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गोमांस और सूअर का मांस

गृह राज्य मंत्री किरन रिजीजू ने गोमांस—भक्षण पर जो विवाद छेड़ा है, उसमें से अनेक गहरे और रोचक पहलू उभरे हैं। रिजीजू ने अपनी ही सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के विचार का खंडन किया है।यह एक ही सरकार के दो मंत्रियों की सीधी मुठभेड़ है। इस मुठभेड़ पर भाजपा बिल्कुल चुप है। वह उसे मंत्रियों की व्यक्तिगत राय बताकर अपना पिंड छुड़ा रही है।

नकवी ने कह दिया था कि जिन्हें गोमांस खाना हो, वे पाकिस्तान चले जाएँ और वहीँ खाएं। रिजीजू, जो कि भारत के उत्तरी—पूर्वी इलाके के हैं, उन्होंने कह दिया कि मैं खुद गोमांस खाता हूँ और हमारे क्षेत्र के लगभग सभी प्रान्तों में लोग गोमांस खाते हैं। आप किसी भी व्यक्ति को कुछ भी खाने के लिए मना कैसे कर सकते हैं? यह उसके संवैधानिक मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इतना ही नहीं, लोकतंत्र में विविधता का सम्मान होना चाहिए।

पहली बात तो यह है कि नकवी को पूरा अधिकार है कि वे गोमांस खाने का विरोध करें लेकिन गोमांसाहारियों को पाकिस्तान भेजने का उनका सुझाव सही मान लिया जाए तो यह सुझाव भी सही क्यों नहीं माना जायेगा कि जो सूअर का मांस खाना चाहे वे पाकिस्तान छोड़े और हिन्दुस्तान चले आएँ। यह शुद्ध अतिवाद है। मेरी राय में मांस खाना ही बुरा है। अपने स्वाद के लिए किसी की हत्या क्यों करना ? चाहे गाय की करो या सूअर की करो। गाय और सूअर में तो फर्क है लेकिन दोनों के मांस में क्या फर्क है ? मांस तो मांस ही है। और फिर मांस खाना सेहत के लिए भी बुरा है। इसके अलावा मांस के लिए जानवरों को मारना आर्थिक दृष्टि से भयंकर घाटे का सौदा है। इस मामले में लगभग डेढ़ सौ साल पहले महर्षि दयानंद सरस्वती ने ‘गोकरूणानिधि’ नामक पुस्तिका लिखी थी। वह आज भी पढ़ने लायक है।

इसमें शक नहीं कि अच्छा मनुष्य वही है जो दूसरों का दिल न दुखाए। यदि मेरे गोमांस नहीं खाने से हिन्दू प्रसन्न हो जाएँ और सूअर का मांस नहीं खाने से मुसलमान प्रसन्न हो जाएँ तो मैं तत्काल दोनों मांस खाना छोड़ दूंगा, चाहे मांसाहार मेरे बचपन की ही आदत क्यों न हो? यदि मेरे लाल बंडी पहनने से मेरे पड़ोसी भड़क उठते हों तो वही पहनना मेरे लिए जरूरी क्यों है ? मांस—भक्षण के सवाल पर शाब्दिक छुरेबाजी करने की बजाय अपनी बहस को हमें वैज्ञानिक, तर्कसंगत और मानवीय बनाना चाहिए।

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