“संसार में देखा जाता है, कि सामान्य व्यक्ति अधिकतर कामचोर होता है। वह पुरुषार्थ करने से बचना चाहता है। “बैठे बिठाए सारी सुविधाएं मिल जाएं, और कुछ खास मेहनत करनी न पड़े।” ऐसी मनोवृत्ति लोगों की प्रायः देखी जाती है।”
जब उनका दूसरे लोगों के साथ व्यवहार होता है, तो दूसरे लोग अर्थात माता पिता गुरु आचार्य मित्र पड़ोसी संबंधी आदि लोग, जब उस व्यक्ति के जीवन में कुछ कमियां देखते हैं, कुछ दोष देखते हैं, जो कि उसके अपने लिए भी हितकर नहीं होते और समाज के लिए भी दुखदायक होते हैं, तब दूसरे लोग उसे अनेक सुझाव देते हैं। “हम छोटे लोगों की बात नहीं कर रहे, जो बड़े लोग हैं, हम उनकी बात कर रहे हैं, जो सुझाव देने के अधिकारी हैं, जैसे माता पिता गुरु आचार्य इत्यादि, जिन्हें सुझाव देने का पूरा अधिकार है, और वे उस व्यक्ति के हित के लिए एक से एक बढ़कर सुझाव देते हैं। फिर भी वह व्यक्ति उन सुझावों को प्रायः सुनना नहीं चाहता। कभी सुन भी ले, तो वह विचार करता है, कि “इनके सुझावों में से मेरे लिए ऐसा सुझाव कौन सा है, जिसका मैं पालन करता हुआ भी दिखाई दूं, मैं इनकी दृष्टि में एक अच्छा व्यक्ति भी माना जाऊं, और मुझे कोई विशेष कष्ट भी न हो।” ऐसी मनोवृत्ति से वह दूसरे अपने हितकारी लोगों का सुझाव सुनता है।
“उस सुझाव में से जितनी बात उसे समझ में आ जाती है, या अपने अनुकूल लगती है, उतनी तो वह मान लेता है। और जितनी बात समझ में नहीं आती, या कष्टदायक लगती है, उसको वह छोड़ देता है। उसका पालन नहीं करता। उसे वह अपने हठ, अभिमान और मूर्खता आदि दोषों के कारण स्वीकार नहीं करता।” इसी कारण से उस व्यक्ति की प्रगति नहीं हो पाती, और उसके दुख दूर नहीं होते।
ऐसा नहीं है, कि संसार के लोगों को यह मालूम नहीं है, कि “हमारी प्रगति कैसे होगी?” “उन्हें बहुत कुछ मालूम है। कुछ लोगों को तो सब कुछ मालूम है। परंतु उसके बाद भी वे लोग पुरुषार्थ नहीं करना चाहते। क्योंकि उसमें उन्हें कष्ट होता है। कष्ट वे भोगना नहीं चाहते। वे आलसी हैं, लापरवाह हैं। इस कारण से संसार के लोगों की उन्नति नहीं हो पाती।” “वे अपने दुखों को दूर नहीं कर पाते। उल्टे-सीधे काम करते हैं, अपनी मनमानी करते हैं। जो उन्हें ठीक लगता है, उसी काम को वे लोग करते हैं, “चाहे संविधान की दृष्टि से वह काम सही हो, चाहे गलत हो।” इस बात की वे अधिक चिंता नहीं करते। जो काम उन्हें अच्छा लगता है, उसी को करते हैं।” “इस प्रकार से तो किसी की भी वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती। क्योंकि उन्नति करने की यह शैली है ही नहीं।”
आप भी यदि अपने जीवन में वास्तविक उन्नति करना चाहते हों, तो आप को भी इस शैली का त्याग करना होगा। और वास्तविक उन्नति करने के लिए सही शैली को अपनाना होगा। और वह सही शैली यही है कि “जो कार्य संविधान के अनुकूल हो, सबका हितकारी हो, उन्नतिकारक हो, सुखदायक हो, उस कार्य को अवश्य ही करना चाहिए। फिर चाहे वह सरल लगे या कठिन लगे, जैसा भी लगे, उसे करना ही चाहिए।”
कभी कभी ऐसा भी हो सकता है, कि “कोई कार्य वेदों के संविधान के अनुकूल है, आपके लिए हितकर है, उन्नतिकारक है, आपके माता पिता एवं गुरुजनों ने आपको बता भी दिया, परंतु उस समय आपको समझ में नहीं आया, ठीक नहीं लगा, फिर भी ऐसे कार्यों को कर लेना चाहिए। जैसे यज्ञ करना, ईश्वर की उपासना करना आदि।” धीरे-धीरे आगे चलकर आपको यह भी समझ में आ जाएगा, कि मेरे माता पिता गुरु जी आदि ने मुझे बहुत सही कार्य बताया। कुछ समय बाद आप ऐसा अनुभव करेंगे, कि “यह कार्य बहुत अच्छा है, और मेरे लिए बहुत हितकारक भी सिद्ध हुआ है।” “यदि मैं अपने माता पिता और गुरुजनों की बात न मानकर उस समय इस कार्य को नहीं करता, तो मैं आज बहुत अधिक हानि उठाता।” इसलिए अच्छा हुआ, ईश्वर की कृपा से मैंने अपने माता-पिता एवं गुरुजनों की बात मान ली, और आज मैं इस वस्तु का बहुत अधिक लाभ अनुभव कर रहा हूं।”
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