भारतीय साहित्य आज भी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की रखता है क्षमता
उगता भारत ब्यूरो
सृष्टि की प्रथम पुस्तक: हालांकि वेद का अर्थ ज्ञान होता है, इसके अलावा लाभ, अस्तित्व, विचार.. भी वेद को ही कहते हैं। वेद को पुस्तक कहना उचित नहीं, क्योंकि पुस्तक एक नपा-तुला शब्द है और सीमित आकार प्रकार में बंधी एक वस्तु। फिर भी प्रचलित भाषा के आधार पर वेद यानी वह पुस्तकें, जिनमें वैदिक संहिताओं को लिखकर सुरक्षित किया गया है।
सृष्टि के आरम्भ में #सर्वप्रथम कोई शब्द मनुष्य के मुँह से बोला गया, तो वह था– #अग्नि
सर्वप्रथम कोई वाक्य या पंक्ति बोली गई, वह थी वेद की ऋचा — #अग्निमिळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विज्ञम
सर्वप्रथम कोई ग्रन्थ लिखा गया, वह था — #ऋग्वेद।
उन सभी को नमन और प्रणाम, जिन्होंने पुस्तक के महत्व को बरकरार रखा है, जिनके घरों को दीवारें नहीं, पुस्तकें शोभायमान करती हैं, और जिनके हाथों को पुस्तक रत्न की तरह आभरणमय करती हैं। पुस्तकों के प्रति आदर अब भी हमारे मन में कहीं न कहीं बना हुआ है। पुस्तक– कहीं पोथी, कहीं पुंथी, कहीं चौपड़ी, तो कहीं ग्रन्थम् नाम से जानी जाती है। नई पीढ़ी बुक कहती है और ई-बुक से किंडल तक के रूप आ गई है। सब शब्दों की अपनी अपनी परिभाषाएं हैं। असुर बेनीपाल ने तो पूरा पुस्तकालय ही बनवाकर दुनिया को एक सुदीर्घ परम्परा दे ही दी थी।
हम सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि ‘पुस्त’ एक विश्वव्यापी शब्द है। इस शब्द के विदेशी होने की भी एक मान्यता अर्थात भ्रांति है, लेकिन चरक ने एक सूत्र स्थान में कहा है–
वैद्य भाण्डौषधै: पुस्तै: पल्लवैरवलोकनै:।
लभन्ते ये भिषक्शब्दमज्ञास्ते प्रतिरूपका:।।
(11, 51)
अन्यत्र संस्कृत में “वीणा च पुस्तकं” कहकर इसे सरस्वती का करचिह्न भी बताया है। हमारे यहां पुस्तक शब्द प्राचीन काल से ही व्यवहार में है। पुस्तक लेखन, पुस्तक दान का महत्व कई पुराणों में आया है। अग्निपुराण और उससे पूर्व शिवधर्मोत्तर पुराण में तो पुस्तक की यात्राएं तक आयोजित करने का वर्णन मिलता है। उसका पूरा विधान भी लिखा गया है कि नन्दी नागरी अक्षरों में लिखी गई पुस्तक को सिंहासन पर विराजित कर नगर में उसकी भव्य परिक्रमा करवाई जाए!
नारदपुराण में विविध पुस्तकों को लिखवार दान करने के कई पुण्य फलों को लिखा गया है। वैसे यह प्रसंग लगभग प्रत्येक पुराण के अन्त में मिल ही जाता है… तो यह भी भ्रांति फैलाई गई कि ‘पुस्तक’ शब्द अरब के रास्ते भारत आया। पुस्त माने हाथ। हाथ में रखने के कारण यह पुस्तक है। संस्कृत का ‘पुष्ट’ शब्द से ‘पुस्त’ बना। चरक ने भी वैसा प्रयोग किया। इस स्वरूप ने मूर्तिकारों को बहुत प्रभावित किया। पुस्तक जो रेयल पर रखकर पढ़ी जाती थी, वह हाथों की शोभा होकर ब्रह्मा, सरस्वती आदि की मूर्तियों के करकमलों में आयुध-स्वरूप स्थान पा गई। यह शब्द पांचवीं सदी तक तो व्यवहार में आ ही चुका था, क्योंकि बाद में हर्ष के दरबारी बाण ने इसे प्रयुक्त किया है।
हमारे यहां तो ग्रंथ कहा जाता था। ग्रंथ से आशय जिसको ग्रंथित या गांठ लगाकर रखा जाए। भोजपत्र सहित बाद में लिखी गई सभी पुरानी जितनी पोथियां हैं, उन सब में पृष्ठ (पन्ने) अलग-अलग होते थे और उनको क्रम में लगाते हुए क्रमश: रखा जाता। उनके ऊपर और नीचे लकड़ी की पट्टियों को के ही आकार में जमाया जाता था। उसको लाल या पीले कपड़े में बांधकर डोरी की गांठ लगा दी जाती थी। गांठ के कारण ही ये पोथियां ग्रंथ कही जाती थीं। दुनियाभर के प्राचीन पुस्तकालयों में पांडुलिपियां इसी रूप में मिलती हैं। ग्रंथ शब्द आज भी व्यवहार में है और बहुत सम्मान का स्थान रखता है। हर किताब को ग्रंथ नहीं कहा जाता।
लिखने के लिए कभी तख्ती काम में आती थी। इसे पाटी कहा जाता था। पट्टी भी इसी का नाम है। पट्टी पढ़ाना, पट्टी लिखना, पट्टी पहाड़े.. कई मुहावरों से इसके मायने समझे जा सकते हैं। मगर आज यह चलन के बाहर हो गई है। स्कूलों से पट्टी का प्रयोग बाहर हो गया है।
कई प्रकार की पट्टियां बनती थीं। काष्ठ फलक की बनी पट्टी, मिट्टी की पट्टी, श्लिष्ट पाषाण की पट्टी और गत्ते पर कालिख चढ़ाकर तैयार की गई पट्टी। हर्ष के दरबार में लिखने के लिए पट्टिकाओं के निर्माण का संदर्भ बाणभट्ट भी देते हैं। बहुत पहले कागज को बचाने के लिए ग्रंथकार पट्टियों पर ही श्लोक की रचना करते थे, ताकि गलती होने पर तत्काल सुधार हो जाए। बाद में अच्छी लिखावट वाला उसको बहुत मनोयोग से कागज या भुर्जपत्र पर लिखता। इसलिए कई ग्रंथों की मूल प्रति अर्थात पहली पांडुलिपि नहीं मिलती है।
काष्ठफलक की पट्टियां, पाटी, पाटियां तो अब देखने को भी नहीं मिलतीं, जो एक हाथ लंबी, आधे हाथ चौड़ी और लगभग 5 यव मोटी होती थीं। विद्यार्थियों के लिए पट्टीदान का महत्व भी मिलता है। पूर्व में पट्टिकाओं पर रमणियों को अपने मन के उद्गार लिखते हुए मंदिरों पर दिखाया जाता था। आज केवल उनकी स्मृतियां ही शेष रह गई हैं। ‘संत ज्ञानेश्वर’ फिल्म के एक गीत– पट्टी लिखना, पोथी भी पढ़ना, सारे जग में चम चम चमकना… में वह पट्टी दिखाई देती है।
वह भी क्या दौर था जब पाटी पर गणित के प्रश्न हल होते थे। तब गणित को भी ‘पाटीगणित’ के नाम से ही जाना जाता था। श्रीपति, श्रीधर, आर्यभट, भास्कराचार्य आदि ने इस शब्द का प्रयोग किया है। हालांकि टीकाकारों ने क्रमपद्धति के रूप में इस शब्द का अर्थ लिया है, मगर यह पाटी पर होने के अर्थ में अधिक व्यावहारिक थी।
भारत की प्रसिद्ध कहानियों की किताब है – पंचतंत्र। किसी जमाने में ये संस्कृत में लिखी गई थी। अगर धार्मिक किताबों को छोड़ दिया जाए, तो यह सबसे ज्यादा बार अनुवाद की गई किताब है। ग्यारहवीं शताब्दी तक ये किताब यूरोप पहुँच चुकी थी। सोलहवीं शताब्दी में ये ग्रीक, लैटिन, स्पेनिश, इटालियन, जर्मन, पुरानी इंग्लिश, चेक जैसी अनगिनत भाषाओँ में पाई जाने लगी थी। फ्रांस में देखेंगे तो कम से कम ग्यारह पंचतंत्र की कहानियां तो Jean de La Fontaine की रचनाओं में है। किताब के शुरू में ही बताया जाता है कि इसके रचयिता पंडित विष्णु शर्मा हैं। कोई और अलग किताब उसी काल के इस नाम के विद्वान् का जिक्र नहीं करती, इसलिए उन्हें ही किताब का मूल लेखक माना गया। कहानी के हिसाब से वह माहिलारोप्य नाम की राजधानी से राज्य करने वाले सुदर्शन नाम के राजा के बेटों को पढ़ाते हैं। ये माहिलारोप्य नाम की राजधानी भी अब नहीं मिलती।
राजा सुदर्शन के तीन बेटे थे, बाहुशक्ति, उग्रशक्ति, और अनंतशक्ति। राजा तो अच्छे थे लेकिन तीनों राजकुमार बड़े ही उज्जड किस्म के थे। परेशान राजा ने एक दिन दरबारियों से पूछा, किस तरह बच्चों को सही रास्ते पर लाया जाए? ऐसे तो ये नाश कर देंगे।
इस मुद्दे पर सब अपनी अपनी राय रखने लगे। आखिर सुमति नाम के एक विद्वान् ने कहा कि अलग अलग विषय पढ़ाने में बरसों लगेंगे। उनमें राजकुमारों की रूचि होगी या नहीं इसका भी पता नहीं। अगर कोई इन ग्रंथों का सार राजकुमारों को बता सके, वह भी गैर परंपरागत तरीकों से तो कोई बात बने। राजा सुदर्शन को सलाह अच्छी लगी तो उन्होंने सौ ग्राम (गाँव) देने की कीमत पर पंडित विष्णु शर्मा को बुलाने का प्रयास किया। पंडित विष्णु शर्मा ने शिक्षा के बदले धन लेने से तो मना कर दिया लेकिन राजकुमारों को पढ़ाने के लिए तैयार हो गए। जो कहानियां उन्होंने राजकुमारों को सिखाई वही आज पंचतंत्र के नाम से जानी जाती हैं। एक कहानी में ही गुंथी हुई दूसरी कहानी के रूप में आज भी पंचतंत्र हमारे पास है।
‘पंचतंत्र’ का नाम पंचतंत्र इसलिए है, क्योंकि इसे पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है:
१. मित्रभेद – मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव।
२. मित्रलाभ या मित्रसंप्राप्ति – मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ।
३. काकोलुकीयम् – कौवे एवं उल्लुओं की कथा।
४. लब्धप्रणाश – हाथ लगी चीज (लब्ध) का हाथ से निकल जाना (हानि)।
५. अपरीक्षित कारक – जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें; जल्दबाजी में कदम न उठाएं।
पंचतंत्र के कई संस्करण उपलब्ध हैं। कई शुरूआती अनुवाद जो कि सीरियन और अरबी अनुवादों से लिए गए हैं, क्षेमेन्द्र की लिखी “बृहत्कथा मंजरी” और सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं। तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। इस किताब की वजह से भी पंडित विष्णु शर्मा और माहिलारोप्य को कश्मीर का माना जाता है। नेपाल क्षेत्र के पंचतंत्र और हितोपदेश का एक रूप भी उपलब्ध होता है।
आज उपस्थित न रहते हुए भी पंडित विष्णु शर्मा के लिखे से हमने बहुत कुछ सीखा है। यह भी कि केवल श्रुति की परम्पराओं में लिपटे न रहकर, काम की चीजों को लिखकर रखना चाहिए। हमने पंचतंत्र की कई कहानियां उठा-उठाकर ताजा राजनैतिक संदर्भों पर चिपकाया है। पंचतंत्र के नाम में “तंत्र” होने का एक कारण यह भी है कि ये राजनैतिक समझदारी सिखाती हैं।
(साभार)