जिस प्रकार गृहस्थ आश्रम में सुख पूर्वक रहने के लिए उससे पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में तैयारी करनी पड़ती है।
यहां निर्माण करना, विद्या, बल, सामर्थ्य, शक्ति बढ़ाना लक्ष्य होता है ताकि गृहस्थ आश्रम में कष्ट न हो।
उसी प्रकार संन्यास से पहले उसकी तैयारी वानप्रस्थ में होती है चार आश्रमों में पहला और तीसरा केवल तैयारी के लिए है।
अर्थात् जीवन के 50 वर्ष तैयारी में ही लग जाते हैं।
गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर जो मनुष्य शक्ति संपन्न रहते हुए राष्ट्रहित की दृष्टि से अपने कर्तव्य या धर्म को निभाता है। जिससे कि वह राष्ट्र की उन्नतिशील संतानों को अपने ज्ञान अनुभव और स्वाध्याय के आधार पर उत्तम शिक्षण देता है..
जीवन के चार भागों में यह तीसरा भाग है। जिसे वानप्रस्थ आश्रम कहा जाता है। वानप्रस्थ शब्द ‘वनप्रस्थ’ शब्द का रूपांतर है ‘वन’ शब्द का अर्थ है- वह वस्तु जिसकी हमको सबसे अधिक चाह हो।
‘वन याचने’ धातु से वन शब्द बना है। ऐसी याचनीय अभिलषणीय वस्तु केवल ब्रह्म(ईश्वर) ही है।
केनोपनिषद में बतलाया “तद्वनमिति उपासितव्यम्” उस ब्रह्म का नाम वन है उसी की उपासना करनी चाहिए।
उस वन शब्द वाच्य ब्रह्म प्राप्ति के साधन का अभ्यास करने के लिए जो मनुष्य गृहस्थ से निवृत्त होकर उद्यत हुआ हो वह वनप्रस्थ कहलाता है।
वनप्रस्थ को ही वानप्रस्थ कहते हैं यहां वन शब्द का अर्थ जंगल नहीं है।
ऐसे मनुष्य स्वाध्याय और ब्रह्म प्राप्ति का साधन करने के लिए शब्द विघ्नों (शोरगुल) से रहित मक्षिका मशक आदि के विघ्नों से रहित स्थान में रहकर साधना करते हैं।
अपनी साधना से उत्पन्न ज्ञान और अनुभव के द्वारा बच्चों को शिक्षण का कार्य करते हुए राष्ट्रधर्म का पालन करते हैं। अपनी ही उन्नति से वे संतुष्ट नहीं रहते।
आज देश की परिस्थिति बहुत ही भयावह है। नैतिकता और संस्कार देने वाले आचरणशील विद्वानों की संख्या नगण्य हैं। गुरूकुलों में जाने को कोई तैयार नहीं। सोशल मीडिया तो भ्रम जाल बन गया है।
ऐसी विकट स्थिति में भी प्रबुद्ध लोग रिटायरमेंट के बाद पार्क में कुत्ते घुमा रहे हैं। घर में बैठे मक्खियां मार रहे हैं, कुछ तो बेटे बहु के साथ कलह करते रहते हैं।
ओर कुछ शक्ति सामर्थ होते हुए दूसरे कार्यों में जुट जाते हैं। उनका गृहस्थ आश्रम मृत्यु पर्यंत हो गया है।
बच्चों को घर की चाबी देने के लिए वे तैयार नहीं है।
इतनी आदर्श आश्रम व्यवस्था समाप्त होने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि आज वृद्धजन स्वाध्याय संध्या धर्म दर्शन अध्यात्म व श्रेय मार्ग के लिए न तो स्वयं तैयार हैं और न ही अपने बच्चों को ऐसा उपदेश करने की स्थिति में है..
हालत इतने बिगड़ गये है कि
यदि उनका कोई बच्चा किसी की प्रेरणा से ध्यान सत्संग में आने लगे, तो उनको भय लगता है कहीं यह अधिक सुधर गया, वैराग्य आ गया, ईश्वर उपासना करने लगा राष्ट्रभक्त बन गया तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाएगा।
इसलिए अपने बच्चों को सत्संग संध्या में लाते हुए उनका हृदय कंपित होता है।
आचार्य लोकेन्द्र:
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