार किम ए. वैगनर की किताब ‘द ग्रेट फियर ऑफ 1857 – रयूमर्स, कॉन्सपिरेसीज एंड मेकिंग ऑफ द इंडियन अपराइजिंग’ में बैरकपुर में अंग्रेज अधिकारियों पर हमले से लेकर मंगल पांडे की फांसी तक के घटनाक्रम के बारे में सभी तथ्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है ।. ब्रिटिश इतिहासकार रोजी लिलवेलन जोंस की किताब ‘द ग्रेट अपराइजिंग इन इंडिया, 1857-58 अनटोल्ड स्टोरीज, इंडियन एंड ब्रिटिश में बताया गया है कि 29 मार्च की शाम मंगल पांडे यूरोपीय सैनिकों के बैरकपुर पहुंचने को लेकर बेचैन थे । उन्‍हें लगा कि वे भारतीय सैनिकों को मारने के लिए आ रहे हैं ।इसके बाद उन्‍होंने अपने साथी सैनिकों को उकसाया और ब्रिटिश अफसरों पर हमला किया । उन्हें 18 अप्रैल 1857 के दिन फांसी देना निश्चित किया गया था । परंतु जब जल्लादों ने उन्हें फांसी देने से इनकार कर दिया तो नियत तिथि से 10 दिन पहले ही 8 अप्रैल को क्रांतिकारी मंगल पांडे को फांसी की सजा दे दी गई थी। हम क्रांतिकारी मंगल पांडे का पूरा सम्मान करते हुए और उनकी क्रांति के प्रति समर्पण की भावना को नमन करते हुए यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरठ की क्रांति से उनका कोई संबंध नहीं था।
परंतु यह संभव है कि धन सिंह कोतवाल ने इस महान क्रांतिकारी से प्रेरणा लेकर 10 मई 1857 की क्रांति का बिगुल बजा दिया हो। इस दृष्टिकोण से मंगल पांडे को प्रथम क्रांतिकारी कहा जा सकता है।
10 जनवरी 1818 को मराठों और अंग्रेजो के बीच तीसरी और अंतिम लड़ाई हुई थी। वास्तव में शूरवीर महाराणा प्रताप छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा रणजीत सिंह आदि भी आजादी के दीवाने थे । उन्हीं से प्रेरणा लेकर मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तात्या टोपे , रानी लक्ष्मीबाई , चांद बेगम ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।राजस्थान के शहर कोटा में लाला जयदयाल कायस्थ , मेहराब खान पठान ने 15 अक्टूबर 1857 को विद्रोह किया । जिनको अंग्रेजों ने फांसी लगाई थी , अदालत के सामने शहीद चौक उसी स्थान पर बना है।
इसके अलावा सम्राट नागभट्ट प्रथम , बप्पा रावल, नागभट्ट द्वितीय , कन्नौज के प्रतिहार गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, गुर्जर नरेश राजा भोज परमार धारानगर, गुरु तेग बहादुर ,गुरु गोविंद सिंह, बंदा वीर बैरागी ,वीर हकीकत राय आदि अनेकों क्रांतिकारी महापुरुष कोतवाल धन सिंह गुर्जर के प्रेरणा स्रोत थे।
10 मई 1857 को मेरठ से इस क्रांति का जब बिगुल बजा तो इस स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी पूरे भारतवर्ष में बहुत ही शीघ्रता के साथ फैल गई और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यह सैनिक 11 मई 1857 को तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से मिले और उन्होंने बहादुर शाह जफर को नेतृत्व संभालने के लिए आग्रह किया । लेकिन तत्समय भारत पर शासन करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी पराजय के बाद शीघ्रता से कार्यवाही कर क्रांतिकारियों का दमन करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाने का प्रयास किया। जिसे इतिहास में प्रति क्रांति के नाम से जाना जाता है ।
दिल्ली में अंग्रेज अपने आपको बचाने के लिए कोलकाता गेट पर पहुंच गए । यमुना किनारे बनी चुंगी चौकी में आग लगाए जाने और टोल कलेक्टर की हत्या की जानकारी मिलने के बाद दिल्ली में तैनात लगभग सभी प्रमुख अंग्रेज तथा अधिकारी अपने नौकरों सहित कोलकाता गेट पहुंच गए। कोलकाता गेट यमुना पार कर दिल्ली आने वालों के लिए सबसे नजदीकी गेट था । 11 मई को सुबह मेरठ से क्रांतिकारी सैनिकों के दिल्ली में प्रवेश करने के बाद अंग्रेज इस बात को सोचने के लिए विवश हो गए कि क्रांतिकारी फिर इसी गेट से दिल्ली में घुसने का प्रयास करेंगे । इसलिए यहां अतिरिक्त फौजी तैनाती का हुक्म दिया गया । आज के यमुना बाजार के निकट कोलकाता गेट हुआ करता था । लेकिन आज वहां पर उपलब्ध नहीं है , क्योंकि बाद में जब अंग्रेजो के द्वारा रेलवे लाइन यहां से निकाली गई तो वह गेट तोड़ना पड़ा था।
11 मई 1857 को दिल्ली के ज्वाइंट कमिश्नर थियोफिलस मैटकॉफ जान बचाकर भागे थे । कोलकाता गेट के पास क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ हुई मुठभेड़ के बाद कैप्टन डग्लस और उसके सहयोगी भागते हुए लालकिले के लाहौरी गेट तक पहुंचे थे । उसके बाद दिल्ली में जो स्थितियां पैदा हुईं उसमें अंग्रेजों को जान के लाले पड़ गए । जिसे जहां अवसर प्राप्त होता था, वहीं वह हमला कर देता था
। अंग्रेजों को इससे बचने के लिए जगह जगह शरण लेनी पड़ी।
दादरी जिला बुलंदशहर में एक छोटी सी रियासत हुआ करती थी । दादरी के अलावा कठेड़ा, बढ़पुरा, महावड़ ,चिटेहरा,बील अकबरपुर,नगला नैनसुख सैंथली,लुहार्ली , चीती , देवटा,आदि गांव के क्रांतिकारियों ने एकजुट होकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बिगुल बजाया था । दादरी तत्कालीन राव दरगाही सिंह की रियासत हुआ करती थी , जिनकी मृत्यु 1819 में हो गई थी। उनका बेटा राव रोशनसिंह था तथा राव उमराव सिंह ,राव विशन सिंह, राव भगवंत सिंह उनके भतीजे इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे । जिन्होंने अंग्रेजी सेना को बुलंदशहर की तरफ से कोट के पुल से आगे नहीं बढ़ने दिया था। दिल्ली में बादशाह जफर से मिलकर उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा ।बुलंदशहर जिले में ही एक छोटा सा मालागढ़ ग्राम होता था । जिसका नवाब वलीदाद खान था, जो बहादुर शाह जफर का रिश्तेदार था, इसी मालागढ़ के नवाब के यहां श्री इंदर सिंह राठी गुर्जर निवासी ग्राम गुठावली जनपद बुलंदशहर दीवान थे ।दीवान का पद उस समय प्रधानमंत्री के समकक्ष था । जो इस क्रांति में कोतवाल धन सिंह एवं दादरी के राव उमराव सिंह के साथ अग्रणी भूमिका में थे। इसके अलावा इंदर सिंह राठी गुर्जर के पुत्र हमीर सिंह राठी गुर्जर भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपने पिता के साथ कूद पड़े।
प्रधानमंत्री मलागढ़ श्री इंदर सिंह राठी गुर्जर को कोअपने प्राण गंवाने पड़े।
27 फरवरी अट्ठारह सौ बयासी को हमीर सिंह राठी के यहां पुत्र भूप सिंह राठी पैदा हुआ। जो आगे चलकर के विजय सिंह पथिक के नाम से इतिहास पुरुष बना। श्री विजय सिंह पथिक के हृदय में अंग्रेजों के विरुद्ध जो क्रांति के भाव पडे थे ,वह अपने पिता एवं दादा के क्रांतिकारी जीवन से उदाहरण लेकर ही पड़े थे। उनकी माता श्रीमती कमला कुमारी भी वीरांगना थी ।
मेरठ से क्रांतिकारी शहीद धन सिंह कोतवाल गुर्जर ,दादरी से राव उमराव सिंह गुर्जर ,मालागढ़ के नवाब के प्रधानमंत्री इंदर सिंह राठी गुर्जर तीनों का मात्र एक संयोग नहीं था बल्कि एक सोची-समझी हुई रणनीति थी । जिसके तहत भारत को आजाद कराने की ज्वाला ह्रदय में स्थित होने का प्रमाण है।
उपरोक्त सभी क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार
राव उमराव सिंह ,रोशन सिंह ने तोपखाना से 30 व 31 मई को गाजियाबाद के हिंडन नदी के पुल पर अंग्रेज सेना को दिल्ली जाने से रोका था । जहां पर अंग्रेजों की कब्रें आज भी बनी हुई है ।यह कार्यवाही नवाब वलिदाद खान मालागढ़ और दादरी के रियासतदार राव उमराव सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों के कुशल नेतृत्व में हुई थी।
अंग्रेजी सेना के काफी सैनिक एवं अधिकारी वहां पर मारे गए थे और अंग्रेजी सेना वहां से भागकर मेरठ की तरफ गई और मेरठ से उन्हें दिल्ली के लिए बागपत के रास्ते से आए थे । बागपत के रास्ते पर स्थित एक जाति विशेष के गांवों के लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ विश्वासघात करते हुए अंग्रेजों को शरण दी तथा दिल्ली जाने के लिए अंग्रेजों का रास्ता सुगम किया। जिन को अंग्रेजों ने सर की उपाधि तथा जमीदार जागीरदार बनाया था और गुर्जरों से विद्वेष करते हुए most irreconcilable enemies आदि शब्दों का प्रयोग किया था जिसका तात्पर्य होता है कि उनसे किसी प्रकार भी समझौता नहीं किया जा सकता। इसका दूसरा तात्पर्य होता है कि गुर्जरों के अतिरिक्त अन्य जाति के लोगों से भारतवर्ष में समझौता हो सकता है। वे लोग कौन थे जिन से समझौता हो सकता है, जो सर की उपाधि लेकर के यहां जागीरदार, जमीदार बने, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी वही लोग यहीं पर हमारे बीच रहते हैं।
यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि दादरी के इन शहीदों को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला।
क्रांतिकारियों ने सिकंदराबाद के पास अंग्रेजी सेना का खजाना लूट लिया । अपने पैतृक ग्राम गुलावठी के पास प्रधान सेनापति इंदर सिंह राठी गुर्जर के द्वारा दो दर्जन अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया गया । उनके 90 घोड़े छीन लिए । अलीगढ़ से दादरी और गाजियाबाद तक क्रांतिकारी अंग्रेजों के सामने कठिन चुनौती पेश करते रहे इस सबसे नाराज होकर अंग्रेजों ने एक दिन रात में दादरी रियासत पर हमला कर दिया।
जिसमें कई क्रांतिकारी शहीद हुए।
अंग्रेज जितना अपनी नींव को भारतवर्ष में जमाने का प्रयास कर रहे थे , उतना ही भारतीय जनता उनके खिलाफ हो रही थी । इसका प्रभाव राजपूताना क्षेत्र में नसीराबाद , देवली , अजमेर , कोटा , जोधपुर आदि जगहों पर भी देखने को मिला था । राजपूताना में उस समय अट्ठारह रजवाड़े थे और वे सभी देशी शासक अंग्रेज राज्य के प्रबल समर्थक थे , फिर भी यहां के छोटे जागीरदारों एवं जनता का मानस अंग्रेजों के विरुद्ध था , जिसके फलस्वरूप मेरठ में हुई क्रांति का प्रभाव पड़ा।
मारवाड़ के तत्कालीन महाराजा तखत सिंह व कोटा के महाराव रामसिंह दोनों अंग्रेज भक्त थे। फिर भी मारवाड़ में आउवा के ठाकुर कुशल सिंह के नेतृत्व में 8 सितंबर को तथा कोटा में लाला जय दयाल एवं मेहराब खान पठान के नेतृत्व 15 अक्टूबर 1857 को मारवाड़ में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह भड़क गया था।
तत्कालीन अंग्रेज मेजर बर्टन चाहता था कि महाराज अपनी सेना में विद्रोह फैलाने वाले जय दयाल आदि 57 अफसरों को गिरफ्तार कर उन्हें दंडित करें अथवा उन्हें अंग्रेजों के हवाले कर दिया जाए । 14 अक्टूबर को मेजर बर्टन महाराज से मिलने गढ़ में गए और पुनः अपनी बात दोहराई । महाराव रामसिंह भी अंग्रेज भक्ति और सेना के विद्रोही रुख को भी भली-भांति पहचानते थे , फिर भी यह उनके वश में नहीं था कि वह जयदयाल कायस्थ और मेहराब आदि सेनापतियों को गिरफ्तार करके उन्हें दंड दे सके। इसलिए उसने मेजर बर्टन की राय नहीं मानी। लेकिन बर्टन की इस राय के जाहिर होने पर फौज भड़क उठी और 15 अक्टूबर 1857 को एकाएक सेना और जनता ने एजेंट के बंगले को चारों ओर से घेर लिया। वह कोटा नगर के बाहर नयापुरा में मौजूद कलेक्ट्री के पास स्थित वर्तमान बृजराज भवन में रहता था। विद्रोहियों ने एजेंट के बंगले पर 4 घंटे तक गोलाबारी की ।बाकी लोग सीढी लगाकर बंगले में घुस गए। वह छत पर पहुंचे और मेजर तथा उसके दोनों पुत्रों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया।

87 क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने बुलंदशहर चौराहे पर कत्लेआम अर्थात कालाआम के पेड़ पर लटका कर फांसी दी । जिसमें उस समय के बुलंदशहर और मेरठ जनपद के अनेकों गांवों के लोगों को भी यत्र तत्र फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। स्वयं लेखक के पूर्वज चौधरी सुलेखा सिंह निवासी ग्राम महावड़ तत्कालीन तहसील सिकंदराबाद जिला बुलंदशहर (वर्तमान में तहसील दादरी जनपद गौतम बुद्ध नगर) को भी इसी समय फांसी पर लटकाया गया था। कवि ने कितने अच्छे शब्दों में कहा है कि :-

स्वतंत्रता रण के रणनायक अमर रहेगा तेरा नाम।
नहीं स्मारक की जरूरत खुद स्मारक तेरा नाम ।।

मां हम फिदा हो जाते हैं विजय केतु फहराने आज।
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर मां जाते शीश कटाने आज।।

महर्षि दयानंद और 18 57 क्रांति में उनका योगदान।

1857 की क्रांति न केवल भारत के राष्ट्रीय इतिहास के लिए अपितु आर्य समाज जैसी क्रांतिकारी संस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण वर्ष है । इस समय भारत के उस समय के चार सुप्रसिद्ध संन्यासी देश में नई क्रांति का सूत्रपात कर रहे थे। इनमें से स्वामी आत्मानंद जी की अवस्था उस समय 160 वर्ष थी। जबकि स्वामी आत्मानंद जी के शिष्य स्वामी पूर्णानंद जी की अवस्था 110 वर्ष थी । उनके शिष्य स्वामी विरजानंद जी उस समय 79 वर्ष के थे तो महर्षि दयानंद की अवस्था उस समय 33 वर्ष थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्हीं चारों संन्यासियों ने 1857 की क्रांति के लिए कमल का फूल और चपाती बांटने की व्यवस्था की थी ।
कमल का फूल बांटने का अर्थ था कि जैसे कीचड़ में कमल का फूल अपने आपको कीचड़ से अलग रखने में सफल होता है , वैसे ही हमें संसार में रहना चाहिए अर्थात हम गुलामी के कीचड़ में रहकर भी स्वाधीनता की अनुभूति करें और अपने आपको इस पवित्र कार्य के लिए समर्पित कर दें । गुलामी की पीड़ा को अपनी आत्मा पर न पड़ने दें बल्कि उसे एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए साधना में लगा दें।
इसी प्रकार चपाती बांटने का अर्थ था कि जैसे रोटी व्यवहार में और संकट में पहले दूसरे को ही खिलाई जाती है , वैसे ही अपने इस जीवन को हम दूसरों के लिए समर्पित कर दें । हमारा जीवन दूसरों के लिए समर्पित हो जाए , राष्ट्र के लिए समर्पित हो जाए ,लोगों की स्वाधीनता के लिए समर्पित हो जाए। ऐसा हमारा व्यवहार बन जाए और इस व्यवहार को अर्थात यज्ञीय कार्य को अपने जीवन का श्रंगार बना लें कि जो भी कुछ हमारे पास है वह राष्ट्र के लिए है , समाज के लिए है , जन कल्याण के लिए है।

स्वतंत्रता का प्रथम उद्घोष।

अपने भारतभ्रमण के दौरान देशवासियों की दुर्दशा देख कर महर्षि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पराधीन अवस्था में धर्म और देश की रक्षा करना कठिन होगा , अंगेजों की हुकूमत होने पर भी महर्षि ने निडर होकर उस समय जो कहा था , वह आज भी सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध है , उन्होंने कहा था ,
“चाहे कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। किन्तु विदेशियों का राज्य कितना ही मतमतान्तर के आग्रह से शून्य, न्याययुक्त तथा माता-पिता के समान दया तथा कृपायुक्त ही क्यों न हो, कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता”
(महर्षि दयानंद के विषय में अनेक महापुरुषों के वचन अलग से पढ़े जा सकते हैं)

18 57 से लेकर 59 तक महर्षि दयानंद ने भूमिगत रहकर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विशेष योगदान दिया। इसके बाद 1860 में सार्वजनिक मंच पर दिखाई पड़े।
महर्षि दयानंद ने यह बात संवत 1913 यानी सन 1855 हरिद्वार में उस समय कही थी, जब वह नीलपर्वत के चंडी मंदिर के एक कमरे में रुके हुए थे , उनको सूचित किया गया कि कुछ लोग आपसे मिलने और मार्ग दर्शन हेतु आना चाहते हैं , वास्तव में लोग क्रांतिकारी थे , उनके नाम थे —
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1.धुंधूपंत – नाना साहब पेशवा ( बालाजी राव के दत्तक पुत्र )
.2. बाला साहब .
3.अजीमुल्लाह खान .
4.ताँतिया टोपे .
5.जगदीश पर के राजा कुंवर सिंह .
इन लोगों ने महर्षि के साथ देश को अंगरेजों से आजाद करने के बारे में मंत्रणा की और उनको मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया ,निर्देशन लेकर यह अपने अपने क्षेत्र में जाकर क्रांति की तैयारी में लग गए , इनके बारे में सभी जानते हैं।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत

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