भारतवर्ष के पौराणिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध राजवंश इक्ष्वाकु कुल है। इस कुल की अट्ठाईसवीं पीढ़ी में राजा हरिश्चन्द्र हुए, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया । इसी कुल की छत्तीसवीं पीढ़ी में अयोध्या में सगर नामक महाप्रतापी , दयालु, धर्मात्मा और प्रजा हितैषी राजा हुए। गर अर्थात विष के साथ पैदा होने के कारण वह सगर कहलाए। सगर का शाब्दिक अर्थ होता है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए। इसी समय वाहु के किसी दुश्मन ने उनकी पत्नी को विष खिला दिया। जब उन्हें जहर दिया गया उस समय वह गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्नी को विषमुक्त कर उसकी जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स+गर= सगर कहलाया। सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हो गया। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया। सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया और सगर चक्रवर्ती सम्राट बने। अपने गुरूदेव और्व की आज्ञा मानकर उन्होंने तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध न कर उन्हें विरूप बना दिया। कुछ के सिर मुँड़वा दिए, कुछ की मूँछ या दाढ़ी रखवा दी। कुछ को खुले बालों वाला रखा तो कुछ का आधा सिर मुँड़वा दिया। किसी को वस्त्र ओढ़ने की अनुमति दी, पहनने की नहीं और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को कहा। संसार के अनेक देशों में इस प्रकार की परम्परा प्राचीन काल में प्रचलित थी । कहीं-कहीं इनकी झलक आज भी दिखती है। भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा गंगावतरण, जिसके द्वारा भारतवर्ष की धरती पवित्र हुई, इन राजा सगर से सम्बन्धित है।
ऋषि अग्नि और्व हैहयों के परम्परागतगत शत्रु थे। उन्होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्नियां थी वैदर्भी और शैव्या। कुछ पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार उनकी पत्नियों का नाम केशिनी तथा सुमति है ।राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।
वैदभी (केशिनी) के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वह बड़ा ही दुष्ट और प्रजा को दुख पहुँचाने वाला था । जबकि सगर अत्यन्त ही धार्मिक सहिष्णु और उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। सगर के लिए असमंज का व्यवहार बड़ा ही कष्ट देने वाला साबित हो रहा था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्याग दिया। असमंज के औरस से अंशुमान का जन्म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्त की। शैव्या (सुमति) के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्यभारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की ।
सगर न सिर्फ बाहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्कार और सम्मान किया करते थे। वशिष्ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान करें ताकि उनके साम्राज्य का विस्तार हो। पौराणिक मान्यतानुसार प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्ठानों में अश्वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्ठ यज्ञ माने जाते थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया करते थे। इस यज्ञ में निन्यान्ब्बे यज्ञ सम्पन्न होने पर एक बहुत अच्छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बाँध कर राजा सगर ने छोड़ दिया । उस पत्र पर लिखा था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्य यज्ञ करने वाले राजा सगर के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्वामी अधीनता स्वीकार नहीं करना चाहते , वे उस घोड़े को रोक कर युद्ध हेतु तैयार रहें । घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ-साथ चल रहे थे। एक वर्ष पूरा होने पर उस घोड़ा वापस लौट आना था। इसके बाद ही यज्ञ की पूर्णाहुति सम्भव थी। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्यवस्था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी। इससे देवाधिपति देवराज इन्द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्हें पता ही नहीं लगा कि क्या हो रहा है? एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा को लौटते न देखकर सगर चिन्तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।
सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्वमेध का अश्व नहीं मिला। फिर राजा सगर के सुमति से उत्पन्न साठ हजार पुत्र अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि सांख्य दर्शन के प्रणेता और भगवान् के अंशावतार साक्षात भगवान महर्षि कपिल के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। कपिल के आश्रम में कपिला गाय कामधेनु थी, जो मनचाही वस्तु प्रदान कर सकती थी। यज्ञ के अश्व को वहीँ पर बंधा और चरता हुआ देख सगर के पुत्र उन्हें देखकर चोर-चोर शब्द कर तिरस्कृत, अपमानित और शोर –गुल करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्योंही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्योंही सुमति के साठ हजार पुत्र सब जलकर भस्म हो गए।
यज्ञाश्व के नहीं मिलने से चिन्तित राजा सगर की आज्ञा से उनका पौत्र अंशुमान घोड़ा ढूँढ़ने निकला और खोजते हुए प्रदेश के किनारे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में साठ हजार प्रजाजनों की भस्म के पास यज्ञ के घोड़े को देखा। अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में पहुँचे तो अंशुमान को महात्मा गरुड़ ने उनके पूर्वजों के भस्म होने का सारा वृतान्त कह सुनाया। गरुड़ ने यह भी बताया कि यदि इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।इस पर अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति और प्रार्थना की । अंशुमान की स्तुति से कपिल मुनि ने वह यज्ञ-पशु उसे दे दिया, जिससे सगर के यज्ञ की शेष क्रिया पूर्ण हुई। कपिल मुनि ने कहा, स्वर्ग की गंगा जब यहॉं आएगी तब भस्म हुए साठ हजार तुम्हारे पूर्वजों को मुक्ति मिलेगी । अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया।
महर्षि कपिल की आज्ञानुसार अंशुमान ने स्वर्ग की गंगा को भारतभूमि में लाने की कामना से घोर तपस्या की। उनका और उनके पुत्र दिलीप का संपूर्ण जीवन इसमें लग गया, परन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता न मिली। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगा को मृत्युलोक में लाने में सफल न हो सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने अपने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी-पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु इस कार्य में वे सफल न हुए। तत्पश्चात दिलीप के पुत्र भगीरथ ने यह बीड़ा उठाया और गंगा को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की । तपस्या करते-करते कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वरदान माँगने को कहा तो भागीरथ ने अपने पूर्वजों और पृथ्वीलोक के कल्याण हेतु गंगा की माँग की। वरदान में भागीरथ के गंगा माँगने पर ब्रह्मा ने कहा- राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो , परन्तु स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरते समय गंगा के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?’ ब्रह्मा ने आगे यह भी कहा कि भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शिव में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग को सम्भालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। महाराज भागीरथ ने वैसा ही किया और एक अंगूठे के बल पर खड़ा होकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटा में सम्भालने के लिए हामी भर दी । तब ब्रह्मा ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगा देवलोक से छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में चली जाऊंगी। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन उसे निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला। अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिन्ता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिव की जटाओं से छूटकर गंगा हिमालय में ब्रह्मा के द्वारा निर्मित बिन्दुसर सरोवर में गिरी, उसी समय इनकी सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।
पृथ्वी पर गंगा के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगा जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से गंगा जाह्नवी कहलाईं। इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्मा ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वरदान दिया। साथ ही यह भी कहा कि तुम्हारे ही नाम पर गंगा का नाम भगीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर अपना राज-काज संभालो । ऐसा कहकर ब्रह्मा अन्तर्ध्यान हो गए। इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भगीरथ लम्बी अवधी तक पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं वरन मुक्ति भी देती है ।
पुरातन ग्रंथों के अनुसार भारतवर्ष के उत्तर में खडा यह हिमालय पर्वत (कैलाश) शिव का निवास है, और शिव के फैले हुए जटाजूट उसकी पर्वत-श्रेणियॉं हैं। त्रिविष्टप ( आधुनिक तिब्बत) को प्राचीन काल में स्वर्ग, अपवर्ग आदि नामों से पुकारा जाता था । उनके बीच स्थित है मानसरोवर झील, जिसकी यात्रा महाभारत काल में पाण्डवों ने सशरीर स्वर्गारोहण के लिए की थी । इस झील से प्रत्यक्ष तीन नदियॉं निकलती हैं। ब्रह्मपुत्र पूर्व की ओर बहती है, सिन्धु उत्तर-पश्चिम और सतलुज (शतद्रु) दक्षिण-पश्चिम की ओर। गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के कार्य में अर्थात गंगावतरण के द्वारा यह स्वर्ग का जल उत्तराखण्ड की प्यासी धरती को देने का , पहुँचाने की तकनीकी का आभियान्त्रिक अर्थात इंजीनियरिंग के सफलीभूत प्रयोग का अभूतपूर्व कमाल होना था । इसके लिए पूर्व की अलकनन्दा की घाटी अपर्याप्त थी। परन्तु राजा सगर के वंशजों द्वारा लम्बी अवधि तक धैर्यपूर्वक किया गया यह साहसिक कार्य अंशुमान के पौत्र भगीरथ के समय में पूर्ण हुआ, जब हिमालय के गर्भ से होता हुआ मानसरोवर अर्थात स्वर्ग का जल गोमुख से फूट निकला। गंगोत्री के प्रपात द्वारा भागीरथी एक गहरे खड्ड में बहती है, जिसके दोनों ओर सीधी दीवार सरीखी चट्टानें खड़ी हैं। किम्बदन्ती के अनुसार गंगा का वेग शिव की जटाजूट ने सँभाला। गंगा उसमें खो गई, उसका प्रवाह कम हो गया। जब वहॉं से समतल भूमि पर निकली तो भगीरथ आगे-आगे चले। गंगा उनके दिखाए मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलीं। आज भी गंगा को प्रयाग तक देखने से उसके तट पर कोई बड़े कगार नहीं मिलते । मानो यह मनुष्य निर्मित नगर हो । ऐसा उसका मार्ग यम की पुत्री यमुना की नील, गहरे कगारों के बीच बहती धारा से वैषम्य उपस्थित करता है। प्रयाग में यमुना से मिलकर गंगा की धारा अंत में गंगासागर, जिसे महोदधि भी कहा जाता है, में मिल गई। राजा सगर का स्वप्न साकार हुआ। उनके द्वारा खुदवाया गया सागर भर गया और उत्तरी भारतवर्ष में पुन: प्रसन्नता छा गई ।गौर से देखने से ऐसा परिलक्षित होता है कि आज का भारतवर्ष और भारतीयों की प्रसन्नता सचमुच गंगा की ही देन है। मनुष्यों को मुक्ति देने वाली अतुलनीय गंगा नदी का पृथ्वी पर अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ था ।संसार की सर्वाधिक पवित्र नदी गंगा के पृथ्वी पर आने अर्थात अवतरित होने का पर्व गंगा दशहरा है । वैसे तो प्रतिदिन ही पापमोचनी, स्वर्ग की नसैनी गंगा का स्नान एवं पूजन पुण्यदायक है और प्रत्येक अमावस्या एवं अन्य पर्वों पर भक्तगण दूर-दूर से आकर गंगा में स्नान-ध्यान, नाम-जप-स्मरण कर मोक्ष प्राप्ति की कामना करते हैं , परन्तु गंगा दशहरा के दिन गंगा में स्नान-ध्यान, दान, तप, व्रतादि की अत्यंत महिमा पुराणिक ग्रन्थों में गायी गई है ।