मुद्रा स्फीति नामक राक्षस पर अंकुश लगाने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर बढ़ाई

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अभी हाल ही में दिनांक 04 मई 2022 को भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर में 40 अंकों की वृद्धि कर इसे 4 प्रतिशत से बढ़ा कर 4.40 प्रतिशत कर दिया है। रेपो दर में उक्त वृद्धि 45 महीनों पश्चात अर्थात अगस्त 2018 के बाद की गई है। इसके तुरंत अगले दिन अर्थात 5 मई 2022 को अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने भी ब्याज दर में 50 अंकों की वृद्धि (22 वर्षों में सबसे बड़ी वृद्धि) की घोषणा करते हुए इसे 1 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। अमेरिका में पिछले दो माह के दौरान यह दूसरी बार ब्याज दर में वृद्धि की घोषणा की गई है। जबकि कई यूरोपीयन एवं अन्य विकसित एवं विकासशील देश पहिले ही ब्याज दरों में वृद्धि कर चुके हैं। आखिर क्यों पूरे विश्व में ब्याज दरें लगातार बढ़ाई जा रही हैं, इसे समझने का प्रयास करते हैं।

कोरोना महामारी के बाद से पूरे विश्व में मुद्रा स्फीति (महंगाई) बहुत तेजी से बढ़ने लगी है। अमेरिका एवं कई विकसित देशों में तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 8.50 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है जो कि पिछले 40 वर्षों की अवधि में सबसे अधिक महंगाई की दर है। भारत में भी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति 7 प्रतिशत के आस पास पहुंच गई है एवं थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर 13 प्रतिशत के ऊपर निकल गई है। अमेरिका की PEW नामक अनुसंधान केंद्र ने विश्व के 46 देशों में मुद्रा स्फीति की दर पर एक सर्वेक्षण किया है एवं इसमें पाया है कि 39 देशों में वर्ष 2021 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर, कोरोना महामारी के पूर्व, वर्ष 2019 की तीसरी तिमाही में मुद्रा स्फीति की दर की तुलना में बहुत अधिक है।

सामान्य बोलचाल की भाषा में, मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की कीमतों में हो रही वृद्धि से है। इसे कई तरह से आंका जाता है जैसे – थोक मूल्य सूचकांक आधारित; उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित; खाद्य पदार्थ आधारित; ग्रामीण श्रमिक की मजदूरी आधारित; इंधन की कीमत आधारित; आदि। मुद्रा स्फीति का आश्य मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से भी है, जिससे वस्तुओं के दामों में वृद्धि महसूस की जाती है।

मुद्रा स्फीति (महंगाई) एक ऐसा “राक्षस” है जो विशेष रूप से समाज के गरीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत अधिक प्रभावित करता है। क्योंकि, इस वर्ग की आय, जो कि एक निश्चित सीमा में ही रहती है, का एक बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही खर्च हो जाता है और यदि मुद्रा स्फीति की बढ़ती दर तेज बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति की दर को काबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है। मुद्रा स्फीति की तेज बढ़ती दर, दीर्घकाल में देश के आर्थिक विकास की दर को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है।

वर्ष 2014 में केंद्र में माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार के आने के बाद, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से, केंद्र सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 20 फरवरी 2015 को एक मौद्रिक नीति ढांचा करार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 4/5 प्रतिशत के आसपास आ गई थी। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।

उक्त करार पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारतीय रिजर्व बैंक सामान्यतः उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) के पास आते ही रेपो रेट (ब्याज दर) में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता हैं क्योंकि इससे आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा कम होने लगती है एवं उत्पादों की मांग कम होने से महंगाई पर अंकुश लगने लगता है। इसके ठीक विपरीत यदि देश में महंगाई दर नियंत्रण में बनी रहती है तो भारतीय रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी करने लगता है ताकि आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा की उपलब्धता बढ़े एवं देश के आर्थिक विकास को बल मिल सके। इस प्रकार देश में मुद्रा स्फीति की दर को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बदलाव कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।

हाल ही के समय में वैश्विक स्तर पर मुद्रा स्फीति की दर के अचानक इतनी तेजी से बढ़ने के कारणों में कुछ विशेष कारण उत्तरदायी पाए गए हैं। मुद्रा स्फीति की दर में यह अचानक आई तेजी किसी सामान्य आर्थिक चक्र के बीच नहीं पाई गई है बल्कि यह असामान्य परिस्थितियों के बीच पाई गई है। अर्थात, कोरोना महामारी के बाद वैश्विक स्तर पर एक तो सप्लाई चैन में विभिन्न प्रकार के विघ्न पैदा हो गए हैं। दूसरे, कोरोना महामारी के चलते श्रमिकों की उपलब्धता में कमी हुई है। अमेरिका आदि देशों में तो श्रमिक उपलब्ध ही नहीं हो पा रहे हैं, इससे विनिर्माण के क्षेत्र की इकाईयों को पूरी क्षमता के साथ चलाने में समस्याएं आ रही हैं। तीसरे, विभिन्न देशों के बीच उत्पादों के आयात निर्यात में बहुत समस्याएं आ रहीं हैं। पानी के रास्ते जहाजों के माध्यम से भेजी जा रही वस्तुओं को एक देश से दूसरे देश में पहुंचने में (एक बंदरगाह से उत्पादों के पानी के जहाजों पर चढ़ाने से लेकर दूसरे बंदरगाह पर पाने के जहाजों से सामान उतारने के समय को शामिल करते हुए) पहिले जहां केवल 10/12 दिन लगते थे अब इसके लिए 20/25 दिन तक का समय लगने लगा है। कई बार तो पानी का जहाज बंदरगाह के बाहर 7 से 10 दिनों तक खड़ा रहता है क्योंकि श्रमिकों की अनुपलब्धता के कारण सामान उतारने की दृष्टि से उस जहाज का नम्बर ही नहीं आता। चौथे, कोरोना महामारी का प्रभाव कम होते ही विभिन्न उत्पादों की मांग अचानक तेजी से बढ़ी है जबकि इन उत्पादों को एक देश से दूसरे देश में पहुंचाने में ज्यादा समय लगने लगा है। अतः मांग एवं आपूर्ति में उत्पन्न हुई इस असमानता के कारण भी महंगाई की दर में वृद्धि हुई है।

उक्त कारणों के साथ ही, चूंकि कोरोना महामारी के दौर में कई देशों ने आर्थिक चक्र को चलायमान बनाए रखने एवं गरीब एवं मध्यम वर्ग की आर्थिक मदद करने के उद्देश्य से बहुत अधिक मुद्रा सिस्टम में डाली थी जिससे सिस्टम में तरलता बढ़ी एवं वस्तुओं की मांग में तो वृद्धि हुई परंतु वस्तुओं की आपूर्ति समय पर नहीं हो सकी, इससे भी मुद्रा स्फीति की समस्या विकराल रूप धारण कर गई है। इसलिए अब वैश्विक स्तर पर विभिन्न केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को बढ़ाकर आर्थिक चक्र में तरलता कम करते हुए वस्तुओं की मांग में कमी करने का प्रयास कर रहे हैं। भारतीय बैंकिंग सिस्टम में दिनांक 2 मई 2022 को 7.2 लाख करोड़ रुपए से अधिक की तरलता बनी हुई थी। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक ने आरक्षित नगदी निधि अनुपात में भी 50 अंको की वृद्धि करते हुए इसे 4.50 प्रतिशत कर दिया है। इस वृद्धि से भारतीय बैंकिंग सिस्टम में 87,000 करोड़ रुपए की तरलता कम हो जाएगी।

भारत के बहुत पुराने समय के इतिहास में महंगाई नामक शब्द का वर्णन ही नहीं मिलता है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में किया जाता था एवं वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही सुनिश्चित रखी जाती थी अतः मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन पैदा ही नहीं होने दिया जाता था। बल्कि, शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि चूंकि वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहती थी अतः वस्तुओं के दाम कम होते रहते थे।

ब्याज दरों को बढ़ाकर कुछ समय के लिए तो मांग में कमी की जा सकती है। साथ ही, जब बाजार पूर्णतः प्रतिस्पर्धी के रूप में कार्य कर रहा हो तभी मौद्रिक नीति के माध्यम ब्याज दरों में परिवर्तन कर वस्तुओं की मांग को कम अथवा अधिक किया जा सकता है। परंतु, लम्बे समय के लिए यदि मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण रखना हो तो वस्तुओं की उपलब्धता पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। अतः वैश्विक स्तर पर भारत की पुरातन आर्थिक नीतियों के माध्यम से महंगाई पर सफलतापूर्वक अंकुश लगाया जा सकता है।

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