एक निर्माता के रूप में ललितादित्य
वास्तव में ललितादित्य भारतीय गौरव और शौर्य का प्रतीक है।
उसने किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को भारत पर आक्रमण करने से पूर्णतया रोक दिया था। भारत के शौर्य संपन्न शासक के कारण विदेशी हमलावर भारत के नाम से भी उस समय डरने लगे थे। ललितादित्य ने ललितपुर नाम का शहर भी बसाया था। जो आजकल लेतापुर के नाम से जाना जाता है। यहां पर एक विशाल मंदिर भी उसके द्वारा बनवाया गया था।
सम्राट ललितादित्य के बारे में इतिहासकार स्टेन ने कहा है कि :- ”ललितादित्य कालीन नगरों कस्बों तथा भग्नावशेषों को पूरे विश्वास के साथ ढूंढ निकालना संभव नहीं है, परंतु इनमें से जो जो हमें प्राप्त हुए हैं उनके भव्य भग्नावशेषों से उस प्रसिद्धि का पता चलता है , जो निर्माता के रूप में ललितादित्य को प्राप्त थी। मार्तंड के भव्य मंदिर के अवशेष , जिसे सम्राट ने इसी नाम के तीर्थ स्थल पर बनवाया था , आज भी प्राचीन हिंदू निर्माण कला का सबसे अनूठा नमूना है । अपनी वर्तमान अवस्था में भी इन भग्नावशेषों को उनके आकार प्रकार तथा निर्माण कला संबंधी डिजाइन और सुंदरता के कारण , सराहा जाता है। ( स्टैन ट्रांसलेशन ऑफ़ राजतरंगिणी, पृष्ठ 60 )
ललितादित्य के द्वारा एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की गई थी। उसके द्वारा तुर्किस्तान पर की गई विजय के उपलक्ष्य में आयोजित किए जाने वाले समारोहों की वार्षिक परंपरा को उसकी मृत्यु के शताब्दियों बाद तक भी निभाया गया था। गोपीनाथ श्रीवास्तव ‘कश्मीर समस्या और पृष्ठभूमि’ नामक अपनी पुस्तक में हमें बताते हैं कि सिंध के महान शासक राजा दाहिर द्वारा प्रथम मुसलमान आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम को एक पत्र लिखा गया था , जिसमें ललितादित्य की प्रशंसा इन शब्दों में की गई थी -‘यदि मैंने तुम्हारे विरुद्ध कश्मीर के राजा को भेजा होता, जिसकी दहलीज पर हिंद के दूसरे राजाओं ने माथे रख दिये हैं, जो पूरे हिंद को हिला देता है, मकरान और तुरान देशों तक को ….”
ललितादित्य के बारे में यह भी बताया जाता है कि उसने कन्नौज के शासक यशोवर्मन के साथ एक सैनिक सन्धि करके सारे तिब्बत को भी अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार आज के चीन का बहुत बड़ा भाग कश्मीर के इस महान हिंदू शासक के शासन के अधीन आ गया था । ललितादित्य की शूरवीरता का परिचय इस बात से भी हो जाता है कि उसने तुर्कों और कम्बोजों को भी युद्ध के मैदान में पराजित किया था। उस समय चीन भी भारत के इस महान और प्रतापी शासक के समक्ष पानी भरता था । चीन के लिए भी ललितादित्य ने एक दूतमंडल भेजा था। उसने परिहासपुर नामक नगर भी बसाया।
ललितादित्य के पश्चात इस वंश का महान शासक जयापीड़ हुआ। जिसने 31 वर्ष तक शासन किया। कहीं-कहीं उसका शासन काल 770 ई0 से 810 ई0 तक अर्थात 40 वर्ष का भी बताया गया है। उसके शासनकाल में भी सैनिक अभियानों का क्रम रुका नहीं। उसके शासन में आज कल का प्रयाग और बंगाल तक का सारा क्षेत्र आ गया था। उसने नेपाल पर भी चढ़ाई की थी, यद्यपि नेपाल को अपने अधीन करने में वह असफल रहा था। उसके पश्चात राजा जयप्रिय भी इस वंश का एक शक्तिशाली और प्रतापी शासक था।
उत्पल वंश
कश्मीर के महान और प्रतापी राजवंशों में उत्पल वंश के शासकों का नाम भी उल्लेखनीय है। इस वंश का पहला और संस्थापक प्रतापी शासक कर्मयोगी सम्राट अवन्तिवर्मन था। जिसने सन 855 में इस वंश की स्थापना की थी। अवन्तिवर्मन ने कश्मीर पर 28 वर्ष तक शासन किया। उसके शासनकाल में भी ललितादित्य की भांति कश्मीर ने विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति की। इस शासक ने अपने शासनकाल में वैदिक राजकीय सिद्धांतों को अपनाया और प्रजावत्सलता का भाव अपनाते हुए शासन किया।
यह कश्मीर का ऐसा पहला शासक था जिसने नदी घाटी परियोजनाओं की पृष्ठभूमि तैयार की। जिससे लोगों को बहुत राहत मिली थी। उससे पहले अनेकों स्थानों पर पर्वत इत्यादि गिर जाने से पानी का बहाव या तो बदल जाता था या फिर राज्य के अनेकों स्थानों पर जलभराव की स्थिति पैदा हो जाती थी। जिससे लोगों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। राजा ने अपनी प्रजा की इस समस्या का स्थायी समाधान किया।
अवन्तिवर्मन ने कश्मीर में अवन्तिपुर नगर की स्थापना की। इसे कला के उपासक के रूप में भी देखा जाता है। इस शासक के शासनकाल में ही अवन्तिस्वामिन और अवंतीश्वर नामक मंदिरों का निर्माण किया गया । जिनके खण्डहर आज भी पड़े हुए हैं। इन मंदिरों के पड़े हुए खंडहर इस राजा के गौरवशाली इतिहास को प्रमाणित और स्पष्ट कर रहे हैं।
अंग्रेज इतिहासकार पर्सी ब्राउन ने इसके बारे में लिखा है कि :- ” ……जबकि मार्तंड उस आकस्मिक वैभव की अभिव्यक्ति था, जब कश्मीर ने अपनी शक्ति की चेतना को पुनर्स्थापित कर लिया था। अवंतिस्वामिन मंदिर और भी अधिक सुरुचिपूर्ण भवन है। जो समय बीतने के साथ अनुभव की परिपक्वता द्वारा निर्मित हुआ है।”
मंदिरों के प्रति राजा की श्रद्धा से स्पष्ट होता है कि वह धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति का शासक था। मंदिर संस्कृति अपने मूल रूप में गुरुकुल की शिक्षा प्रणाली से विकसित हुई है। यह वह पवित्र स्थान होते थे जहां बैठकर आध्यात्मिक चर्चा की जाती थी। मूर्ति पूजा का पाखंड तो बहुत बाद में जाकर लागू हुआ। उससे पहले आध्यात्मिक चेतना शक्ति को जगाने के लिए ऐसे केंद्रों की स्थापना की जाती थी , जो शासक इन आध्यात्मिक चेतना केंद्रों को बनवाता था वह बहुत ही प्रजा वत्सल और धार्मिक व्यक्ति का शासक माना जाता था।
इसकी मृत्यु उरशा ( हाजरा) में हुई थी। इसके बाद शंकरवर्मन अगला शासक बना। शंकर वर्मन अपने पिता की भांति एक सुयोग्य शासक था। उसने अपने पिता की भांति सैनिक अभियानों को चलाया और काबुल पर अपना अधिकार स्थापित किया। शंकरवर्मन के शासनकाल में कश्मीर एक सैन्य शक्ति के रूप में विख्यात हुआ। आर्थिक रूप से भी कश्मीर ने उस समय उन्नति की। उसने संस्कृत को कश्मीर की राजभाषा के रूप में मान्यता दी। जिससे वैदिक संस्कृति को फूलने-फलने का अवसर उपलब्ध हुआ ।अपनी न्यायप्रियता और प्रजावत्सलता के भाव के कारण शंकरवर्मन एक लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ।
इसके बाद गोपालवर्मन कश्मीर का शासक बना। सन 950 ईसवी में राजगद्दी पर बैठा क्षेमेन्द्रगुप्त भी इस वंश का एक शासक था। इसने लोहर वंश की राजकुमारी दिद्दा से विवाह किया। रानी दिद्दा कश्मीर के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। क्षेमेन्द्र की मृत्यु के पश्चात कश्मीर की सत्ता रानी दिद्दा के हाथों में लगभग 50 वर्षों तक रही। जिसने कई प्रकार से कश्मीर का इतिहास को प्रभावित किया।
लोहर वंश
लोहर वंश की स्थापना 1003 ई0 में संग्राम राज के द्वारा की गई थी। उसके कार्यों पर प्रकाश डालने से पहले उसकी बुआ रानी दिद्दा के विषय में जानकारी देना भी आवश्यक है। क्योंकि रानी दिद्दा ने ही अपने शासनकाल के अंत में संग्रामराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था । अतः रानी दिद्दा का इस राजवंश की स्थापना में विशेष योगदान है।
कश्मीर के इतिहास में रानी दिद्दा का शासनकाल विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है। जिसने अपनी कूटनीति से कश्मीर के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
लोहर वंश की राजधानी लोहरिन थी, जो आजकल कश्मीर के पुंछ जिले में स्थित है। रानी दिद्दा ने अपने सौंदर्य और वाकपटुता से क्षेमेंद्र गुप्त को अपने चंगुल में ले लिया। जिससे राजा प्रशासनिक कार्यों में भी उसका परामर्श लेने लगा। फलस्वरूप रानी की महत्वाकांक्षा और भी अधिक बढ़ती चली गई। समय ऐसा भी आया कि जब शासन की बागडोर पूर्णतया रानी के हाथों में आ गयी। 8 वर्ष शासन करने के पश्चात राजा क्षेमेंद्रगुप्त की मृत्यु हो गई। उस समय राजा क्षेमेन्द्रगुप्त का पुत्र अभिमन्यु बहुत छोटा था ।उसकी अल्पावस्था का लाभ उठाकर शासन पर रानी का एकाधिकार हो गया। राज्य के सभी अधिकारी उसके आदेशों को स्वेच्छा से मानने लगे। इसके लिए रानी ने व्यापक स्तर पर प्रशासनिक फेरबदल किए। महत्वपूर्ण स्थानों पर उन्हीं लोगों को नियुक्त किया गया जो उसके कहे अनुसार कार्य करने के लिए तैयार हों। अपने विरोधियों को उसने या तो जेलों में डाल दिया या उनकी निर्मलता पूर्वक हत्या करा दी।
972 ईसवी में राजा अभिमन्यु की मृत्यु हो गई । राजा की मृत्यु ने रानी को गहरा आघात दिया । रानी ने अपने पुत्र अभिमन्यु के पुत्र अर्थात अपने पौत्र नंदी गुप्त को उसकी नाबालिग अवस्था में राजगद्दी पर बैठाया। यद्यपि वह पुत्र शोक के कारण अब बहुत टूट चुकी थी। परंतु उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने दु:ख को हृदय में समेटकर शासन कार्यों में रुचि लेती रही। यही कारण रहा कि रानी ने जनहित के कार्यों पर भी विशेष ध्यान दिया। उसने मठ – मंदिरों का निर्माण भी कराया। रानी ने जनहित से जुड़ी अनेक विकास योजनाओं को भी प्रारंभ कराया। इसके अतिरिक्त मंदिरों के निर्माण में भी उसने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
975 ईसवी में रानी ने अपने अपने दूसरे पौत्र भीम गुप्त को राज्य सिंहासन पर बैठाया। जब भीम गुप्त ने अपनी दादी के स्वेच्छाचारी आचरण का विरोध करना आरंभ किया तो रानी ने उसे भी गिरफ्तार करवाकर जेल में डाल दिया और 980 ईसवी में एक स्वतंत्र शासिका के रूप में कार्य करने लगी।
इस समय तक रानी के चरित्र का एक बहुत ही लज्जाजनक पक्ष सामने आया । रानी तुंग नाम के एक चरवाहे के प्रेम में पागल हो चुकी थी। अब रानी और तुंग की वासनात्मक बातों का प्रभाव राजनीति पर पड़ने लगा। रानी ने अपने प्रेमी को प्रधानमंत्री का पद सौंप दिया। यद्यपि वह एक बहुत साधारण सा चरवाहा था। श्री गोपीनाथ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक ‘कश्मीर’ में रानी के चरित्र के बारे में लिखते हैं :- ”दिद्दा 25 वर्ष तक रानी बनी रही। इस अवधि में उसने कितने ही षड़यंत्र रचे। कितनी ही निर्मम हत्याएं कीं और कितने ही लोगों को देश से निर्वासित किया। यह सब उसने अपना शासन कायम रखने के लिए ही किया था। यद्यपि दिद्दा का चरित्र बहुत कलुषित था और जीवन पापमय, तो भी उसने शासन बहुत ही कुशलता पूर्वक चलाया था।”
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत