मनोज कुमार
बिटिया का आसमांं ऊंचा होता जा रहा है और बिटिया कह रही है कि आसमां थोड़ा और ऊंचा हो जाओ ताकि मैं तुम्हें छू सकूं। आज जब हम भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के सबसे बड़े त्यौहार अक्षय तृतीया मना रहे हैं तब हमारे सामने दशकों से जड़ें जमायी हुई सामाजिक कुरीति के रूप में बाल विवाह दम तोड़ती नजर आ रही है। कोई एकाध माह पहले से सत्ता और शासन ने हर स्तर पर सुरक्षा कर लिया है। खबरें सुकून की आ रही है कि बिटिया स्वयं होकर ऐसी रीति-रिवाजों के खिलाफ खड़ी हो रही है। बदलाव की इस बयार में गर्म हवा के बजाय ठंडी हवा बहने लगी है। स्त्री जब स्वयं सशक्त हो जाए तो समाज स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए मजबूर होता है और यह हम कम से कम अपने राज्य की सरहद में देख रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सबकुछ बेहतर हो गया है लेकिन नासूर का इलाज मिल जाना भी एक सुखद संकेत है।
आधी दुनिया का जब हम उल्लेख करते हैं तो सहसा हमारे सामने स्त्री की दुनिया का मानचित्र उभर कर आता है लेकिन भारतीय समाज में जिस तरह की सामाजिक कुरीतियां आज के दौर में भी पैर पसारे हुए है, सारी बातें बेमानी लगती है। यह सच इतना तककलीफदेह है कि स्त्रियों के साथ होने वाले अपराधों का आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है तो उनके साथ इंसाफ की खबरों का ग्राफ आकार नहीं ले पा रहा है। घरेलू हिंसा की कुछ खबरें ही सामने आ पाती हैं क्योंकि जिम्मेदार स्त्री अपने बच्चों के भविष्य को देखकर पांव समेट लेती है।
इन भयावह स्थितियों और खबरों के बीच एक सुकून की खबर मध्यप्रदेश से मिलती है कि तकरीबन दस बरस पहले राज्य में लिंगानुपात की जो हालत थी, उसमें सुधार आने लगा है।एक दशक पहले एक हजार की तादात पर 932 का रेसियो था लेकिन गिरते गिरते स्थिति बिगड़ गई थी। हाल ही में जारी आंकड़े इस बात की आश्वस्ति देते हैं कि हालात सुधरे भले ना हो लेकिन सुधार के रास्ते पर है. आज की तारीख में 1000 पर 930 का आंकड़ा बताया गया है। एक तरह से झुलसा देने वाली स्थितियों में कतिपय पानी के ठंडे छींटे पड़ रहे हैं। लगातार प्रयासों का सुपरिणाम है कि उनकी बेटियां मुस्कराती रहें और कामयाबी के आसमां को छुये लेकिन इसके लिए जरूरी होता है समाज का साथ और जो स्थितियां बदल रही है, वह समाज का मन भी बदल रही है। मध्यप्रदेश में नये सिरे से बेटी बचाओ की हांक लगायी गई तो यह देश की आवाज बनी और बिटिया मुस्कराने लगी।
यह कहना फिजूल की बात होगी कि पूर्ववर्ती सराकरों ने बिटिया बचाने पर ध्यान नहीं दिया लेकिन यह कहना भी अनुचित होगा कि सारी कामयाब कोशिशें इसी दौर में हो रही है। इन दोनों के बीच फकत अंतर यह है कि पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं की जमीन कहीं कच्ची रह गयी थी तो वर्तमान सरकार ने इसे ठोस बना दिया। जिनके लिए योजनायें गढ़ी गई, लाभ उन तक पहुंचता रहा और योजनाओंं का प्रतिफल दिखने लगा। महिला एवं बाल विकास विभाग का गठन बच्चों और महिलाओं के हक के लिए बनाया गया था। इस विभाग की जिम्मेदारी थी कि वह नयी योजनओं का निर्माण करें और महिलाओं को विसंगति से बचा कर उन्हें विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ाये। योजनाएं बनी और बजट भी भारी-भरकम मिलता रहा लेकिन नीति और नियत साफ नहीं होने से कारगर परिणाम हासिल नहीं हो पाया।
2005 में मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की बागडोर सम्हालने के बाद शिवराजसिंह चौहान ने बेटियों की ना केवल चिंता की बल्कि समय-समय पर उनकी खोज-खबर लेते रहे। जब मुखिया सक्रिय और सजग हो जाए तो विभाग का चौंकन्ना होना लाजिमी था. मुख्यमंत्री की निगहबानी में परिणामदायी योजनाओं का निर्माण हुआ और परिणाम के रूप में दस वर्ष में गिरते लिंगानुपात को रोकने में मदद मिली। एक मानस पहले से तैयार था कि बिटिया बोझ होती है और कतिपय सामाजिक रूढिय़ों के चलते उनका बचपन में ब्याह कर दिया जाता था। लेकिन पीछे कुछ वर्षों के आंकड़ें इस बात के लिए आश्वस्त कराते हैं कि समाज का मन बदलने लगा है।
यह बेहद सुकून की खबर है कि अब मीडिया में बेटियों को जगह दी जाने लगी है। गेस्टराइटर से लेकर संपादक तक बेटियां बन बैठी हैं। विशेषांक बेटियों पर पब्लिश किया जा रहा है। राज्य, शहर और गांव से महिला प्रतिभाओं को सामने लाकर उनका परिचय कराया जा रहा है। उनकी कामयाबी उनके बाद की बच्चियों के लिए लालटेन का काम कर रही हैं। सिनेमा के पर्दे पर भी महिला हस्तक्षेप बढ़ा है। मेरी कॉम जैसी बॉयोपिक फिल्में खेल संगठनों की राजनीति का चीरफाड़ करती हैं तो दूसरी तरफ बताती है कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं है। इन सबका अर्थ है कि महिला समाज की भूमिका अब आधी दुनिया से आगे निकल रही है। एक अच्छा संकेत है बदलते समाज का और समाज का मन बदल जाए तो बिना क्रांति किये बदलाव की हवा चल पड़ती है। सदियों से जिनके खिलाफ हम खड़े थे, अब उनके साथ चलने के लिए मन बदलने लगे हैं। यह बदलाव कल उनके सुनहरे भविष्य की गारंटी है।
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